राजनीति

कम्युनिस्टों और समाजवादियों की भारी भूलें

 

बीसवीं शताब्दी के बीस के दशक के आरंभिक दौर में, कई प्रमुख समाजवादी ग्रुप सक्रिय थे, जिन्होंने आज़ाद भारत को समानता और स्वतन्त्रता पर आधारित एक समाजवादी देश बनाने का काम किया था। भारतीय समाजवादी आन्दोलन के पिछले सौ वर्षों की यात्रा पर नज़र डालें तो पाएंगे कि यह यात्रा सफलता और असफलता का एक मिश्रण रही।

असफलता की बात करें तो कह सकते हैं – सिद्धांतों की असफलता, जनसमूह पर आधारित पार्टियों को चलाने में तारतम्यता की कमी तथा मध्यमार्गी एवं इनसे इतर पार्टियों और क्षेत्रीय पार्टियों के एक समाजवादी विकल्प का अभाव। आज़ाद भारत में तो इन्होंने अपनी पहचान ही खो दी है और ये कॉंग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट और साम्प्रदायिक पार्टियों और द्रमुक, अन्नाद्रमुक, शिवसेना और अकाली दल जैसी उनकी सहयोगी पार्टियों के अभिन्न अंग बन गये हैं। कई बार तो ये समाजवाद और धर्मनिरपेक्षतावाद कीअपनी प्रतिबद्धता भी भूल गये।

वैसे, इन सबके बावजूद कम्युनिस्ट और समाजवादी ये तो दावा कर ही सकते हैं कि उन्होंने कई क्रान्तिकारी कार्यक्रमों का सूत्रपात किया, जैसे – भूमि सुधार, सत्ता का विकेंद्रीकरण, जन साधारण के हाथों सत्ता सौंपना, बार बार सत्ता में आई कॉग्रेस सरकार को समाजवाद पर आधारित समाज निर्माण के लिए बाध्य करना, न्याय पर आधारित सामाजिक संरचना के लिए संघर्ष करना तथा गैर कोंग्रेसी सरकारों को इस बात के लिए बाध्य करना कि वे मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने के लिए अतिरिक्त कदम उठाएं एवं देश और समाज को सामाजिक न्याय की दिशा में ले जाएं। इन्होंने नागरिक स्वतन्त्रता, मानव अधिकार, समाज के हर तबकों के बीच समानता; जाति, रंग, धर्म, सिद्धांत तथा लिंग के आधार पर भेदभाव के विरोध के लिए और जनसाधारण के उत्थान के लिए कड़ा परिश्रम भी किया। कम्युनिस्टों और समाजवादियों के पास समृद्ध विरासत भी है। इन्होंने पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया और इस महान देश को – न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि पुर्तगालियों जैसी विदेशी हुकूमतों से मुक्त कराया और उसके बाद स्वतन्त्र भारत में एक जिम्मेवार विपक्ष की रचनात्मक भूमिका भी बखूबी निभाई।

लेकिन साथ ही , कम्युनिस्ट और समाजवादी दोनों ने ही कभी न भुलाई जाने वाली भारी भूलें कीं और अनजाने में ही सही,स्वतन्त्र भारत के प्रजातांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष संविधान के तले, एक समतामूलक बहुजन समाज की रचना का जो, राष्ट्रीय आन्दोलन के मूल आदर्श का, स्वप्न था उसे भंग किया और इस तरह समाजवाद को पर्याप्त क्षति पहुंचाई। दूसरे विश्व युद्ध के दरम्यान वामपंथियों ने मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया और महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हिस्सा नहीं लिया। बाद में इन्होंने साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग के दो देशों के सिद्धांत का समर्थन किया, जिसके फलस्वरूप पाकिस्तान बना।

दूसरी बात, वामपंथी और समाजवादी दोनों ने स्वतन्त्र भारत के संविधान निर्माण में और संविधान निर्माण करने वाली संस्था- संविधान सभा – में हिस्सा नहीं लिया और तब इन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से केंद्र में सत्ता हथियाने के लिए साम्प्रदायिक और प्रगतिविरोधी ताकतों का समर्थन किया, जिसका बुरा परिणाम देश अबतक भुगत रहा है।

जहाँ तक स्वतन्त्र भारत के संविधान निर्माण की बात है, कम्युनिस्टों और समाजवादियों दोनों की मानसिकता समान थी। 25 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में, भारतीय संविधान के जनक डॉ भीमराव अंबेडकर ने, भारत के संविधान निर्माण पर बोलते हुए कहा था, “संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो तरफ़ से आ रही है – वामपंथी पार्टी से और समाजवादी पार्टी से। वे संविधान की निन्दा क्यों कर रहे हैं? क्या इसलिए कि वास्तव में यह एक खराब संविधान है? मैं हिम्मत के साथ कह सकता हूँ – ‘नहीं’। वामपंथी पार्टी प्रोलेतरिएत की तानाशाही पर आधारित संविधान चाहती है और वे(वामपंथी)निंदा कर रहे हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतन्त्र पर आधारित संविधान है। इधर समाजवादी दो चीजें चाहते हैं – एक तो यह कि यदि वे सत्ता में आ जायँ तो संविधान उन्हें बिना क्षतिपूर्ति के निजी सम्पत्तियों के राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण की स्वतन्त्रता दे दे और दूसरी यह कि संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार पूरी तरह निरपेक्ष और असीमित हों ताकि यदि वे सत्ता में न आ सकें तो उन्हें न सिर्फ आलोचना करने बल्कि राज्य को उखाड़ फेंकने की अबाध स्वतन्त्रता हो।”

स्वतन्त्रता के तुरत बाद तो इन्होनें प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक तथा साम्राज्यवाद समर्थक ताकतों के विरुद्ध, जवाहरलाल नेहरू के समर्थन में, सभी प्रगतिशील ताकतों के एकजुट होने की आवश्यकता को महसूस किया पर शीघ्र ही- दिसम्बर 1947 में – वे अनजाने दबाव के कारण पीछे हट गये और ‘ये आज़ादी झूठी है’ के नारे लगाने लगे। उन्होंने यह भी कहा कि 15 अगस्त राष्ट्रीय विश्वासघात का दिन है, कि काँग्रेस साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद की ओर चली गयी है और नेहरू साम्राज्यवाद की कठपुतली बन गये हैं।

संविधान निर्माण के कार्य में भाकपा ने भाग नहीं लिया और इसे ‘गुलामी का घोषणापत्र’ कहा। नये भारतीय संविधान पर पार्टी ने निर्लज्ज होकर प्रतिक्रिया जाहिर की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मैनिफेस्टो में इसे ‘भारतीय पूंजीवादी वर्ग और ब्रिटिश अधिनायकवाद की साजिश का प्रतिनिधित्व करता, गुलाम संविधान’ कहा गया। पार्टी ने इसे ‘फासिस्टों के अत्याचार का संविधान, दैत्याकार संविधान और एक धोखाधड़ी’ बताया।

दूसरी ओर आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, फरीदुल हक़ अंसारी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहरअली, अरुणा आसफ अली और अशोक मेहता जैसे चोटी के नेताओं ने संविधान सभा में भाग नहीं लिया, बल्कि इनलोगों ने संविधान सभा का बहिष्कार किया। यहाँ तक कि इन्होंने यह सलाह दी कि संविधान सभा भंग कर दी जाय और वयस्क मताधिकार पर पुनः संविधान सभा चुनी जाय। जयप्रकाश नारायण ने, जिन्होंने संविधान सभा मे भाग लेने से मना कर दिया, माना कि यह एक मृत संविधान साबित होगा। आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार यह न तो जनमानस की आशाओं और इच्छाओं को दर्शाता था, न उसका प्रतिनिधित्व करता था।

दूसरी भयंकर भूल इन्होंने 1948 में तब की जब संगठन को इनकी सख्त आवश्यकता थी, इन्होंने काँग्रेस पार्टी छोड़ दी। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में ये काँग्रेस पार्टी के न सिर्फ आवश्यक अंग थे बल्कि इन दोनों नेताओं से इनके बड़े विशिष्ट सम्बन्ध थे और इन्हें गांधी औऱ नेहरू के ‘अत्यधिक चहेते लोग’ के रूप में जाना जाता था। राष्ट्रीय आन्दोलन के दरम्यान इन्होंने अपनी पूरी योग्यता के साथ काँग्रेस पार्टी को बनाया सँवारा और संगठन को एक समाजवादी स्वरूप दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने अखिल भारतीय काँग्रेस का 1931 का कराँची प्रस्ताव तैयार किया था, के अनुसार ‘यह पहली बार है कि भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने भारत के लक्ष्य के रूप में विकास के समाजवादी ढांचे को निर्धारित किया और मौलिक अधिकार तथा आर्थिक कार्यक्रम का प्रस्ताव पारित हुआ।’ उन्होंने कहा, ‘इसके मूल में ‘उ. प्र. काँग्रेस कमिटी का 1929 का प्रस्ताव है’, जिसे समाजवादी ग्रामीण कार्यक्रम के रूप में एआईसीसी द्वारा स्वीकृत किए जाने के लिए नरेन्द्र देव और डॉ. सम्पूर्णानन्द ने तैयार किया था।

भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात, जेपी का मानना था कि समाजवादियों को काँग्रेस छोड़ देना चाहिए और एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा करनी चाहिए। आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया तथा कई दूसरे समाजवादी इस पक्ष में नहीं थे और महात्मा गांधी भी मान रहे थे कि समाजवादियों को काँग्रेस में रहना चाहिए, यहाँ तक कि उनके आलोचक वल्लभ भाई पटेल तथा मौलाना आज़ाद ने उन्हें पार्टी नहीं छोड़ने और नई सरकार का हिस्सा बनने को कहा। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली और यूसुफ मेहरअली ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के हीरो थे और काँग्रेस में इनकी काफी प्रतिष्ठा थी। जेपी और लोहिया तो कांग्रेस कार्यकरिणी के सदस्य थे, लेकिन 1948 में उन्होंने भी काँग्रेस छोड़ देने का निर्णय किया।

काँग्रेस पार्टी की प्रगतिवादी, समाजवादी ताकतों के लिए और मुख्यतः पण्डित नेहरू के लिए यह एक आघात था, क्योंकि ये सब राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान उनके प्रिय कॉमरेड थे।

प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चन्द्र के अनुसार, समाजवादियों के इस तरह निकल जाने से काँग्रेस के अंदर की परिवर्तनकामी ताकतें कमज़ोर हुईं थीं और इस तरह से खाली हुई जगहें निहित स्वार्थी तत्वों – जमींदारों, धनी किसानों यहाँ तक कि राजाओं द्वारा शनैः शनैः भरती गयीं। नेहरू ने देखा कि समाजवादियों की अनुपस्थिति से काँग्रेस के आदर्श कमज़ोर हो रहे थे और वे स्वयं धीरे धीरे रूढ़िवादी सोच के लोगों से घिरते चले जा रहे थे। इसलिए नेहरू ने कई बार इन समाजवादियों को काँग्रेस में वापस लाने के या कम से कम विकास आधारित समानतावादी मुद्दों के सम्पादन में इनका सहयोग पाने के कई प्रयास किये।

अगला भाग – कम्युनिस्टों और समाजवादियों की भारी भूलें

अनुवाद – प्रकाश देवकुलिश

(‘जनता’ जनवरी 2016 से साभार)

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कुर्बान अली

लेखक वर्षों बीबीसी से सम्बद्ध रहे वरिष्ठ पत्रकार हैं। सम्पर्क +919899108838, qurban100@gmail.com
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