आवरण कथाराजनीति

लोकतन्त्र बनाम आभासी लोकतन्त्र 

 

  • अनिल सिन्हा 

 

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ का नारा उछाला तो उसके मुकाबले नरेन्द्र मोदी ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा लेकर आ गए। इसके कुछ समय पहले तक ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का नारा चल रहा था। ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सअप, इंस्टाग्राम आदि इस प्रचार-युद्ध के मैदान हैं। आज से बीस साल पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि चुनाव-प्रचार का तरीका इस तरह बदल जाएगा और बिना किसी नियंत्रण के संवाद करने का एक नया माध्यम सोशल मीडिया के नाम से जन्म ले लेगा। इस मीडिया ने प्रचार के तरीके में ऐसा बदलाव ला दिया है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब अखबार और टेलीविजन के डेस्क पर बैठे लोगों की स्वीकृति के बगैर ही कोई सूचना लोगों तक पहुँचाई जा सकती है। सूचना की सच्चाई को पक्का करने और इससे जुड़े कायदे-कानून के पालन की जरूरत नहीं है। पिछले लोक सभा चुनावों और दिल्ली विधान सभा चुनावों के बाद देश में एजेंडा तय करने का माध्यम सोशल मीडिया बन गया है। 2019 के चुनाव-नतीजों  को यह मीडिया किस हद तक प्रभावित करता है, यह देखना दिलचस्प होगा। लेकिन इतना तय है कि मुख्यधारा की मीडिया से ज्यादा इसी का उपयोग राजनीतिक पार्टियाँ करेंगी क्योंकि इसमें कोई बंधन नहीं है। वैसे, चुनाव आयोग ने इसके जरिए प्रचार के खर्च और बाकी कानूनों के पालन पर निगरानी रखने का फैसला किया है। लेकिन इसमें शक है कि आयोग लगाम लगाने में सक्षम साबित होगा।

प्रचार के तरीके में आए इस बदलाव ने चुनाव  के मुद्दों पर काफी असर डाला है। राजनीतिक पार्टियों की कोशिश यही रहती है कि ऐसे मुद्दे उठाए जायें जो सनसनी पैदा कर सकें और लोगों का ध्यान खींच सकें। यही वजह है कि नौजवानों से पूछने पर पता चलता है कि  बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन कोई राजनीतिक पार्टी इसे मजबूती से नहीं रखती। वजह साफ है कि यह मुद्दा वैसा आकर्षण नहीं पैदा करता कि लोगो की जुबान पर चढ जाए।  यही वजह है कि सनसनी पैदा करने वाले सर्जिकल स्ट्राइक को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। बेरोजगारी के नारे का मुकाबला रोजगार के नारों से नहीं किया जा रहा है। उसे सर्जिकल स्ट्राइक का ध्यान दिलाने वाले ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारें से दबाने की कोशिश की जा रही है।  भाजपा की इस रणनीति के मुकाबले के लिए राहुल गांधी को भी बेरोजगारी और किसानों की आत्महत्या के विरोध की बात करने के साथ ‘चौकीदार चोर है’ जैसे नारे ढूंढने पड़ते हैं।

सोशल मीडिया खुले दिमाग से सरकार के कामकाज की समीक्षा और विरोधी पक्ष से इसकी तुलना करने का मौका नहीं देता। वह राय बनाने के जनता के काम में दखलंदाजी करता है। ऊपर से लगता है कि विरोधी पक्ष को भी अपनी राय फैलाने में यह मदद करता है। लेकिन सच्चाई यह है कि सत्ता पक्ष और कारपोरेट मुख्यधारा मीडिया की तरह ही इसे भी अपने नियंत्रण में रखे है। करोड़ों के खर्च से भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां इसका इस्तेमाल कर रही हैं। उनके आईटी सेल पार्टी की विचारधारा, कार्यक्रम या गतिविधियों की जानकारी देने का काम नहीं कर रहे हैं। उनका मुख्य काम विरोधी पक्ष और नेताओं की छवि खराब करना और अपनी पार्टी और नेता की छवि बनाने के लिए झूठ फैलाना। ये सारे काम इतने केन्द्रीकृत हो गए हैं कि पार्टी के शीर्ष नेताओं को ही इसका फायदा मिल रहा है। इसलिए अगर भाजपा में सिर्फ नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ही इसके हकदार हैं तो कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी। बाकी पार्टियों का भी यही हाल है। पहले के प्रचार अभियान में इस तरह केन्द्रीकरण की गुंजाइश नहीं थी, इसलिए क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर लोग नजर आते थे। अब हर जगह वे ही दिखाई दे रहे हैं। लोकतन्त्र के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।

प्रचार के डिजिटल होने के साथ ही भाजपा ने बूथ स्तर पर कारपोरेट प्रबंधन लागू करने की नई राजनीतिक शैली विकसित की है। उसने 2014 के लोक सभा चुनाव में यही तरीका अपनाया था। कहा जाता है कि पिछला लोक सभा चुनाव सबसे खर्चीला था। अंदर की जानकारी रखने वाले बताते हैं कि भगवा पार्टी ने पैसा पानी की तरह बहाया था। इस पैसे का बड़ा हिस्सा बूथ प्रबंधन में खर्च किया गया था। भाजपा पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के पहले तक इस प्रबंधन की चर्चा करने और अमित शाह को मास्टर प्रबंधक बताने में लगे रहते थे। इससे पता चला कि पार्टी ने पन्ना प्रमुख बना कर रखा है। पन्ना यानि मतदाता सूची का पन्ना। इस प्रमुख का काम अपने पन्ने के मतदाता को तरह-तरह के तरीके से पार्टी के पक्ष में मतदान कराना होता है। यही वजह है कि पुलवामा के हमले और देश की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे के कारण देश में असुरक्षा का माहौल था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने मेरा बूथ सबसे मजबूत का कोई कार्यक्रम नहीं रोका। बूथ के प्रबंधकों को शाह सीधे अपने नियंत्रण में रखते हैं और सांसदों या स्थानीय नेताओं का इन पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। इसलिए टिकट बंटने के पहले ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ कर दिया गया ताकि किसी सांसद का टिकट कट भी गया तो इसका कोई असर नहीं होगा।

चुनाव-अभियान और पार्टी मशीनरी के इस केन्द्रीकरण ने लोकतन्त्र को खोखला कर दिया है। इसे भी हमें संस्थाओें के बिखराव की प्रक्रिया के साथ ही देखना चाहिए। कारपोरेट पैसे की ताकत से ही भाजपा की पार्टी मशीनरी पर कब्जा हुआ है। मुझे याद आता है कि एक भाजपा समर्थक पत्रकार ने बताया था कि पार्टी के हर उम्मीदवार से कहा गया था कि उसे जो भी खर्च करना है उसका अंदाजा लगा कर भेज दे। ये पैसे उसे समय पर पार्टी की ओर से भेज दिए गए। इस बार हर जिले में  पच्ची-चालीस  युवाओं की एक टीम बनाई गई है जो एक-एक मतदाता से संपर्क करने के काम को संचालित करेगा। यह टीम स्थानीय स्तर पर मतदाताओं की जाति और उनके रूझान के साथ-साथ उन्हें प्रभावित करने वाले स्थानीय व्यक्ति के नाम की जानकारी रख रहा है।

कारपोरेट पैसे से संचालित इस सत्ता के लक्ष्य का पता लगाना मुश्किल नहीं है। इसका उद्देश्य साफ है। यह कारपोरेट के पक्ष में सारी संस्थाओं को ढाहने का काम कर रहा है। ये संस्थाएं देश को समाजवादी रूझान वाली अर्थव्यस्था तथा राजनीतिक तंत्र को विकसित करने के लिए बनाई गई हैं और इनका आधार देश के संविधान में है। इनका लक्ष्य न केवल अंग्रेजों की गुलामी के लिए बने तंत्र की जगह  लेना था, बल्कि एक नए समाजवादी और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना था। मोदी सरकार ने आरबीआई से लेकर सीबीआई तक-सभी संस्थाओें को कमजोर करने का काम किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नोटबंदी था जो आरबीआई की राय के बगैर कर दी गई। इसने देश के असंगठित क्षेत्र में भयंकर तबाही मचा दी। सीबीआई को भी इसी तरह के हमले का सामना करना पड़ा।

पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे सोशल मीडिया या इलेक्ट्रोनिक मीडिया की प्रकृति के अनुकूल हैं। सनसनी वाले इन मुद्दों को पकड़ कर मोदी देशभक्ति का उन्माद फैलाने की कोशिश में लगे हैं ताकि जरूरी मुद्दे ढंके जा सकें। लेकिन शायद यह बुखार मतदान तक कायम न रह सके।

मोदी और भाजपा की इस कारपोरेट-परस्त राजनीति के खिलाफ विपक्ष की कौन सी शक्तियां खड़ी हैं ? इसमें कोई शक नहीं कि चुनाव का सवाल आएगा तो वोटों का समीकरण महत्वपूर्ण होगा। अगर इस हिसाब से देखें तो सपा-बसपा गठबंधन काफी मजबूत स्थिति में है। पिछले लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा को वोटों को जोड़ने पर यह  42 प्रतिशत से ज्यादा हो जाता है। यह प्रतिशत भाजपा के मिले वोटों से सिर्फ आधा प्रतिशत कम है। विधान सभा चुनावों में तो सपा के 22 और बसपा के 22 फीसदी वोट मिल कर भाजपा की चालीस फीसदी से चार फीसदी ज्यादा हो जाता है।

इससे आगे आयें और लोक सभा के उपचुनावों को देखें तो गोरखपुर में सपा-गठबंधन को 49 प्रतिशत और भाजपा को 47 प्रतिशत और फुलपूर में इस गठबंधन को 47 प्रतिशत तथा भाजपा को 39 प्रतिशत मत पाता हुए देखतें हैं। कैराना में गठबंधन 51 प्रतिशत पहुंच जाता है। भाजपा यहां 46 प्रतिशत पर ही रूक  जाती है।

यूपी में सपा और बसपा के वोट सामाजिक आधारों या जाति पर टिके हैं और इस कारण ये वोट इन पार्टियों के इशारे पर कहीं भी भेजे जा सकते हैं। भले ही, यह राज्य की राजनीति में ये समीकरण एक सकारात्मक भूमिका निभाएंगे क्योंकि मजहब पर आधारित राजनीति को परास्त करने के लिए उनका इस्तेमाल होगा। लेकिन वास्तविकता यही है कि यह एक ठहरी राजनीति और पीछे खिसकती अर्थव्यवस्था को बनाए रखने का काम कर रहा है। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में इस ठहराव का फायदा उठाया और सपा को पटखनी दे दी।

भाजपा उत्तर प्रदेश की राजनीति को और भी पीछे ले गई। उसने इसमें जहर घोलने का काम किया। सपा-बसपा के खिलाफ अति पिछड़ी जातियों के साथ सवर्णों का समीकरण बना कर उसने जीत हासिल की। लेकिन यह समीकरण सामाजिक  रूप से बेमेल हैं। अति-पिछड़ी जातियों  ने सामाजिक न्याय के आंदोलन के जरिए जो हासिल किया है, उसमें आगे कुछ जोड़ने में भाजपा नाकाम रही हैं। सत्ता में उनकी भागीदारी अगुआई वाली नहीं है। जिस वजह से वे सपा या बसपा से अलग हुए हैं, उससे भी बुरी स्थिति उनकी है। यूपी के मुख्यमंत्री का सारा जोर मजहबी नफरत बढाने में लगा है। उनकी संकीर्ण सोच में जतियों का बोलबाला भी शामिल है। मुलायम ने सेकुलर सामाजिक गठजोड़ या मायावती ने जो सर्वजन का प्रयोग किया था, उससे यूपी की बंद राजनीति में खुलापन आने की संभावना बनी थी। भाजपा उसे पीछे ले गई। उसने 20 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समुदाय के एक भी उम्मीदवार को टिकट नहीं देकर अपनी संकीर्णता इजहार किया। योगी अभी भी वही कर रहे हैं। उनके  प्रमुख मुद्दे राम मंदिर, गोरक्षा और मुसलमानों के सबक सिखाने के ही हैं।

सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने का दांव भी मुख्यतः बिहार और यूपी को ध्यान में रख कर ही चलाया गया है। सामाजिक न्याय और संविधान की समानता की मूल अवधारणा की धज्जियां उड़ा कर दिए गए आरक्षण से देश की  राजनीति को तीन दशक पीछे ले जाने की कोशिश की गयी है। मंडल के बाद सवर्ण धीरे-धीरे सामाजिक न्याय को स्वीकार करने लगे थे और समाज में जतियों की पकड़ कम होने की संभावना बनी थी। भाजपा  ने फिर से उनके आपस के टकराव को बढा दिया है। लेकिन उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अति-पिछड़ी जातियां उसके सवर्णवाद को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगी और भाजपा के नेतृत्व से बाहर जाने की कोशिश करेंगी।

सपा-बसपा गठबंधन के फैसले ने भाजपा की मजहबी नफरत से  उत्तर प्रदेश को निजात दिलाने का रास्ता खोला है। भाजपा के लोग यह दावा करते नजर आते थे कि उन्होंने मुसलमानों को राजनीति के हाशिए पर ला दिया है। सपा और बसपा के अलग रहने पर मुसलमानों का वोट बंट जाता और मुसलमानों की कोई दिखने वाली भागीदारी वहां नहीं रह जाती। सपा-बसपा गठबंधन ने उनकी मजबूत भागीदारी का मौका सामने लाया है।

सवाल  उठता है कि राजनीति की इस बदली  परिस्थिति में कांग्रेस कहां है? कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आत्मविश्वास और धैर्य का कारण क्या है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के गीत गाने  वाला मीडिया चटखारे लेकर कांग्रेस को गठबंधन से  बाहर रखने के अखिलेश और मायावती के कदम की चर्चा कर रहा है। उसे लगता है कि देश के स्तर पर बन रहे राहुल बनाम मोदी की लड़ाई वाला माहौल उत्तर प्रदेश में नहीं रहेगा और यह पूछा जाएगा कि मोदी का विकल्प कौन? यह हालात का एक नासमझी भरा  विश्लेषण है।

राहुल ने अपने को वैचारिक विकल्प के रूप में  प्रस्तुत किया है। इसमें रफाल सौदे में भ्रष्टाचार, युवाओं की बेरोजगारी, किसानों की बदहाली और सांप्रदायिक नफरत की राजनीति का विरोध महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। वे  अर्थव्यवस्था को कारपोरेट के पक्ष मे मोड़ने और आरबीआई से लेकर सीबीआई तक-देश की तमाम महत्वपूर्ण संस्थाओं को नष्ट करने का मुद्दा उठा  रहे हैं। यह उन्हें देश के बाकी हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका देता है। प्रियंका गांधी के प्रवेश के बाद उप्र की लड़ाई और भी दिलचस्प हो गयी है। कांग्रेस राज्य में तीसरे पक्ष  की भूमिका निभाएगी।

अगर गौर से देखें तो उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से बाहर रह कर अलग सामाजिक समीकरणों पर आधारित उनकी राजनीति और भाजपा की हिंदुत्व वाली राजनीति से अलग एक विकल्प दे रही है। यह लोकतन्त्र के लिए एक अच्छी स्थिति  है, खासकर वैसे में  जब कोई भी पार्टी एक बेहतर शासन देने का कोई उदाहरण नहीं दे सकती। कम से कम, राहुल ताजा हवा की उम्मीद तो दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश का त्रिकोणीय संघर्ष  लोकतन्त्र के लिए बेहतर है। कांग्रेस एक तीसरा विकल्प दे रही है।

बिहार में तेजस्वी यादव मायावती-अखिलेश से ज्यादा सधे साबित हुए हैं। उन्होंने न केवल कांग्रेस को बल्कि उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को भी साथ लाने में सफलता पायी है। यहां सीधा मुकाबले की पूरी संभावना है।  सृजन घोटाले और शेल्टर होम्स के बलात्कार कांड के बाद नीतीश सुशासन का दावा नहीं कर सकते। सवर्णों और अति-पिछड़ों के साथ जो समीकरण उन्होंने बनाया था, वह भी फेल हो रहा है क्योंकि उपेंद्र कुशवाहा, कीर्ति आजाद और शत्रुध्न सिन्हा जैसे लोग उनके साथ नहीं हैं। महागठबंधन इसमें सेंध लगाएगा।

अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समीकरण उभरे हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस-डीएमके मजबूत स्थिति में है। महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना-भाजपा गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर है। शरद पवार के भतीजे की मनमानी से महागठबंधन कुछ सीटें गंवा सकता है। केरल में मुकाबला कांग्रेस और सीपीएम के बीच है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और  वामपंथी दलों के बीच मुख्य मुकाबला। उत्तर प्रदेश और बिहार के में सीटें गंवाने के बाद एनडीए के लिए सत्ता में रहना मुश्किल होगा। क्या मोदी का करिश्मा और अमित शाह का प्रबंधन गोदी मीडिया के समर्थन के बावजूद फेल हो जाएगा? असली सवाल यह है लोकतन्त्र बचेगा या केन्द्रीकृत आभासी लोकतन्त्र?

मोदी एक आत्ममुग्ध की तरह हर चीज को खास नजर से देखते हैं। कारपोरेट के फायदे लिए उन्होंने आरबीआई से लेकर सीबीआई तक की संस्थाओं की ऐसी-तैसी कर दी और उन्हें लगता है कि इसे कोई समझ नहीं पाया। उन्होंने  अगर जांच एजेंसियों का इस्तेमाल विजय माल्या या नीरव जैसों के खिलाफ किया होता तो जनता के सामने सीना तान कर कह सकते थे कि उनका शासन भ्रष्टाचार के खिलाफ है। वह राफेल की जांच संसदीय समिति से कराने को तैयार हो जाते तो उनके इस दावे में दम होता कि वह बेदाग हैं और किसी भी जांच का सामना करने के लिए तैयार हैं। इसलिए सोशल मीडिया में  खुद को चौकीदार बताने से जनता का विश्वास जीतना उनके लिए संभव नहीं हो पाएगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं|

सम्पर्क- +919968777158, sinhaa43@gmail.com.

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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