- अरुण कुमार पासवान
राजतंत्र, कुलीनतंत्र, गणतंत्र, लोकतंत्र, मन्त्र तंत्र, स्नायु तंत्र, ऐसे-ऐसे शब्द हम तब से सुनते आए हैं जब न तो इनका अर्थ समझते थे न ही इनका, कम से कम तंत्र का तो अवश्य ही, उच्चारण करना भी आसान था। हालाँकि बाद में चलकर तो यह पाया कि कितनी जगहों में तंत्र शब्द का उच्चारण लोग जीवन भर सही नहीं करते। कहीं लोग इसे तंतर, कहीं तोंतोर, और कहीं तोन्त्रो भी बोलते हैं। पर वहाँ इस तरह के उच्चारण को ग़लत नहीं कहा- बोला जाता है, क्योंकि वहाँ शब्द पर क्षेत्रीय बोली भाषा का प्रभाव होता है और क्योंकि वे क्षेत्र हिंदी क्षेत्र नहीं होते इसलिये वहाँ के लिए इसे अपने हिसाब से बोलने की छूट होती है। हिंदी लिखते समय वे भी तंत्र ही लिखते हैं। पर हिंदी वाले होने के नाते हमारे लिए तो इसे तंत्र लिखना और तंत्र बोलना आवश्यक था। इतना ही नहीं शब्दों के सही अर्थ, सही आशय समझना भी अनिवार्य था। क्योंकि हम तो होश सम्भालते ही विद्यार्थी हो गए थे। और विद्यार्थी का एकमात्र कर्म होता है सीखना। सीखना बोलने के लिए, सीखना लिखने के लिए, सीखना व्यवहार के लिए, सीखना आचरण के लिए, सीखना जीने के लिए सीखना कमाने के लिए।
अरे-अरे ये सीखते-सीखते हम कहाँ आ गए? कमाने और जीने के लिए सीखना तो सबसे अलग है, क्योंकि हर कोई अपने ढंग से जीना, अपने ढंग से कमाना पसंद करता है। यों ये बुरी बात नहीँ है, क्योंकि कोई यदि सीखना चाहेगा तो अच्छे से ही सीखना चाहेगा। अच्छे से जीना, अच्छे से कमाना। पर ये जीने और कमाने का “अच्छे से”बड़ा कठिन डगर है, बड़ी फिसलन भरी डगर। उस पर कदम बड़ी सतर्कता से रखने होते हैं। सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी। और कुछ लोग, आज के ज़माने में ज़्यादातर लोग भी मह सकते हैं, दुर्घटना से घबड़ाते नहीं, बल्कि दुर्घटनाओं के सहारे ही अपनी अलग पहचान बना लेते हैं, अपना कुनबा, अपनी दुनिया बना लेते हैं।
चलिए यदि आप को लगता है कि मैं विषयांतर कर रहा हूँ, या बातों को कुछ अधिक घुमा रहा हूँ तो वापस मोड़ लेता हूँ मैं अपनी कलम को वो बात कहने के लिए जिसके लिए बात शुरू की है। राजतंत्र, कुलीनतंत्र तो कहीं कहीं ही अब रह गए हैं, कहने के लिए। गणतंत्र और लोकतंत्र में लोक को बड़ा कम फ़र्क नज़र आता है। फिर भी दुनिया के समक्ष जो तंत्र चर्चा में है वो है लोकतंत्र, जो व्यक्ति के, समाज के नागरिक के अधिकारों की बात करता है। और क्योंकि यहाँ अधिकार मूल विषय होता है, इसलिए लोग यानि ‘लोक’ इसी तंत्र की बात करना, सुनना चाहता है। लोकतंत्र का, अपने अधिकारों का समर्थक होने के नाते मैं भी लोकतंत्र की बात करने का ही इच्छुक रहता हूँ, इच्छुक हूँ।
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आइए अभी चुनाव के इन दिनों में चुनाव के प्रचार-प्रसार को देखते हुए हम लोकतंत्र की ही बात करते हैं जिसका महापर्व कहते हैं चुनाव को। आप समाचारपत्र पढ़ते होंगें, रेडियो, टीवी देखते होंगे। नेताओं के भाषणों के अंश पढ़ते, सुनते, देखते होंगे। मैं भी। चुनाव घोषणा पत्र से लेकर चुनावी भाषणों तक में जिस उदारता से नेता बातें करते हैं, जिस प्रकार की सुविधाएँ देकर लोक का उद्धार करने की बात करते हैं उससे तो लोकतंत्र का अर्थ ही गौण सा हो जाता है। और इनके भाषणों में होता क्या है? दूसरे दलों की बुराई, दूसरे नेताओं की बुराई, दूसरोँ पर घोटालों के आरोप। खुद के न तो किए का हिसाब, न अपने अपराधों के बारे में कोई सफ़ाई। योजनाएँ तो ऐसी की मानो कह रहे हों हम सत्ता में आए तो पानी में आग लगा देंगे, आसमान के तारे तोड़कर जनता में खैरात बाँट देंगे। कोई किसानों को साल में 72 हज़ार देने की बात करता है तो कोई सभी को पेंशन। कोई कहता है आपको अपना वोट बाँटना नहीं है, कोई कहता है मुझे वोट मत दो पर मुझसे किसी मदद की उम्मीद भी मत करना बाद में। और किसी की तो बात ही निराली, जो उसे वोट नहीं देगा वो पाप का भागी होगा। और सोशल मीडिया पर तो ऐसी-ऐसी ख़बरें और वीडिओज़ आते हैं कि यदि आप उन्हें सच मान लें तो आपका भगवान ही मालिक। ऐसे-ऐसे इतिहास बताते हैं कि आप को अपनी पढ़ाई और डिग्री पर संदेह होने लगे। ये आपकी काबिलियत है कि इन बातों से आप बेअसर रहते हैं जैसे ये राजनीति के खिलाड़ी आपकी ज़रूरत, आपकी हैसियत से बेअसर, बेखबर अपनी स्कोरिंग में लगे रहते हैं। उन्हें ये याद ही नहीं कि वे जो बाँटने की बात करते हैं वो उनका है या जिन्हें उन खैरातों के लिये वे हाथ फैलाने कहते हैं, उन्ही का। हर कोई कहता है मुझे 5 वर्षों के लिए अपना मालिकाना हक़ दे दो। और कहने का ढंग चाहे जैसा भी हो, मुझे तो लगता है फ़िल्म शोले में गब्बर कह रहा हो “मुझे ये हाथ दे दे ठाकुर।” और लोक अपने हाथ दे देने को मजबूर, क्योंकि इन नेताओं ने, इन राजनीतिज्ञों ने लोकतंत्र को लोकतंत्र रहने कहाँ दिया! अपनी दबंगई से, अपनी धूर्त्तता से इन्होंने स्थापित कर लिया है ‘तंत्रलोक’,जिसके आगे संविधान मजबूर है, संविधान का प्रहरी दिकभ्रमित, तो लोक क्या करे? नेता मदारी जनता जमूरा। मदारी बाँसुरी बजायेगा, डमरू बजायेगा, जमूरे के मुँह पर काला कपड़ा ढँकेगा, जमूरा वही देखेगा जो मदारी दिखाएगा, क्योंकि ये ‘लोकतंत्र’ नहीं, ‘तंत्रलोक’ है।

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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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