ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक जलकृषि क्षेत्र में अनंत संभावनाएं
बेरोजगारी की समस्या देश में सर्वव्याप्त है तथा सर्वाधिक पिछड़े राज्यों की स्थिति बेहद दयनीय है। नौकरी के इंतजार में युवा पीढ़ी सालों साल इंतजार कर रही है लेकिन नियुक्तियां सीमित ही हो रही हैं, और अधिकतर पद संविदा के ही आ रहे हैं जहाँ वेतन कम और काम ज्यादा रहता है। ऊपर से स्थायित्व का कुछ पता नहीं रहता। दूसरी तरफ, रोजगार की तलाश में लोगों का बड़े शहरों की तरफ पलायन लगभग सभी राज्यों में है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड ऐसे राज्यों में शीर्ष पर हैं जहाँ पलायन करने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 38 प्रतिशत जनसंख्या प्रवासियों की है जो एक राज्य से दूसरे राज्य की तरफ आते-जाते रहते हैं।
इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार तथा उत्तर प्रदेश अंतर्राज्यीय प्रवासियों के सबसे बड़े स्त्रोत हैं तथा महाराष्ट्र व दिल्ली सबसे बड़े प्राप्त करने वाले राज्य। जाहिर हैं इनमे सर्वाधिक जनसंख्या रोजगार की तलाश में पलायन किये गए लोगों की है। प्रवासियों को दूसरे राज्यों में जिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है वह तो जगजाहिर है। उदाहरण स्वरुप, कोविड के दौरान बड़े शहरों में प्रवासियों के जद्दोजहद को समूचे विश्व ने देखा। हालिया प्रकाशित नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 के आंकड़े बताते हैं कि रोजगार सम्बन्धित विभिन्न कठिनाइयों से जूझते हुए हजारों दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की। कुल 1,64,033 दर्ज मौतों में से 42,004 दिहाड़ी मजदूर थे (चार में से एक आत्महत्या दिहाड़ी मजदूर ने की)। बेहतर रोजगार की संभावनाओं की तलाश में बड़े शहरों की तरफ भागना हमेशा सार्थक नहीं रहता।
पलायन के अनेक आर्थिक-सामाजिक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारक हमारा लड़खड़ाता हुआ कृषि क्षेत्र है। GDP में कृषि का योगदान कम होने के बावजूद खाद्यान्नों के उत्पादन में बढ़ोतरी तो हुई है परन्तु कृषक वर्ग खुशहाल नहीं दिखता। अभी भी एक सम्मानित आय के लिए किसान काफ़ी संघर्ष करते हुए दिख जाते हैं। अधिकतर क्षेत्रों में कृषि वर्षा आधारित है जो किसानों को बहुत परेशान भी करती है। उदाहरण के तौर पर मध्य भारत में समय पर बारिश न होने के कारण इस बार धान की खेती प्रभावित हुई है। झारखण्ड-बिहार के कई जिले सुखाड़ की अवस्था में हैं। ऐसी अनिश्चितता की अवस्था में छोटे और सीमांत किसानों के लिए बड़ा जोख़िम लेना संभव नहीं हो पाता। अनेक समस्याओं से जूझते हुए दूसरे राज्यों की तरफ पलायन करना एक मात्र रास्ता बच जाता है।
रोजगार तथा पलायन की समस्या को दूर करने की दिशा में जलकृषि अभूतपूर्व योगदान दे सकता है। जलकृषि एक वृहत क्षेत्र है जिसके अंतर्गत मत्स्य पालन के अतिरिक्त अनेक वनस्पतियों की खेती की जाती है। उत्तर भारत में मखाना तथा सिंघाड़ा इसके प्रमुख अवयव हैं। मत्स्य-पालन आज एक उदयीमान क्षेत्र की तरह है जो खाद्य आपूर्ति, आय, रोजगार तथा पोषण को बढ़ाने की दिशा में अतुल्यनीय योगदान दे सकता है। आज यह परंपरागत जीविकोपार्जन के साधन से ऊपर उठ कर एक महत्वपर्ण आर्थिक क्रिया बन चुकी है। देश में उपलब्ध संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल किये बगैर मत्स्य पालन के क्षेत्र में भारत आज शीर्ष स्थान पर है। हालाँकि, इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है।
सम्पदा तथा संसाधन के नजरिये से बिहार, झारखण्ड, तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसकी पर्याप्त संभावनाएं भी हैं। इन संभावनाओं में और भी निखार आ सकता है जब हम इसे कौशल, तकनीक, बाजार, तथा उपलब्ध संसाधनों से समावेशित कर पाए। यह असंभव भी नहीं है। जल कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जो रोजगार, खाद्य सुरक्षा, पोषण, उद्यमिता आदि अनेक क्षेत्रों में राज्य को आगे बढ़ाते हुए गरीबी तथा हाशिये पर जीने वाले लोगों के लिए एक आशा की किरण साबित हो सकती है। आज इस क्षेत्र में जागरूकता के साथ-साथ सामाजिक तालमेल की आवश्यकता है। अक्सर जागरूकता एवं आपसी सामंजस्य के अभाव में उपलब्ध सामुदायिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल नहीं हो पाता। यह वैश्विक स्तर पर भी सिद्ध हो चुका है कि जन संसाधनों (commons) का सतत इस्तेमाल सामाजिक सामंजस्य से ही हो सकता है। बिना इसके ऐसे संसाधनों का दुरूपयोग ही हुआ है अथवा अप्रयुत्त ही रहा है।
अगर संसाधनों की बात करें तो जल कृषि के लिए उपलब्ध संसाधनों की कमी नहीं है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2021-22 तक देश में मनरेगा के द्वारा 13 लाख से ज्यादा छोटे-बड़े जल निकायों (जैसे डोभा, तालाब आदि) का निर्माण तथा पुराने जल निकायों का जीर्णोद्धार किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन (NRM) कार्यों के अंतर्गत लाखों ऐसे संसाधनों को विकसित किया गया है जिनका उपयोग जल कृषि के क्षेत्र में किया जा सकता है। साथ ही सरकार ने अगले एक साल में सम्पूर्ण भारत में ‘मिशन अमृत सरोवर’ के तहत 74,346 अमृत सरोवर के निर्माण का लक्ष्य रखा है जिसमे बिहार में 3216, उत्तर प्रदेश में 10,102, तथा झारखण्ड में 2235 नए तालाब बनेंगे।
इसके अतिरिक्त अनेकों सामुदायिक तथा निजी जल निकाय ग्रामीण इलाकों में हैं जिसका उपयोग मत्स्य पालन तथा अन्य जलीय उत्पादों की खेती के लिए किया जा सकता है। यही नहीं, आद्रभूमि, बड़ी नदियों तथा छोटे बड़े डैमों का उचित उपयोग जल कृषि विशेषतः मत्स्य पालन हेतू किया जा सकता है। इन तमाम संसाधनों का उपयोग जल की उपलब्धता के आधार पर न्यूनतम 6-8 महीनों तक तो किया ही जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि यहाँ जल संग्रहण के प्रयासों के साथ-साथ हम जीविका के क्षेत्र में भी निर्भरता प्राप्त कर सकते हैं जो पर्यावरण संरक्षण के लिए अनुकूल भी है। मनरेगा के प्रयासों से जल संग्रहण के क्षेत्र में अप्रत्याशित उपलब्धि प्राप्त हुई है, ग्राम स्तरीय रोजगार में इजाफ़ा हुआ है, तथा ग्रामीण सम्पदा का निर्माण हुआ है। अगर इन साधनों का उचित एवं अत्याधुनिक तरीके से प्रबन्धन किया जाए तो मत्स्य-पालन राज्य की अच्छी-खासी जनसंख्या के पलायन पर नियंत्रण कर सकती है।
मत्स्य विभाग, भारत सरकार के रिपोर्टों के आधार पर हम यह कह सकते हैं जलजीविका के क्षेत्र में नए आयामों की शुरुआत हो चुकी है। झारखण्ड-बिहार सरीखे राज्यों में मत्स्य उत्पादन काफी बढा है। आज उत्तर प्रदेश, बिहार तथा छत्तीसगढ़ की गिनती देश के अग्रणी मत्स्य उत्पादक (मीठे पानी की मछली) राज्यों में हो रही है। इन राज्यों के मत्स्यपालक किसान उपलब्ध संसाधनों के अलावा व्यक्तिगत रूप से आधुनिक ‘फ़िश टैंक’ का इस्तेमाल करके बेहतरीन उत्पादन कर रहे हैं। चूँकि मत्स्य पालन में अच्छी उत्पादकता के लिए तकनीकी ज्ञान की जरुरत होती है, अतः मत्स्य विभाग तथा ऐसी अनेक संस्थाएं हैं जो किसानों को प्रशिक्षण के साथ साथ तकनीकी सहायता प्रदान करती है।
पिछड़े राज्यों के सन्दर्भ में जल कृषि को बड़े स्तर पर किसानों तक पहुँचाना आवश्यक भी हो चुका है। अगर आप हाल में प्रकाशित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) के आंकड़ों को देखेंगे तो पाएंगे कि भारत के पिछड़े राज्यों की स्थिति काफी दयनीय है। इन राज्यों की अच्छी खासी जनसंख्या उचित पोषण की कमी से विभिन्न स्वास्थ्य मानकों पर पिछड़ रहे हैं। उदाहरण के रूप में झारखण्ड में 26% महिलाएं BMI सामान्य से नीचे हैं; 65।3% महिलाएं तथा 29।6% पुरुष एनीमिया के शिकार हैं; करीब 40% बच्चे अविकसित, कमजोर तथा 67।5% एनीमिया के शिकार हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो इससे भी ज्यादा भयावह है। झारखण्ड के अतिरिक्त अन्य राज्य जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों की हालात लगभग एक जैसी है। स्वास्थ्य सम्बन्धित इन पिछड़ेपन का मुख्य कारण पोषण की कमी है। इन राज्यों में भोजन आधारित पोषण की समस्याओं को मछली के सेवन से माध्यम से कम किया जा सकता है क्योंकि यह सबसे सस्ता और आसान विकल्प है। साथ ही अपनी मत्स्य जरूरतों को पूरी करने के लिए बंगाल तथा आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के निर्यात पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा। अतः, मत्स्य पालन एक स्वस्थ समाज का निर्माण तो करेगा ही, साथ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ भी करेगा।
आज मत्स्य पालन की दिशा जमीनी स्तर पर में नित नए प्रयोग तथा नवोन्मेष हो रहे हैं। तालाब-पोखर, झील तथा बड़ी जल निकायों की सीमा को लांघते हुए अनेकों ऐसे तकनीक उभर चुके हैं जिससे बेहद कम जगह तथा संसाधनों से मछली पालन किया जा सकता है। ‘किचेन गार्डन’ की तर्ज पर ‘बैकयार्ड एक्वाकल्चर’ एक स्थापित तकनीक बन कर विकसित हो चुकी है। छोटे-छोटे फ़िश टैंक, पोलीथिन से बने छोटे गड्ढे, बायोफ्लॅाक, मिनी RAS इत्यादि आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से उत्सुक किसान अपने घर के आसपास मछली पालन कर उचित पोषण के साथ-साथ आय भी प्राप्त कर सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ‘इंटीग्रेटेड फार्मिंग’ सबसे बेहतर विकल्पों में से एक है जिसमें किसान मत्स्य पालन के साथ साथ मुर्गी, बतख, जैविक खेती, डेयरी, बकरी-सुकर आदि का एक साथ पालन करके अपनी आय को सुदृढ़ कर सकता है। सबसे ख़ास बात यह है कि इन उद्यमों के लिए किसी विशेष योग्यता की जरुरत नहीं होती तथा मामूली प्रशिक्षण के द्वारा इसकी शुरुआत घरेलू उद्यम की तरह की जा सकती है। मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में इसकी शुरुआत हो चुकी है और अनेक किसान इससे लाभान्वित हो रहे हैं। मत्स्य विभाग तथा अन्य संस्थाओं की विभिन्न योजनाओं से समुचित तालमेल करके जलजीविका (जल आधारित जीविका) की दिशा में नए आयाम रचे जा सकते हैं। वर्तमान में ‘प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना’ जल कृषि के क्षेत्र में उपयोगी योजना है जिसे समूचे देश में मत्स्य विभाग के द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। जल कृषि में उत्सुक कोई भी किसान मत्स्य विभाग से संपर्क करके इस दिशा में कदम बढ़ा सकता है।
इस दिशा में समुचित प्रयास करने पर पिछड़े राज्यों के किसानों का कायाकल्प हो सकता है जो आज कृषि क्षेत्र में असफलता का दंश झेल कर पलायन करने हेतू विवश हैं।
लेखक परिचय
सुबोध कुमार एवं नीलकंठ मिश्र पुणे स्थित एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था सेंटर फॉर एक्वेटिक लाइवलीहुड जलजीविका से जुड़े हैं। यह संस्था देश के विभिन्न राज्यों में जलकृषि आधारित आजीविका को बढ़ावा देने में प्रयत्नशील है।