चुनावी रण राजस्थान का
हर राज्य का चुनाव अलग होता है और आमतौर पर राजनीतिक दल विशेषत: भाजपा जैसा तेज तर्रार दल राज्य विशेष के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, जनसांख्यिकी और राजनीतिक माहौल आदि के मद्देनज़र अलग-अलग रणनीति अपनाते देखे जाते हैं किन्तु पाँच राज्यों के वर्तमान विधानसभा चुनावों में राजस्थान और मध्यप्रदेश को लेकर भाजपा की राजनीतिक रणनीतियों में अद्भुत साम्य मिलता है। दोनों ही राज्यों में भाजपा ने एक ओर जहाँ किसी को मुख्यमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, वहीं दूसरी ओर अपने कुछ सांसदों को भी विधायकी के चुनाव में बतौर उम्मीदवार उतारा है। लम्बे समय से राजस्थान में भाजपा का नेतृत्व करती आ रही और दो बार की भूतपूर्व मुख्यमन्त्री वसुंधरा राजे को इस बार के चुनाव में मुख्यमन्त्री पद के चेहरे के रूप में पेश न करके भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने एक ओर जहाँ राज्य भाजपा की अंदरुनी गुटबंदी को कम करने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर शीर्ष नेतृत्व के प्रति बगावती तेवर रखने के लिए राजे को सबक सिखाने का काम भी किया है। टिकट वितरण में भी राजे के नजदीकी लोगों की उपेक्षा ध्यातव्य है। इसी क्रम में मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी अपने छह सांसदों को विधायकी के चुनाव में उतारकर जहाँ उनके सामने आम चुनाव से पहले राज्य के विधानसभा चुनाव में अपनी काबिलियत सिद्ध करने का भारी दबाव डाल दिया है, वहीं वैकल्पिक नेतृत्व तैयार करने की दिशा में भी कदम बढ़ा दिया है। वैसे राजस्थान की तरह मध्यप्रदेश में भी भाजपा द्वारा मुख्यमन्त्री पद के लिए किसी चेहरे को पेश नहीं करने के पीछे की मुख्य वजह कुछ और है। 20 सालों से मुख्यमन्त्री रहे शिवराज सिंह चौहान के प्रति मध्यप्रदेश के मतदाताओं में सत्ताविरोधी लहर का होना स्वाभाविक है और उसी के मद्देनज़र वहाँ चौहान के चेहरे को सामने रखे बिना भाजपा चुनाव लड़ रही है।
वसुंधरा राजे के साथ भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की अंदरुनी खींचातानी के बीच उन्हें कमजोर करने की मंशा से उनके समर्थक दावेदारों के टिकट काटने और मजबूत स्थानीय उम्मीदवारों को दरकिनार करके सांसदों को विधायकी के चुनाव में उतारने का खामियाजा भी भाजपा को उठाना पड़ सकता है। कई जगहों पर भाजपा के घोषित उम्मीदवारों के खिलाफ स्थानीय भाजपाई ही विद्रोही बनकर निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में ताल ठोकते देखे जा सकते हैं। राजे के नजदीकी राजपाल सिंह शेखावट का टिकट काटकर पूर्व केन्द्रीय मन्त्री और जयपुर (ग्रामीण) से सांसद राज्यवर्धनसिंह राठौड़ को झोंटवाड़ा विधानसभा से भाजपा द्वारा टिकट दिये जाने को लेकर जमकर बवाल हुआ है। इसी तरह पूर्व मुख्यमन्त्री भैरों सिंह शेखावत के दामाद और पांच बार के विधायक नरपत सिंह राजवी की जगह राजसमन्द की सांसद दीया कुमारी को विद्याधर नगर सीट से उम्मीदवार बनाना भाजपा के लिए बड़ा सिरदर्द बनता दिख रहा है। देखने वाली बात यह है कि अपने आप को अनुशासित पार्टी कहने वाली भाजपा के चाणक्य और गृहमन्त्री अमित शाह इन विद्रोहों पर कैसे और किस हद तक काबू पाते हैं।
जहाँ तक काँग्रेस की बात है तो मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच विगत पाँच वर्षों से जो सत्ता संघर्ष चलता आ रहा था, मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद उस पर विराम लग चुका प्रतीत होता है। गहलोत और पायलट, दोनों को यह बात शायद समझ आ चुकी है कि उनका अहम अंतत: पार्टी के साथ उन्हें भी ले डूबेगा और टिकट से वंचित कुछ कांग्रेसी नेताओं के छुटपुट विरोध के अतिरिक्त कोई बड़ा विद्रोह नज़र नहीं आता। यद्यपि काँग्रेस ने भी किसी को मुख्यमन्त्री पद के चेहरे के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया है किन्तु अशोक गहलोत अघोषित रूप से काँग्रेस के मुख्यमन्त्री उम्मीदवार साफ़ नज़र आते हैं। उनके प्रति मतदाताओं में कोई सत्ताविरोधी लहर भी दिखाई नहीं देती किन्तु काँग्रेस द्वारा अपने मौजूदा 100 विधायकों में से 67 को पुन: मैदान में उतार देना उसके लिए भारी भी पड़ सकता है। राज्य स्तर पर गहलोत कुल मिलाकर आज एक सर्वमान्य नेता जरूर साबित होते दिख रहे हैं लेकिन उनके कुछ मौजूदा मंत्रियों और विधायकों के प्रति निश्चय ही आम जनता में नाराजगी है।
राजस्थान में काँग्रेस का पूरा चुनाव प्रचार पिछले चुनाव के दौरान किये गये लोककल्याणकारी वायदों के सफल क्रियान्वयन और इस चुनाव में किये गये इसी प्रकार नये वायदों पर केन्द्रित है। एक ओर किसानों की कर्ज माफी, राज्य कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली, 8 रुपये प्रति थाली वाली ग्रामीण इंदिरा रसोई, प्रति माह 100 यूनिट मुफ्त विद्युत, महात्मा गाँधी अंग्रेजी माध्यम विद्यालय, हर साल 25 लाख रुपये तक का निःशुल्क इलाज उपलब्ध कराने वाली चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना और गरीबों के लिए 500 रुपये में घरेलू गैस सिलेंडर जैसी योजनाओं के बल पर जहाँ काँग्रेस को भरोसा है कि वह चुनावी वैतरणी पार कर लेगी। वहीं दूसरी ओर विकास की राजनीति करने का दावा करने वाली भाजपा कन्हैया लाल हत्याकांड में काँग्रेस के आतंकियों से सम्बन्ध होने से लेकर रामनवमी और कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध लगाने जैसे भ्रामक और आपत्तिजनक आरोप लगाकर चुनाव के सांप्रदायीकरण की हर संभव कोशिश कर रही है। इसी सांप्रदायीकरण की एक मजबूत कड़ी है तिजारा विधानसभा क्षेत्र से अलवर के वर्तमान यादव सांसद बाबा बालकनाथ को भाजपा द्वारा खड़ा करना। मुंडे सिर वाले ये भगवाधारी नाथ संप्रदाय के महंत अपने आपको राजस्थान का योगी बताते हैं और उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के वुलडोजर राज को मरूप्रदेश में भी लाना चाहते हैं। सनातन धर्म की माला जपने वाले बालकनाथ तिजारा के मेव मुसलमानों को पाकिस्तानी बताने और उनके खिलाफ आग उगलने का कोई मौका नहीं चूकते। ध्यातव्य है कि भाजपा का एक धड़ा इन्हें राजस्थान के भावी मुख्यमन्त्री के तौर पर भी देखता है।
जो मुद्दे काँग्रेस को परेशान कर सकते हैं, उनमें से एक मुद्दा है पेपर लीक का मुद्दा। 2019 के बाद से हर साल औसतन तीन परीक्षाओं के प्रश्नपत्र राजस्थान में लीक हुए हैं जिनके कारण कई बार परीक्षाएँ तक रद्द करनी पड़ी हैं। स्वयं पायलट तक चुनाव से पूर्व इसे लेकर अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उनका कहना था कि डेढ़ करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए हैं और युवा वर्ग का भविष्य इसके कारण दांव पर लगा है। अन्य मसलों के साथ-साथ पेपर लीक के मसले पर ऐन चुनाव के वक्त प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का इस्तेमाल करके काँग्रेस को तंग करने में भी भाजपा पीछे नहीं है। ध्यातव्य है कि राजस्थान के चुनावी समर के बीच ईडी द्वारा 2022 की वरिष्ठ शिक्षक ग्रेड परीक्षा के एक प्रश्नपत्र के लीक होने के मामले में प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के जयपुर और सीकर स्थित आवासों और दौसा जिले के महुवा में काँग्रेस उम्मीदवार ओम प्रकाश हुडला के होटल पर छापेमारी की गयी है। इसके साथ ही विदेशी मुद्रा उल्लंघन मामले में मुख्यमन्त्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत को समन भेजकर ईडी ने अपने दिल्ली मुख्यालय बुलाकर पूछताछ की है। चुनावी दंगल में ईडी का राजनीतिक इस्तेमाल छत्तीसगढ़ की जैसे राजस्थान में दिखाई देना विपक्षी भाजपा की हताशा का भी व्यंजक माना जा सकता है। केन्द्रीय एजेंसियों के दम पर विपक्षी दलों की सरकारों और उनके नेताओं को प्रताड़ित करने की गंदी राजनीति द्वारा चुनाव को प्रभावित करना निश्चय ही चिन्ताजनक है।
भ्रष्टाचार के साथ-साथ महिलाओं की सुरक्षा, दलितों के प्रति उत्पीड़न और कानून व्यवस्था के मुद्दों पर भी राजस्थान की काँग्रेस सरकार को घेरने की कोशिश भाजपा कर रही है किन्तु इन मसलों पर काँग्रेस भी भाजपा के दोगलेपन को लेकर आक्रामक नज़र आती है। मणिपुर की नस्लीय हिंसा पर भाजपा की खामोशी और उत्तरप्रदेश में महिलाओं पर होने वाली हिंसा को लेकर काँग्रेस द्वारा सवाल पूछे जाते रहे हैं। इन चुनावों में दलित उत्पीड़न वाले मुद्दे पर एक दिलचस्प घटनाक्रम घटा है। जहाँ दलित इंजीनियर से मारपीट के आरोपी बाड़ी के अपने पूर्व विधायक गिर्राज सिंह मलिंगा का टिकट काटकर काँग्रेस ने एक मिसाल पेश की है, वहीं उसे बाड़ी से भाजपा ने अपना टिकट देकर विवाद को जन्म दे दिया है। काँग्रेस इसे भाजपा के दलित विरोधी चरित्र से जोड़कर प्रचारित कर रही है।
तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद अशोक गहलोत के नेतृत्व में काँग्रेस की लोककल्याणकारी नीतियों की अनुगूँज भी जमीनी धरातल पर सुनी जा सकती है। केन्द्र सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों को भाजपा के पक्ष में लामबन्द करने की प्रधानमन्त्री मोदी की चाल के जबाव में गहलोत सरकार ने राजस्थान में जिस प्रकार समाज के हर जरूरतमन्द तबके के लिए आक्रामक ढंग से विभिन्न योजनाएँ शुरु की, उनकी अहमीयत के चर्चे हर गली-मुहल्ले में सुने जा सकते हैं। रसोई गैस के सिलेंडर और बिजली के बिलों में दिये जाने वाले अनुदान आदि को लेकर विपक्षी भाजपा चाहे गहलोत के ऊपर सरकारी खजाने की बर्बादी के आरोप लगाती रहे लेकिन गहलोत सरकार की इन योजनाओं की तारीफ़ हर जाति, हर समुदाय और हर धर्म का व्यक्ति कर रहा है। इनके जमीनी क्रियान्वयन को लेकर जरूर कुछ जगहों पर लोगों में शिकायतें देखी जा सकती हैं और उन्हें लेकर प्रशासनिक स्तर पर काँग्रेस सरकार को ज्यादा चाक-चौबन्द रहना चाहिए था।
राजस्थान की राजनीति शुरु से दो ही दलों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। पहले काँग्रेस और जनसंघ के बीच चुनावी टक्कर होती थी और जनसंघ के बाद उसका स्थान भाजपा ने ले लिया। आज भी स्थिति में कोई ख़ास बदलाव इस राज्य में नहीं आया है किन्तु त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में निर्दलयी और छोटे दल निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। तीसरी ताकत के रूप में किसी दल विशेष को तो हम नहीं पाते लेकिन दो-तीन दलों का प्रदर्शन जरूर ग़ौर करने लायक होगा। भाजपा छोड़कर 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी के नाम से अपना राजनीतिक दल बनाने वाले हनुमान प्रसाद बेनिवाल उस वक्त 3 विधानसभा सीटें जीतने में सफल रहे थे और कई सीटों पर उनकी पार्टी खेल बिगाड़ने में भी कामयाब हुई थी। इस बार अपनी पार्टी की चुनावी सम्भावनाओं में बढ़ोतरी के लिए उन्होंने दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया है। बसपा पिछले चुनाव में यहाँ 6 सीटें जीतने में सफल हुई थी लेकिन गहलोत के जोड़तोड़ से बसपा के चुनाव चिह्न पर जीते सभी विधायकों के काँग्रेस में शामिल हो जाने से बसपा को जबर्दस्त झटका लगा। मनुवादी दक्षिणपन्थी राजनीति के खिलाफ मायावती की विश्वसनीयता पर उठते सवालों के बीच इस बार बसपा के लिए शायद राजस्थान में अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना आसान न हो।
राजस्थान के इन विधानसभा चुनावों में काँग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए वे आदिवासी सबसे बड़ा सिरदर्द साबित होने वाले हैं जिन्हें मुख्यधारा की ये दोनों राजनीतिक पार्टियाँ नरम चारा समझती रही हैं। पिछले 10 सितम्बर को डूंगरपुर में जिस भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) का गठन किया गया, उसने अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 25 सीटों में से 17 पर और 5 सामान्य सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके दोनों मुख्यधारा की पार्टियों में बेचैनी पैदा कर दी है। इस बेचैनी का कारण है दक्षिण राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में इस नयी पार्टी की जबरदस्त पकड़ होना। वास्तव में गुजरात की भारत ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के टिकट पर पिछले विधानसभा चुनावों में दक्षिण राजस्थान से दो विधायक चुने गये थे किन्तु कुछ राजनीतिक मतभेदों के चलते दक्षिण राजस्थान के आदिवासियों ने अब अपनी एक अलग पार्टी (बीएपी) बना ली है और ये दोनों विधायक राजकुमार रोत और रामप्रसाद डिंडोर भी इसी में शामिल हो गये हैं। ध्यातव्य है कि दक्षिण राजस्थान में 21 महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों में बीटीपी समर्थित भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा था।
बीएपी जैसी आदिवासी केन्द्रित पार्टी के जन्म के साथ-साथ एक और उल्लेखनीय बात इस चुनाव में यह है कि गुर्जर-मीणा विवाद से राजस्थान अब उबर चुका है। किरोड़ी लाल मीणा और किरोड़ी लाल बैंसला ने आरक्षण को आधार बनाकर जिस प्रकार अपने-अपने समुदायों को आमने-सामने ला दिया था, उससे इन दोनों समुदायों में गहरी खाई पैदा हो गयी थी। समय के साथ अब यह खाई पूरी तरह नहीं तो आंशिक तौर पर पट चुकी है और यही कारण है कि काँग्रेस के गुर्जर नेता सचिन पायलट का एक बड़ा समर्थक वर्ग मीणा मतदाताओं का भी है। किरोड़ी लाल मीणा और किरोड़ी लाल बैंसला, दोनों की भाजपाई पृष्ठभूमि भी अब कोई छिपी बात नहीं रह गयी है। जिस पूर्वी राजस्थान में ये दोनों समुदाय मुख्यत: केन्द्रित हैं, आज वहाँ का मुख्य मुद्दा आरक्षण न होकर ईस्टर्न राजस्थान कैनाल परियोजना बनती जा रही है। अकाल और सूखे से प्रभावित इस इलाके के लोग अब सिंचाई का माकूल प्रबन्धन चाहते हैं। आरक्षण के नाम पर दूसरों की कठपुतली बन आपस में टकराना अब उन्हें मंजूर नहीं और यही कारण है कि प्रियंका गाँधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और स्वयं अशोक गहलोत तक ने अपने भाषणों में इस मुद्दे को पुरजोर ढंग से उठाया है।
राजस्थान की जनता हर पाँच साल के बाद बारी-बारी से भाजपा और काँग्रेस को सरकार चलाने का जो अवसर देती आयी है, उस तीस साल पुराने राजनीतिक ढर्रे पर रोक लगाकर काँग्रेस इस बार सत्ता में वापसी के लिए पूरी तरह से लामबन्द नज़र आ रही है। राज्य में मतदान एक ही चरण में 25 नवंबर को होना है और अभी तक किसी राजनीतिक दल विशेष के पक्ष में कोई लहर तो नहीं दिख रही लेकिन राज्य की सत्ताधारी काँग्रेस की लोककल्याणकारी योजनाओं की स्वीकार्यता स्पष्ट नज़र आती है। विपक्षी भाजपा आम चुनाव की तर्ज़ पर राज्य विधानसभा के इस चुनाव को प्रधानमन्त्री के करिश्माई नेतृत्व के दम पर जीतने की कोशिश कर रही है जबकि काँग्रेस इसे नरेंद्र मोदी पर केन्द्रित करने से सचेतन बच रही है और उसकी नीति उचित भी है क्योंकि राज्य का चुनाव राज्य स्तरीय मुद्दों पर केन्द्रित होना चाहिए। वैसे भी चुनाव का व्यक्ति केन्द्रित हो जाना लोकतन्त्र के हित में नहीं होता।