स्त्रीकाल

महिला संघर्ष  जुदा नहीं

 

  • कामायनी स्वामी

रोज़मर्रा की लड़ाई

आज जब दुनिया महिला पुरुष के इस बाइनरी से बाहर निकल रही है तब सिर्फ महिलाओं के संघर्ष पर बात करना कुछ बेमानी सा महसूस होता है. पर अगर 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी हमें यह संघर्ष दिख रहा है तो स्पष्ट है कि कितना ज़रूरी है यह संघर्ष और कितनी कठिन है यह राह महिला समता की. संघर्ष कई स्तरों पर है, अपने से, परिवार से, समाज से … संघर्ष हर उस जगह से है जहां पितृसत्ता स्थापित हो गयी है | और पितृसत्ता तो वह हस्ती है जो सर्वव्यापी है – वह आप में है, वह मुझ में है, वह हम सब में व्यक्तिगत रूप से है और सामूहिक रूप से है… सर्व विद्यमान …

वह चले गए थे, माँ ने तीन बेटियों को जन्म दिया था, उन्हें लगता था माँ उन्हें कभी बेटा नहीं देगी … बचपन में मुझे यही याद है कि वह आते थे तो शराब के नशे में धुत माँ की सारी कमाई छीन कर ले जाते थे. आज हमें खाना मिला तो कल नहीं …” यह शब्द हैं उस बेटी के जो इस बचपन के बावजूद आज अपना घर चला रही है, अट्ठारह साल की उम्र में अपने पैरों पर खड़ी है. “… अररे तुम यह गीत लिख रही हो ? पर तुम तो कहती थीं तुम पढ़ना नहीं जानतीं ? हाँ सालों पहले स्कूल गयीं थीं पर चूल्हे चौके और बच्चा के लालन पालन में सब भूल गयीं …” एक अधेड़ उम्र की यूनियन की महिला मजदूर साथी जिसे एक हार्ट सर्जरी के बाद घर के काम से कुछ छुट्टी मिली “… अपने १६ साल की बेटी की शादी यह कह कर कर देना कि वह 18 की है, हम सब से बईमानी है… और आप जो पिछली ही बार यह कहते कहते रो गयी थीं की आप पढाई में अच्छी  थीं पर भाइयों ने पढाई बंद करा कर ज़बरन शादी करा दी.” “…हाँ मैं यह नहीं चाहती थी पर पूरे समाज से कैसे लड़ें ?” …यह है अधेड़ उम्र की यूनियन की महिला मजदूर साथी जिसने अपनी पहली बेटी की शादी कम उम्र में करा दी पर आज अपनी छोटी बेटी को पढ़ा रही हैं.

ये हैं हमारे संघर्षों की कहानियाँ, इन में कोई क्रांति प्रतीत नहीं होती पर हैं हम साधारण महिलाओं के संघर्ष, बेनाम गुमनाम जिंदगियों के संघर्ष, हर उस महिला कार्यकर्ता का संघर्ष जो जत्थों के जत्थों का नेतृत्व करती हैं पर घर में जिनकी कोइ बिसात नहीं. घर, जहां वह अपनी लड़ाईयाँ चुनती हैं, जहां अपनी दासता के प्रतीक को माथे और हाथों में चमका कर वह बाहर जाने की आज़ादी खरीदती हैं, जहाँ वह घरेलू काम का बोझ अपने से कमज़ोर के कंधे पर डाल कर घर की दहलीज़ से बाहर कदम रखती हैं … इन गुमनाम संघर्षों में, इन छोटी छोटी लड़ाईयों में संघर्ष कम और रोज़ की घिच घिच ज़्यादा है. इन में एक पूरे समाज की सड़ॉध है.

महिला आन्दोलन की महिला नेत्री

पर बावजूद इन रोज़ मर्रा के संघर्षों के महिला आंदोलन विकसित हुआ, और बड़ी संख्या में महिला नेतृत्व उभर कर सामने आया. डा आंबेडकर और ज्योतिबा फुले के साथ आज सावित्री बाई फुले भी हमारे प्रेरणा स्रोतों में एक हैं. जहां एक तरफ 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है वहीं 3 जनवरी से 10 मार्च की अपनी एक पहचान बनी है. सावित्री बाई फूले के जन्मोत्सव से पुण्यतिथि तक पूरे देश में उनके विचारों से प्रेरणा ली जाती है.

हाल में अमेरिका में एक नया प्रतीक विकसित हुआ जब दलित इतिहास सप्ताह मनाते वहाँ के एक्टिविस्टों ने डा. अम्बेडकर, सावित्री बाई के साथ साथ फूलन देवी के चित्र को अपने प्रतीक के रूप में सबके सामने रखा.

रोज़ दिन नए नए रूप में महिला आंदोलन अपने मुद्दों को उठाती है चाहे 2012 में निर्भया काण्ड के बाद हुआ स्वतःस्फूर्त आंदोलन रहा हो या फिर हाल की “#MeToo” की पहल हो या कॉलेज के छात्रों द्वारा किया गया पिंजरा तोड़. सब वही बात कह रहे हैं – हमें आजादी चाहिए,  शोषण से, यौनिक अत्याचार से, भय से. इन सब पहल की ख़ूबसूरती यह है कि यहाँ नेतृत्व भी महिलाओं का ही रहा है.

आज से महज डेढ़ सौ साल पहले जब सावित्री बाई और उनकी साथी फातिमा शेख़ बच्चियों को पढ़ाने निकलीं तो समाज ने पुरजोर विरोध किया. पूरी दुनिया में उस समय महिलाओं को वोट का अधिकार नहीं मिला था पर आज दुनिया बदली है आज बच्चियां धड़ल्ले से पढ़ने जाती हैं, कानूनन महिलाओं को भी सम्पत्ति और वोट का अधिकार है, यानि चीज़ें बदलती हैं और लगातार बेहतर होती हैं, ज़रुरत है निरंतर संघर्ष की, व्यक्तिगत हौसले के साथ साथ सामूहिक पहल की.

पर इसका यह अर्थ नहीं कि महिला संघर्ष अब समाप्त है. आज भी बच्चियों को कोख में मारा जाता है, दहेज़ जैसी कुरीतियाँ चलन में हैं. साथ ही नए नए तरह के शोषण और सीमाएँ भी बनाई जा रही हैं. भले ही आज बड़ी बड़ी कंपनियों की सी.ई.ओ. महिलाएँ मिलेंगी पर यह अभी भी कम है और इन महिला इंटरप्रेन्योर के लिए बराबरी अभी भी एक सपना ही है.

सब संघर्षों के तार जुड़े हैं

महिला आन्दोलन ने इस बात को शुरुआत से ही समझा है कि उनकी लड़ाई महिलाओं को इंसान का दर्जा दिलाने की है. उनका संघर्ष उन तमाम संघर्षों से जुदा नहीं है जो इंसान के शोषण के खिलाफ है. यदि थोड़ा खोजें तो पता चलेगा की अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत महिला मजदूरों के पहले संघर्ष से शुरू होती है जहां अमेरिका में महिला कामगारों ने बेहतर काम की शर्तों और मजदूरी के लिए अपनी आवाज़ उठाई और इसी तरह शांति और रोटी के लिए महिलाओं ने प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में पहला विश्व्यापी आन्दोलन किया .

आज जब पहचान आधारित आन्दोलन जोरों पर है तब महिलाओं के संघर्ष की इस सीख को याद रखना बहुत ज़रूरी है कि महिलाओं का आन्दोलन दुनिया भर में मेहनतकश, दलित, बहुजन, मूलनिवासियों और हर तरह के अल्पसंख्यकों के आन्दोलन के साथ जुड़ा है.    समझना यह है कि महिलाओं का संघर्ष सभी दबे कुचले पिछड़ों के संघर्ष से जुड़ा है, जुदा नहीं. सभी प्रगतिशील आन्दोलनों में भी यह चेतना जगानी होगी कि बिना महिलाओं की भागीदारी और बिना नारीवादी सिद्धान्तों को आत्मसात किये उनके उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती |        आज ज़रुरत है नारीवाद, गांधीवाद, समाजवाद, साम्यवाद के तारों को जोड़ कर एक ऐसे वाद को लेकर चलने  की जो हमें निरंतर संघर्ष के लिए प्रेरित करे.

लेखिका जन जागरण शक्ति संगठन और एनएपीएम से जुड़ कर सामाजिक बदलाव का काम करती हैं|

सम्पर्क- +919771950248, kamayani02@yahoo.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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