कृषि कानून और किसान आन्दोलन
रामधारी सिंह दिनकर ने 1933 की अपनी एक कविता ‘दिल्ली’ में दिल्ली को ‘कृषक-मेध की रानी’ कहा है। स्वतन्त्र भारत में कृषि प्रश्नों, समस्यायों पर कम ध्यान दिया गया। सरकार किसी भी दल की रही हो, कृषि-सम्बन्धी सभी समस्यायों का हल नही किया गया। कृषि उपज के सही और लाभकारी मूल्य पर किसी भी सरकार का विशेष ध्यान नहीं गया है। कृषि प्रधान देश भारत में लगभग चार लाख किसानों ने आत्महत्या की, पर हत्यारी व्यवस्था और राज्य सत्ता ने उसकी समस्यायों के समाधान हेतु सही एवं जरूरी प्रयत्न नही किये। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था किसानों के हित के सम्बन्ध में कार्य नहीं करती है।
ब्रिटिश भारत से स्वाधीन भारत तक के किसान आन्दोलन थम-थम कर होते रहे हैं पर किसानों की समस्याएँ जस-की-तस रहीं। फर्क इतना हुआ कि पराधीन भारत के ‘हतभागे किसान’ स्वाधीन भारत में बार-बार अपनी माँगों को लेकर सरकार के विरोध में आन्दोलनरत रहे हैं। इक्कीसवीं सदी में यूपीए (संप्रग) सरकार ने किसानों की स्थिति जानने के लिये स्वामीनाथन आयोग का गठन किया था। गाँधी ने 1946 में भूखों के लिये रोटी को भगवान कहा था। 2004 में 18 नवम्बर को राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य कृषि समस्या से पूर्णतः अवगत होकर किसानों के लाभ के सम्बन्ध में कार्य करना था। इस आयोग के अध्यक्ष हरित क्रान्ति के जनक डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन थे, जिनके नाम से ‘स्वामीनाथन रिपोर्ट’ जाना जाता है।
स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट 2006 में यूपीए सरकार को सौंपी गयी थी। इस कमिटी की पाँच रिपोर्टों में से फसलों की मूल्य निर्धारण नीति और ऋण नीति पर विशेष जोर दिया गया था। किसानों की आत्महत्या का एक मात्र कारण ऋण रहा है। इस रिपोर्ट पर आठ वर्ष तक यूपीए की सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया और न 2014 से अब तक मोदी सरकार ने ही इसे अमल में लाने की ईमानदार कोशिश की। सरकारी नौकरियों में कार्यरत कर्मचारियों-अधिकारियों के वेतन में पिछले 70 वर्ष में जहाँ डेढ़ सौ गुना वृद्धि हुई है, वहाँ किसानों की उपज में मात्र 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई। स्वामीनाथन रिपोर्ट में किसानों की समस्या के मुख्य कारकों में भूमि-सुधार के न होने, समय पर ऋण न मिलने, खेती के लिये पानी की समुचित व्यवस्था न होने, मण्डी की अव्यवस्था और कृषि उपज का सही दाम न मिलना है। इस आयोग ने साल भर में किसान की लागत, मेहनत आदि को जोड़कर डेढ़ गुना दाम देने की सिफारिश की थी।
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2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की बात कही थी पर अगले वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में सरकार ने यह कहा कि इसे पूरा करने के लिए वर्तमान में उसके पास संसाधन नहीं है। बार-बार किसानों और उनके संगठनों ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने की बात कही है, पर सरकार किसी भी दल की रही हो, किसी ने उनकी माँग नहीं सुनी – न काँग्रेस ने, न भाजपा ने, न पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने और न वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने।
नरेन्द्र मोदी ने कोरोना काल को एक ‘अवसर’ माना है। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने ‘एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार’ बनाने के लिये अध्यादेश को मंजूरी कोरोना काल में ही दी। कृषि-सम्बन्धी तीन बिल जून महीने में अधिनियम के रूप में अस्तित्व में आ चुके थे। कोरोना काल के इस कृषि बिल को किसान कोरोना से भी अधिक खतरनाक मान रहे हैं। उन्हें आशंका है कि इस कृषि-बिल से वे अपने खेत में ही मजदूर बन जायेंगे। किसानों की यह आशंका निराधार नही है। किसान यह समझ चुके हैं कि सरकार उनकी नही, कारपोरेटों की है और सरकार की असली मंशा किसानों को लाभ न पहुँचा कर व्यापारियों, उद्योगपतियों और कारपोरेटों को लाभ पहुँचाने की है। 17 सितम्बर को लोकसभा में दो कृषि बिल – कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020 और कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक 2020 पारित हुए। पहला बिल आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक 2020 लोकसभा से पहले ही पारित हो चुका था। राज्यसभा से हल्ला-हंगामे के बाद 20 सितम्बर को ये बिल पारित हुए और राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद ये कानून बन गये हैं।
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अचानक इन बिलों को कोरोना कल में संसद में लाने और उसे पारित करने की आवश्यकता सरकार को क्यों पड़ी? कृषि से सम्बन्धित तीन संशोधित विधेयक को सरकार ‘गेम चेंजर’ कह रही है और किसान यह मानकर चल रहे हैं कि उनके साथ साजिश की जा रही है। सरकार ‘एक देश, एक बाजार नीति’ पर अडिग है। किसान-संगठनों की एक मात्र माँग बिल वापसी की है। कृषि कानून के खिलाफ आज का किसान आन्दोलन ऐतिहासिक है। स्वतन्त्र भारत में इतना बड़ा किसान-आन्दोलन कभी नही हुआ था। सरकार से किसान-संगठनों की सभी वार्ताएँ बेमानी सिद्ध हुई हैं। उनकी एक मात्र माँग कृषि कानून की वापसी है। सरकार अपनी जिद पर है कि वह यह बिल वापस नही लेगी। अकाली दल और अन्य कुछ सहयोगी दल राजग से अलग हो चुके हैं पर इससे भी सरकार निश्चिन्त है और मोदी गुण-स्वाभाव से परिचित सब यह जानते हैं कि वे कभी अपना निर्णय वापस नही लेते।
कृषि उत्पाद वाणिज्य व्यापार अध्यादेश के अनुसार किसान कहीं भी अपनी उपज बेचने को स्वतन्त्र हैं, उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। फिलहाल छह प्रतिशत उपज ही मंडियों में बिकता है। बहुत जगह मण्डी नही है। कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) वर्तमान में पूरे देश में 2477 है और उप बाजार यार्ड्स 4843 है। सरकार का तर्क है कि वह बिचौलियों से किसानों को बचाना चाहती है। सरकार इससे किसानों को आजादी प्राप्त होने की बात कह रही है, जबकि देश के किसी भी हिस्से में अपनी उपज बेचने की सामर्थ्य बहुत कम किसानों को है। ‘एक देश, एक बाजार की नीति’ की कुछ और अर्थ-ध्वनियाँ हैं। बाजार से कम कीमत पर आढ़तिये उपज खरीदते हैं। जिन आढ़तियों के पास अपने गोदाम हैं, उनके समक्ष संकट यह है कि उनके गोदामों का क्या होगा? किसान आन्दोलन में उनके साथ आढ़तिये भी हैं। पंजाब में 22 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक उन्होंने मंडियाँ बन्द कीं। आढ़तियों पर आयकरों के छापे पड़े हैं।
दूसरा अधिनियम अनुबन्ध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) का है। यूपीए 2 से (2012 से) अनुबन्ध खेती कुछ जगहों पर हो रही है। फसल बोने से पहले किसानों से किये जाने वाले अनुबन्ध से किसानों के जोखिम से छुटकारा पाने की बात की जा रही है। इस विधेयक से बड़े व्यापारियों को लाभ पहुँचेगा, न कि किसानों को। बड़े व्यापारी अनुबन्ध पर खेती करेंगे। बड़ी कम्पनियाँ कृषि क्षेत्र का निर्धारण करेंगी। किसी विशेष उपज के लिए सभी किसानों से अनुबन्ध किया जाएग और खेती से पहले ही कीमत निर्धारित की जाएगी। इस अधिनियम से किसान स्वतन्त्र न होकर अनुबन्धकर्ताओं के मातहत हो जायेंगे। गाँव का गाँव लेकर कम्पनियाँ खेती करेंगी। गाँव के मुखिया का अधिकार सीमित होगा। तीसरा अधिनियम आवश्यक वस्तु अधिनियम (भण्डारण नियम) है।
भण्डारण से फायदा किसे होगा? पानीपत जिला में एक वर्ण से जिस अधिक मात्रा में भण्डारण को लेकर अडानी समूह कार्यरत है, उसे ध्यान में रखकर यह भी कहा गया है कि इन अधिनियमों को बनाने में कारपोरेटों की भूमिका है। ये अध्यादेश उनके हित में हैं। पहले यह भण्डारण बन्द था। अब सरकार इसकी अनुमति दे रही है। केवल युद्ध और आपदा में भण्डारण नही होगा। इस भण्डारण पर कोई पाबन्दी नही है। यह जाँच से परे है। एक प्रकार से काला बाजारी को छूट है। इससे जमाखोरी का कानून अर्थहीन हो जायेगा। इन कानूनों से वर्तमान मंडियाँ बाद में बन्द हो जाएँगी। आरम्भ में निजी मण्डियाँ अधिक मूल्य देंगी और मण्डियों के बन्द हो जाने पर किसान पूरी तरह से उनपर आश्रित हो जायेंगे।
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किसान आन्दोलन जारी है। देश के विविध हिस्सों से किसान दिल्ली बॉर्डर पहुँच रहे हैं। प्रायः प्रत्येक तबके का किसानों को समर्थन है। किसान आन्दोलन के समर्थकों की संख्या बढ़ रही है। कृषि मन्त्री के किसानों के नाम लिखे आठ पन्नों के ख़त में योगेन्द्र यादव ने 20 झूठ बोलने-लिखने की बात कही है – “जब कृषि मन्त्री इतना झूठ बोले तो देश का क्या होगा?” दस वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने कृषि मन्त्री को पत्र लिखकर कृषि कानून को समाप्त करने की माँग की है। उनके अनुसार इस बिल से किसी को लाभ नही मिलेगा। प्रोफेसर डी नरसिम्हा रेड्डी, प्रोफेसर कमल नयन काबरा, प्रोफेसर के एन हरिलाल, प्रोफेसर राजिंदर चौधरी, प्रोफेसर सुरिंदर कुमार, प्रोफेसर अरुण कुमार, प्रोफेसर रणजीत सिंह घुमन, प्रोफेसर आर रामकुमार, प्रोफेसर विकास रावल और हिमांशु ने नये कृषि कानून को छोटे किसानों के लिए नुकसानदेह बताया है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार नया कृषि कानून दो नये नियमों के तहत दो प्रकार के बाजार की रूपरेखा तय कर रहा है, जो अव्यवहारिक है और ये नये कानून किसानों की नहीं, कारपोरेटों के हितों की सेवा करेंगे। इन कृषि कानूनों से खेती प्राइवेट हाथों में सौंप दी जाएँगी, जिससे किसानों को हानि होगी।
किसानों का आन्दोलन उनकी अपनी रक्षा-सुरक्षा, स्वतन्त्रता और कृषि हित के लिए है। सरकार इसे उपहार (गिफ्ट) कह रही है। जिन्हें उपहार दिया जा रहा है, वे बार-बार कह रहे हैं कि उन्हें यह उपहार नही चाहिये। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर सरकार ने ख़त्म न किये जाने का केवल आश्वासन दिया है, जबकि वह इसपर कानून लाकर किसानों को आश्वस्त कर सकती थी। 2022 तक बार-बार सरकार किसानों की आय दो गुनी करने का आश्वासन दे रही है, किन्तु अपने इस आश्वासन को एक बिल लाकर उसने सुनिश्चित नही किया है। सरकार के प्रति यह संदेह हठात ही पैदा नही हुआ है। किसान सरकार के आश्वासनों के साथ-साथ उनके कार्य-व्यापारों को भी देखते-समझते रहे हैं और उनका अब सरकार पर कोई विश्वास नही रहा है। इसी कारण उनकी एक मात्र माँग कानून को वापस लेने की है। सरकार का किसानों के साथ व्यवहार अब तक कभी सन्तोषजनक नहीं रहा।
इसी कारण अस्सी वर्ष के वयोवृद्ध किसान भी इस आन्दोलन में शामिल हैं और कड़कड़ाती ठंढ में भी, जब तापमान तीन-चार डिग्री सेल्सियस तक है, उनके हौसलों में कोई कमी नही आई है। महेन्द्र सिंह टिकैत (6.10.1935-15.5.2011) अपने समय में किसानों के सबसे बड़े नेता थे, पर उनके समय में भी इतना बड़ा किसान आन्दोलन नही था। इस किसान आन्दोलन का कोई एक नेता नही है। यहाँ व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण समूह है। कोई एक किसान संगठन भी नेतृत्व की भूमिका में नही है। पूर्व प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह (23.12.1902-29.5.1987) की जन्मतिथि अब किसान दिवस है। पूर्व भाजपाई प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चरण सिंह की जयन्ती को किसान दिवस घोषित किया था, पर अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी में अन्तर है। मोदी गुरुद्वारा रकाब साहब गंज में बिना किसी सुरक्षा-व्यवस्था के मत्था टेकते हैं, पर कुछ किलोमीटर दूर आन्दोलनरत किसानों के पास नही जाते। गृहमन्त्री अमित शाह पश्चिम बंगाल में किसान के यहाँ भोजन करते हैं, पर दिल्ली बॉर्डर पर जाकर किसानों के लंगर में भोजन नही करते।
26 नवम्बर से शुरू यह किसान आन्दोलन अभी तक शांतिपूर्ण रहा है। यह एक संयोग है कि 2020 का वर्ष 1920 के किसान संघर्ष का भी जन्मशती वर्ष है। किसानों के उस समय के कई मुद्दे आज भी बने हुए हैं। तब अंग्रेजों का शासन था। अभी नरेन्द्र मोदी का शासन है। इन पंक्तियों के लिखे जाने (23 दिसम्बर) तक सरकार और किसानों के बीच का गतिरोध कायम है। सरकार कृषि-कानून में संशोधन की बात कर रही है और किसान संगठनों का अभी तक एक मात्र एजेंडा कानून को वापस लेने का है। आन्दोलनरत किसानों को सहयोग करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं की संख्या बढ़ रही है। इस किसान आन्दोलन को कमजोर करने, समाप्त करने के लिए सरकार की ओर से नकली किसान संगठन भी बनाये जा रहे हैं।
किसान आन्दोलन के विरोध में कई स्थानों पर रैली भी निकली। किसान आन्दोलन में कोई राजनीतिक दल नही हैं। लम्बे समय तक यह किसान आन्दोलन जनरी रहेगा। अभी राष्ट्रीय स्तर पर वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध कहीं कोई आन्दोलन नही है। किसान आन्दोलन में उन सब को शरीक होना चाहिये जो किसानों को अन्नदाता कहते हैं और उनके द्वारा पैदा अन्न, फल, सब्जी आदि का प्रतिदिन उपयोग करते हैं। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक समाप्त हो चुका है। किसानों की समस्या यथावत हैं। कृषि का निजीकरण भारत का निजीकरण है। खतरे की घंटियाँ लगातार बज रही है, फ़ैल रही है। क्या हम सब इसे सुन पा रहे हैं?