बिच्छु का बोझ ढोना छोड़ो ‘डार्लिंग्स’
घरेलू हिंसा पर बनी इस फिल्म की थीम एक अन्य लघु कहानी से जोड़कर सार्थक बनाने की कोशिश की गई है कि मेंढक ने बिच्छु को नदी पार कराने के लिए अपनी पीठ पर बिठाया लेकिन बिच्छु ने मेंढक को डंक मार दिया क्योंकि यह उसकी फितरत है तो अब उसकी फितरत और आदत तो हम नहीं बदल सकते, फिल्म की कहानी विश्वास और धोखे की भी नहीं बल्कि सीख देती है कि आदमी अपनी फ़ितरत यानी पितृसत्तात्मक सोच नहीं बदल सकता तो क्यों न स्त्रियाँ उनका बोझ उठाना बंद कर दें! उनकी रूढ़िवादी परम्पाराओं का, सुरक्षा के नाम पर बनाई गई विवाह संस्था उसकी रसोई का और न जाने कौन-कौन से बोझ हैं जो उसने स्त्री के नाम जायदाद की तरह किये हुए हैं जिसे उसे मरते दम तक उठाना है।
अभी हाल ही में अमेरिका में बिजनौर की रहने वाली मनदीप कौर ने घरेलू हिंसा से तंग आकर आत्महत्या की जिसका एक वीडियो भी वायरल हो रहा है जो इस इस फिल्म को और भी सार्थक बनाती है। जो कहते हैं कि स्त्री सशक्तिकरण में अब पुरुष अशक्त हो रहा है मनदीप कौर की आत्महत्या एक बार पुनः विवाह संस्था में स्त्री सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। इस फिल्म में नायिका पहले आत्महत्या के बारे में सोचती है लेकिन फिर इरादा बदल कर बदला लेने के लिए आगे बढ़ती है। घरेलू हिंसा के जवाब में घरेलू हिंसा कितनी सही और ग़लत है यह आपके विवेक पर निर्भर करता है।
डार्लिंग्स फिल्म की कहानी सीधे तौर पर एक प्यारी सी लड़की बदरू की है जो हमजा से प्रेम करती है, हमजा प्रेमिका के नखरे उठाता है, वह रूठती है तो मनाता है, हर आम लड़की की तरह उसका मानस भी इसी तरह तैयार किया गया है कि वह घर बसाए, पति के लिए सज सँवर के बैठे, खाना बनाएं,पति की हर सुविधा का ख्याल रखें और यह काम वह पूरे शौक-शौक से शुरू करती है ‘घर घर के खेल की तरह लेकिन शादी के बाद! शादी एक दिन का सजा हुआ मंडप नहीं होती जिसके तले आपको बेस्ट फ़ील करवाया जाता है। उसकी आगे की यात्रा बहुत लम्बी और संघर्ष भरी रहती है जिसके लिए लड़कियों विशेषरूप से तैयार किया जाता है। शादी के बाद परिदृश्य बदल जाता है।
रेलवे में टी.सी. होने के बाद भी हमजा का बॉस उससे टॉयलेट साफ़ करवाता है लेकिन क्यों? क्या वहाँ सफाई कर्मचारी नहीं है, फिर वह करता ही क्यों है? यह पितृसत्ता की विशेषता है कि आदमी अपनी कमजोरियों को दबाने के लिए औरत पर मर्दानगी दिखाता है, शायद इसलिए हमेशा नशे में रहता है और अपनी सारी कुंठाओं को बदरू पर निकालता है छोटी-छोटी गलतियों पर पीटता है लेकिन सुबह बिलकुल सामान्य इसलिए बदरू को लगता है आज नहीं तो कल यह सुधर जाएगा बदल जाएगा। उसकी माँ समझा रही है बिच्छू अपनी फितरत कैसे बदले? वह हमजा से कहती है ‘पता है न औरत पर हाथ उठाने वाले को नामर्द कहा जाता है’। तो वह उन्हें भी नाक पर मुक्का मारता है,अपनी माँ की पिटाई के बाद भी बदरू को यकीन है कि हमजा सुधर जाएगा पर क्योंकर बदलेगा! वह तो बिच्छु है न ! लेकिन जब पिटाई की इन्तहा हो जाती है और उसका गर्भपात हो जाता है तो वह प्रेमिका पत्नी से माँ के रूप में आ चुकी थी जो अपने बच्चे की खातिर कुछ भी कर सकती है और यहाँ तो बच्चा पति के कारण मर गया।
बदरू की माँ तो कहती थी कि जब पहली बार पीटा था तभी वापस आ जाना चाहिए था क्योंकि माँ भी भुक्त भोगी है फिर शुरू होता है बदला लेने का सिलसिला। ‘अब मैं डिट्टो की डिट्टो वही करूंगी जो इसने मेरे साथ किया’ और यही से फिल्म का थीम करवट ले लेती है ‘सौ दिन सास के एक दिन बहु का’ की तरह बदला। जहाँ ‘थप्पड़’ फ़िल्म में नायिका पति से अलग होने के लिए न्याय के पास जाती है बदरू खुद मारने पीटने का उपक्रम शुरू करती है जिससे घरेलु हिंसा के खिलाफ़ इस फिल्म का संदेश गलत दिशा में चला जाता है कि घरेलू हिंसा के लिए पुलिस के पास जाने के बजाय खुद ही बदला लिया जा सकता है हालाँकि बदरू बाद में अपनी माँ से कहती है ‘मैं बिच्छु नहीं हूँ अगर मैंने मारा तो सारी जिंदगी याद आता रहेगा’ वास्तव में ये याद आना नहीं बल्कि कुछ गलत करने पर कहीं न कहीं हमारी आत्मा हमें कचोटती है कि हमने यह क्यों किया, न करते तो अच्छा था।
कुछ समीक्षकों का कहना है कि किसी खास धर्म के समाज में महिला उत्पीड़न को बताया गया है लेकिन बिच्छु का कोई धर्म, जाति, सम्प्रदाय नहीं होता क्योंकि हर समाज में आपको इस तरह के बिच्छु मिल जायेंगे बदरू की माँ शफु जब पुलिसवाले से कहती है कि ‘ये मर्द लोग दारु पीकर जल्लाद क्यों बन जाता है’ तो वो कहता है कि ‘क्योंकि औरत बनने देती है’ स्पष्ट है कि मारपीट के लिए दारु जिम्मेदार नहीं बल्कि वो तो उद्दीपन का काम कर रही है हमजा भी कहता भी है ‘पहले मैं समझता था कि दारु की वजह से मैं तुझे मारता हूँ लेकिन जब मैंने तुझे सीढ़ी से धक्का दिया तब तो मैं पीकर ही नहीं आया था मैं ही गलत हूँ कमीना हूँ’ यानी दारु के नशे में अगर किसी आदमी को जोर से पलटवार किया जाये तो वो चारों खाने चित्त हो सकता है लेकिन इस डर से कि सुबह मुझे फिर मारेगा वो स्त्री पिट लेती है यानी इस डर को अपने ऊपर हावी क्यों होने दें और इसलिए बदरू बेख़ौफ़ हो जाती है ‘अब कुछ फरक नहीं पड़ता’। एक दृश्य में वह माँ से कहती है ‘माँ मैं उससे इज्जत माँग रही थी, पर उससे क्यों माँग रही थी! इज़्ज़त तो मेरी है न? इसलिए कहा जाता है माँगने से इज़्ज़त नहीं मिलती। इसलिए अपना मान-सम्मान, अस्मिता या अस्तित्व के लिए उसे ख़ुद ही संघर्ष करना होगा, इसके लिए जरूरी है वो किसी पर निर्भर न रहे।
कहानी में एक जुल्फ़ी भी है साउथ का कलाकार रोशन मैथ्यू जो चोरी का माल बेचता है और कहानी भी लिखता लेकिन सीधा सरल और मासूमियत आपको मन भाएगी वह फिल्म में क्यों है, यह फिल्म देखकर ही मज़ा आएगा शफू यानि शैफाली शाह का अभिनय सोने पर सुहागा, विजय वर्मा मस्त प्रेमी खूँखार पति और बेचारा सभी जोन्स में बढ़िया रहे आलिया भट्ट को अगर आप सिर्फ नेपोटिज्म के कारण बायकाट करने जा रहें है तो एक अच्छी अदाकारी से वंचित रह जायेंगे एक मिडिल क्लास मुस्लिम समर्पित पत्नी बदरुनिसा के चरित्र को अपने भीतर उतार लिया है तो बदले की भावना में भी पति के लिए रह रह कर उसका प्रेम उमड़ना आपको अच्छा लगेगा। विडम्बनाओं के बीच ये डार्क कॉमेडी हँसाने का अच्छा प्रयास है एक दृश्य में हमजा का बॉस जब बार बार दरवाज़ा खटखटा रहा है तो शफु कहती है ‘मैं कपड़े बदल रही हूँ’ तब बॉस का एक्सप्रेशन और जेब से कंघी निकाल कर बाल सँवारना आपको खूब हँसायेगा ही साथ ही आप आदमी की उस फ़ितरत को समझ पायेंगे जहाँ कि वह कहीं भी चांस लेने को तैयार रहता है।
अंत में हमजा के कहने पर ‘हम नई शुरुआत करेंगे तुम तो अकेले कुछ कर नहीं पाओगी फिल्म अकेले देख पाओगी’ बदरू कहती हैं ‘हाँ मैं सब अकेले कर सकती हूँ’ यह भी एक संदेश ही है कि एक स्त्री को यदि आप बचपन से ही आत्मनिर्भर बनने के अवसर दें तो उसे किसी की ज़रुरत न पड़े और वह थिएटर में पॉपकॉर्न के साथ अकेले सिनेमा देख रही है पर्दे पर लिखा आ रहा है ‘औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा आपके लिए हानिकारक है’ वास्तव में बहुत पुरानी समस्या नए संदर्भ के साथ लिखी है क्योंकि सिगरेट का सम्बन्ध ज्यादातर तो पुरुषों से ही रहता है और घरेलु हिंसा का सम्बन्ध भी पुरुषों के ही खाते में है कुल मिलाकर एक अच्छे विषय के अच्छी फिल्म है कमियां बहुत समीक्षकों ने गिनाई इसलिए मैंने ज़रुरत नहीं समझी। अगर मनदीप कौर का वीडियो न देखा होता तो मैं रिव्यू न भी लिखती। बाकी नेटफ्लिक्स पर जैसे हिंसा का अतिरेक, गाली गलौज़, नग्नता का चरम अमूमन रहता है वह इसमें नहीं है सब मिलकर देख सकतें हैं।