पाँचवीं अनुसूची का मखौल – वाल्टर कण्डुलना
- वाल्टर कण्डुलना
भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी बहुल आबादी है, जो प्राचीन रीति-रिवाजों और प्रथाओं की एक सुव्यवस्थित प्रणाली के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को संचालित और सांस्कृतिक संसाधनों का प्रबंधन करती है। भारत का संविधान इनकी परम्परागत स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।
भारत के संविधान में कुल 22 भाग और 12 अनुसूची है| देश के शासन और प्रशासन की विधियों के विवरण विषयानुसार विभिन्न ‘भागों’ बांटे हुए हैं और भाग अनुच्छेदों में| कई बार कतिपय भागों या अनुच्छेदों का विस्तारीकरण भी किया गया है| इसी विस्तारीकरण का नाम ‘अनुसूची’ है| अनुसूची के द्वारा किसी भाग या अनुच्छेद से सम्बन्धित कुछ विशेष प्रावधान किये गए हैं या कुछ विशेष वर्गों के लिए कुछ अपवादों और उपान्तरणों के साथ उस भाग/अनुच्छेद में अलग से विशेष प्रावधान किये गए हैं| अनुसूची का मूल संविधान के किसी भाग या अनुच्छेद में ही विद्यमान है|
अनुसूची की ये विशेषताएँ हैं –
(1) ‘भाग’ या अनुच्छेद का सामान्य विस्तारीकरण या अनुलग्नक
(2) ‘भाग’ या अनुच्छेद से सम्बन्धित अलग से विशेष प्रावधान
(3) ‘भाग’ अनुच्छेद का अपवादों और उपान्तरणो के साथ विस्तारीकरण
संविधान में भाग X और उसके अनुच्छेद 244(1) के विस्तारीकरण का एक अच्छा उदाहरण है| संविधान के इस भाग में अनुसूचित क्षेत्र औरअनुसूचित जनजातियों के बारे में चर्चा है|
अनुच्छेद 244(1) में लिखा है: असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के अलावा अन्य किसी भी राज्य में अनुसूचित क्षेत्र और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए पाँचवीं अनुसूची में लिखे प्रावधानों का अनुगमन करना पड़ेगा|
अब चूँकि अनुसूचित जनजातियों को संविधान में एक अलग वर्ग का दर्जा मिला है, जो सामान्य नागरिकों से अलग हैं इसलिए उनके प्रशासन के लिए विशेष प्रावधान भी दिए गए हैं और ये प्रावधान सामान्य प्रावधानों के अलग अपवाद स्वरुप के साथ साथ उपांतरित भी किये गए हैं|
इस तरह से पाँचवीं अनुसूची संविधान के अनुच्छेद 244(1) का ‘विस्तारीकरण’ है। यह ‘विशेष प्रावधान’ है और साथ ही यह ‘अपवाद और उपान्तरण’ भी है| इसे हम इस तरह से स्पष्ट कर सकते हैं| पाँचवी अनुसूची के तहत, इसके सेक्शन (2) के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों मे राज्य की ‘विधायिका शक्ति’ का विस्तार नहीं किया गया है| अनुसूचित क्षेत्रों मे केवल राज्य की कार्यपालिका शक्ति’ का विस्तार किया गया है |
पाँचवीं अनुसूची के क्षेत्रों की विधायिका और इसके अधिकार क्षेत्र को समझना ज़रूरी है। अनुसूचित क्षेत्रों के लिए जनजाति सलाहकार परिषद् का गठन होना है| जनजाति सलाहकार परिषद् 20 अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों से मिल कर बनेगा, जिसमें 3/4 यानी पन्द्रह सदस्य उस राज्य के विधान सभा के अनुसूचित जनजाति के विधायक होंगे और शेष पाँच अनुसूचित जनजाति के ही सदस्य होंगे जो विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों से होंगे|
अनुसूचित क्षेत्रों की विधायिका के एक अंग के रूप में जनजाति सलाहकार परिषद् का सबसे बड़ा रोल है| यह सलाहकार परिषद् तीन विषयों पर राज्यपाल को सलाह देगा –
(1) आपसी जनजातियों के बीच जमीन के ट्रांसफर का नियमन कैसे हो|
(2) जनजातियों को जमीन का आबंटन का नियमन कैसे हो|
(3) साहूकार या बैंक जो आदिवासियों को ऋण देते हैं, उनका नियमन कैसे हो|
इनसे सम्बन्धित मुद्दे परिषद् में विस्तृत चर्चा के बाद विधेयक का रूप लेंगे और राज्यपाल के अनुमोदन से राष्ट्रपति के पास फाइनल हस्ताक्षर केलिए भेजे जायेंगे इसके बाद राज्यपाल इस विधेयक को गजट के द्वारा नोटिफिकेशन करेंगे| तब यह कानून बन जायगा| स्पष्ट है कि यह प्रक्रिया सामान्य कानून बनाने की प्रक्रिया से अलग है|
पाँचवीं अनुसूची के बारे मे, इसीलिए कहा जाता है: पाँचवीं अनुसूची मानो संविधान के अंदर एक संविधान है|
1) पाँचवीं अनुसूची मूलतः, अनुसूचित क्षेत्रों एवं उन क्षेत्रों में निवास करने वाले अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रशासन का एक विशिष्ट मॉडल या सिस्टम या व्यवस्था है जिसमें सामान्य क्षेत्र की व्यवस्था के अपवादों, जैसे संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज, सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान आदि के साथ-साथ उसका पारिस्थितिक अनुकूलन या बदलाव या उपान्तरण भी किया गया है जिसमें सामान्य व्यवस्था के अन्तर्गत मुखिया और प्रमुख के स्थान पर पाँचवी अनुसूची क्षेत्र में ‘मुंडा पड़हा’ या ‘मुंडा मानकी’ या ‘माँझी परगानईत’ या ‘ढोकलो सोहोर’ की व्यवस्था को मान्यता दी गई है।
2) पाँचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की अलग-अलग भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को परिभाषित करती है| केन्द्र सरकार के हिस्से में कानून बनाने की जिम्मेदारी है तथा राज्य सरकारों के हिस्से में इन कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी है| दूसरे शब्दों में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विधायिका शक्ति केन्द्र के हाथ में है और कार्यपालिका शक्ति राज्य सरकार के हाथों में है|
सब कुछ स्पष्ट रूप से परिभाषित होने के बावजूद अनुसूचित क्षेत्र अपने संवैधानिक प्रावधानों के लागू न होने की समस्या का सामना कर रहे हैं। अनुसूचित क्षेत्रों में वहाँ की सारी समस्याओं की जड़ है राज्य की ‘कार्यपालिका और विधायिका’ का अनुसूचित क्षेत्रों के ‘विधायिका क्षेत्र’ में घुसपैठ करना, और दूसरा है सामान्य क्षेत्रों के नियम और कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में थोप देने की प्रक्रिया|
पाँचवीं अनुसूची में राज्यपाल की भूमिका बेहद अहम् है| जहाँ तक विधायी शक्ति या अधिकार की बात है, राज्यपाल को लगभग असीमित अधिकार हैं| राज्यपाल को ट्राइब्स एडवाइजरी कौंसिल (टीएसी) पर नियमावली बनाने का अधिकार है| इसके साथ ही उसे उस नियमावली के तहत उसके सदस्यों की नियुक्ति, उसके अध्यक्ष का चुनाव करने, उसकी मीटिंग बुलाने तथा मीटिंग के अजेंडे तय करने का पूरा अधिकार है| सबसे दुखद बात तो यह है कि अनुसूचित क्षेत्र से सम्बन्धित अपने विशिष्ट अधिकार क्षेत्र के इन अति महत्वपूर्ण विषयों पर राज्यपाल उदासीन नजर आते हैं और राज्य की कार्यपालिका ज्यादा सक्रिय नजर आती है|
पिछले तीन-चार सालों से खुद राज्य सरकार के द्वारा ही अनुसूचित क्षेत्रों से सम्बन्धित कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है| ट्राइब्स एडवाइजरी काउन्सिल की नियमावली जो तत्कालीन बिहार में बनी थी, उसको अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया है| और चूँकि वह एक ‘जनजाति परामर्शदात्री परिषद्’ है जिसका काम जनजातियों के कल्याण और स्वच्छ प्रशासन से सम्बन्धित मुद्दों पर राज्यपाल को परामर्श देना है। राज्यपाल को ही इसकी नियमावली बनानी है| साथ ही कोई गैर-जनजाति व्यक्ति इस परिषद् का सदस्य नहीं बन सकता है| लेकिन झारखण्ड में वर्तमान में एक गैर-जनजाति व्यक्ति इसका अध्यक्ष बन बैठा है और इस टीएसी की आड़ में जनजातियों के ही विरुद्ध तमाम नीतिगत फैसले लिए जा रहे हैं|
अनुसूचित क्षेत्रों में जल-जंगल-जमीन सम्बन्धी कानून बेहद अहम् और विशिष्ट हैं| सरकार बनने के तुरन्त बाद राज्य सरकार ने आदिवासियों की जीवन-रेखा के कानूनों सीएनटी/एसपीटी कानून, जो उनकी आर्थिक रीढ़ के आधार कानून हैं, से छेड़छाड़ करना शुरू किया जो कि राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर की चीज थी| ऊपर से जले पर नमक छिड़कने का काम यह किया कि गैर-संवैधानिक तरीके से ‘भूमि बैंक’ की स्थापना कर दी और लगभग 20.56 लाख एकड़ जमीन चिन्हित कर ली गयी जो मोमेंटम झारखण्ड के तहत विभिन्न कंपनियों को एमओयू के तहत आवंटित किये जायेंगे|
फिर डोमिसाइल नीति को लें। माननीय झारखण्ड हाईकोर्ट के पाँच सदस्यीय बेंच के द्वारा दिए गए गाइडलाइन्स के विपरीत राज्य सरकारने ‘स्थानीय व्यक्ति’ की परिभाषा ना दे कर झारखण्ड में निवास करने वाले हर किसी भी भारतीय को झारखण्डी बना दिया|
बीस साल से भी ज्यादा समय गुजर गया| पी-पेसा कानून-1996 अभी तक अपनी सम्पूर्णता में लागू होने के लि, लंबित पड़ा हुआ है| यहपी-पेसा कानून मूलतः अनुसूचित क्षेत्र के लि, लोकल गवर्नेंस के लि, ,क सिस्टम को स्थापित करता है| लेकिन उसके स्थान पर सामान्यक्षेत्र का कानून ‘झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001’ को अनुसूचित क्षेत्रों में जानबूझ कर थोपा गया है| पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम-1996 के प्रावधान मूलत: स्व-शासन की संस्था के रूप में काम करने के लिए है न कि स्व-शासन की इकाई के रूप में। पेसा कानून की आत्मा उसकी स्वायत्तता है जो उसे यह कानून देता है| झारखण्ड पंचायत राज अधिनियम 2001 को किसी प्रकार की कोई स्वायत्तता नहीं दी गयी है और ना ही संविधान का भाग IX इसकी इजाजत देता है
इसी प्रकार अनुसूचित क्षेत्रों के अन्तर्गत पड़ने वाले नगर निकायों के 16 अप्रैल 2018 को किये गए चुनाव भी असंवैधानिक हैं| भारत के संविधान के 74 वें संशोधन कानून के तहत संविधान के अनुच्छेद 243-ZC(1) के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में नगरपालिकाओं के गठन पर संवैधानिक रोक है| अनुच्छेद 243-ZC(3) के तहत सिर्फ और सिर्फ संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि अनुसूचित क्षेत्रों में नगरपालिका की स्थापना हेतु अपवादों और उपान्तरों के साथ विशेष कानून का निर्माण करेगा, जो कि अभी तक संसद ने नहीं बनाया है|
इस प्रकार अनुसूचित क्षेत्र विरोधी कानूनों के कारण अनुसूचित जन-जाति और दूसरे अन्य मूलवासी समुदाय के लोग अपनी जमीन से विस्थापित हो रहे हैं और अपने दूसरे संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो रहे हैं और उपर्युक्त अनुसूचित क्षेत्रों में कई तरह की समस्याएं उठ गयी हैं जो शांति और स्वच्छ प्रशासन में बाधक सिद्ध हो रही हैं|
राज्य सरकार आज खुद जनता के कटघरे में है कि उसने संविधान की सारी परम्पराओं को तोड़ा है, कानून बनाने की प्रक्रियाओं को तोड़ा है|
पिछले वर्ष 28 मार्च के ‘प्रभात खबर’ में मुखपृष्ठ पर सरकार के हवाले से यह समाचार छप चुका है कि जमीन की हेराफेरी करने वाले अफसरों, कर्मियों पर नहीं होगा केस। सरकार की ओर से दिया गया यह क्लीन चिट झारखण्ड की राज्य सरकार के प्रशासन के तरीके और उसकी मंशा को पूरी तरह व्यक्त करता है। सरकार का यह फैसला खुल्लमखुल्ला अराजकता का आमन्त्रण है| इस सरकार के लिए संविधान और नियम-कानून आदि के कोई मायने नहीं हैं|
यक्ष प्रश्न यह है कि वर्तमान के इन हालातों में आम झारखण्डी आदिवासी जनता इस सरकार से ना केवल क़ानून-व्यवस्था वाले नियम बल्कि अनुसूचित क्षेत्रों के संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने की अपेक्षा कैसे कर सकती है?
लेखक आदिवासी बुद्धिजीवी मंच, झारखण्ड के संयोजक हैं|
सम्पर्क- +917462909124, kandulnaemil@gmail.com
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