अंतरराष्ट्रीयपर्यावरण

पेरिस जलवायु समझौते को समझने का सही समय

 

  • राजकुमार कुम्भज

 

ऐतिहासिक 2015 पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने की दृष्टि से दुनियाभर के लगभग दो सौ देशों के बीच आम सहमति बन जाना, पृथ्वी और मानवता के पक्ष में एक बड़ी व महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जलवायु परिवर्तन को लेकर पोलैंड में सम्पन्न हुर्ह कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ – 24 की बैठक में भारत के लिए वाक़ई नई उम्मीदें जागी हैं। उक्त बैठक में भारत की चिंताओं से जुडे़ मुद्दों पर अच्छी प्रगति के संकेत मिले हैं। इसके तहत जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने की गरज से भारत को अधिक धन मिलेगा। संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में ब्राजील और तुर्की के विरोध के बावजूद सहमति बनना सुखद है। इस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन को सीओपी-24 भी कहा जाता है, जो पेरिस जलवायु समझौते को समझने का सही समय साबित हो सकता है।

तक़रीबन दो सप्ताह लंबी बैठक के अंत में 133 पन्नों वाली नियमावली को आख़िर सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। यह नियमावली पेरिस समझौते के क्रियान्वयन की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए 2020 से लागू होगी। उक्त नियमावली के दिशा-निर्देषों में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपट रहे दुनियाभर के सभी देशों के बीच विश्वास बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है। संसार की सर्वानुमति ही संसार को जलवायु परिवर्तन के संकट से बचा सकती है।

सीओपी-24 के अध्यक्ष माइकल कुर्तिका ने कहा है कि सभी देशों ने अपनी प्रतिबध्दता दिखाते हुए भरपूर मेहनत की है। प्रयासों की सफलता से गर्व की अनुभूति होती है। कैटोविस क्लाइमेट पैकेज में शामिल किए गए दिशा-निर्देषों से सन् 2020 में लागू होने वाले पेरिस समझौते को एक मुख्य आधार मिलेगा। भारत के लिए बड़ी उपलब्धि यह है कि भारत ने जिन मुद्दों को बुनियादी समूह के साथ उठाया था, उन पर बात आगे बढ़ी है, फिर चाहे वह बात वित्तीय सहायता से जुडी हो या फिर जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षतिपूर्ति की ही क्यों न रही हो? बुनियादी, देश जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए विकसित देशों की ज़्यादा ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करने में भी सफल रहे हैं। अब से उत्सर्जन में कमी लाने के साथ ही साथ संबंधित देश की चुनौतियों का ध्यान रखा जाएगा, जबकि अब से पहले दुनिया के विकसित देश इस सत्य की अनदेखी कर रहे थे।

भारत ने वैश्विक स्थिति के निर्णय को देखते हुए समानता के संदर्भ में पेरिस समझौते की धारा 14 में उल्लेखित समानता का ख़ासतौर से ज़िक्र किया है। समानता का यह संदर्भ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन और पेरिस समझौते का बुनियादी सिध्दांत है। अगर प्रक्रिया, निवेष, संसाधन, तकनीक और वैश्विक स्थिति के आकलन में समानता का ध्यान नहीं रखा गया, तो वैश्विक स्थिति के आकलन की यह तमाम जद्दोज़हद ही बेकार हो जाएगी। समानता की कमी एक बड़ा मुद्दा है। जलवायु-न्याय सुनिश्चित करने के लिए ग़रीब और हाषिए के लोगों की कमजोरियों, समस्याओं तथा चुनौनियों को क्यों नहीं प्राथमिकता दी जाना चाहिए? भारत की इस प्रष्नाकूलता पर तक़रीबन दो सौ देशों द्वारा आम सहमति जताने से बुनियादी देशों का विश्वास बढ़ा है।

भारत ने कॉप-24 के नतीज़ों को सकारात्मक बताते हुए यह भी कहा है कि इस सबसे वर्ष 2020 के बाद भी सौ अरब या इससे अधिक राशि का हरित-कोष बनाने के लक्ष्य पर विकसित देश क़ायम है। पहले यह तय किया गया था कि वर्ष 2020 तक यह राशि जुटा ली जाएगी, लेकिन बुनियादी देशों की दिल्ली-बैठक के बाद उक्त लक्ष्य 2020 के बाद भी पूरा किया जा सकता है। भारत सहित उन सभी देशों के लिए यह एक अच्छा संकेत है, जिन्हें जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। भविष्य में इन देशों को हरित-कोष अधिक धन दे सकेगा, जो ज़िम्मदारी सुनिश्चित करने के उद्देष्य को पूरा करेगा। भारत सब कुछ करने को तैयार है, लेकिन संपन्न राष्ट्रों की क़ीमत और अनदेखी पर उसे क्यों कर वह सब करना चाहिए? जलवायु संकट से निपटने के लिए क्यों नहीं संपन्न राष्ट्र कोई ख़ास पहल नहीं करना चाहते हैं?

पेरिस जलवायु समझौते की कार्य योजना को एक साथ लाना एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। रास्ता लंबा है, लेकिन कोई भी पीछे नहीं छूटना चाहिए। मक़सद एक ही है कि वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कैसे नीचे लाया जाए? जलवायु परिवर्तन के कारण भीषण बाढ़, सूखा, अल्पवर्षा और भयावह पर्यावरण परिस्थितियों का सामना कर रहे देशों का कहना है कि खनन गतिविधियों वाले शहर कैटोविस में जिस पैकेज पर आम सहमति बनी है, उसमें विश्व के लिए ज़रूरी उत्सर्जन में कमी करने के लिए ज़रूरी इच्छाशक्ति का अभाव है।

एक तरफ़ विकासशील देशों और चीन वार्ता गुट का कहना हैं कि नियम पुस्तिका के दिशा-निर्देषों में विकासशील देशों की तत्काल अनुकूलन ज़रूरतों पर ध्यान दिया गया है, जबकि दूसरी तरफ़ भारत में पर्यावरण के लिए काम वाले समूह सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरमेंट का कहना है कि हमें जो नियमावली मिली है, वह अपर्याप्त और कमज़ोर है। नियमावली के दिशा-निर्देष यह परिभाषित नहीं कर पा रहे हैं कि पेरिस जलवायु समझौते को कैसे लागू किया जाएगा और उसके आकलन की क्या व्यवस्था होगी? पोलैंड के शहर कैटोविस में संपन्न हुई कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़-24 द्वारा जारी नियमावली को भारत ने पेरिस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपर्याप्त बताया है।

इंस्टीट्यूट ऑफ़ एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फायनेंसियल एनालिसिस की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस समझौते के तहत घोषित एक लक्ष्य को भारत तय समय सीमा से दस बरस पहले ही प्राप्त कर सकता है। वह लक्ष्य वर्ष 2030 तक चालीस फ़ीसदी बिजली नवीन ऊर्जा संसाधनों से प्राप्त करने का था। भारत में अभी सौर ऊर्जा से तक़रीबन पच्चीस और पवन ऊर्जा से तक़रीबन पैंतीस गीगावाट बिजली पैदा की जा रही है। दिसम्बर 2019 तक नवीन ऊर्जा संसाधनों से पैदा की जानेवाली बिजली चालीस फ़ीसदी से अधिक हो जाएगी और मार्च 2020 तक भारत में कुल विद्युत उत्पादन 360 गीगावाट हो जाएगा। अभी-अभी विश्व बैंक ने वर्ष 2021 से 2025 के दौरान जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दो सौ अरब डॉलर देने का ऐलान किया है। यह रकम वर्तमान पाँच वर्ष की समयावधि के लिए दी गई राशि से दोगुनी है। ज़ाहिर है कि इस धनराशि से ग़रीब और विकासशील देशों को जलवायु लक्ष्य हासिल करने में बड़ी मदद मिलेगी। अगर इस बीच उत्सर्जन कम करने में दुनिया नाकाम रहती है, तो वर्ष 2030 तक दस करोड़ लोग ग़रीबी में पहुँच जाएंगे। आशय यही है कि दुनिया के संपन्न देश जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से निपटने के लिए अपनी हिस्सेदारी की ज़िम्मेदारी का बोझ बेहतर समझेंगे।

दुनिया का कोई भी देश अपनी औद्योगिकीकरण की गति और नीति को ज़रा भी रोकना नहीं चाहता है। ऐसी कोई पाबंदी भी पसंद नहीं करता है, जो उसके हितों को प्रभावित करती हो। ऐसे में सबसे बड़ा संकट यही है कि जिन देशों पर कार्बन उत्सर्जन की ज़िम्मेदारी सबसे ज़्यादा है, वे ही देश पीछे हट जाते हैं और ग़रीब तथा विकासशील देशों को ज़िम्मेदारी का पाठ पढ़ाने लगते हैं। ग़रीब देशों से उम्मीद करना और संपन्न देशों द्वारा मुंह मोड़ लेना समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। अगर अमेरिका की तरह अन्य अमीर देश भी पेरिस समझौते और जलवायु संकट से अपने हाथ खींच लेंगे, तो पृथ्वी और मानवता के हितों का क्या होगा?

क्षतिपूर्ति और हरित-कोष मुद्दे पर अच्छी प्रगति हुई है। बहुत संभव है कि जलवायु परिवर्तन से क्षतिपूर्ति के मामले पर भले ही अभी अंतिम निष्कर्ष नहीं आया हो, लेकिन आगामी वार्ताओं में इस संदर्भ का फै़सला अवश्य ही हो जाएगा और वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु समझौते की भावना के अनुरूप वित्तीय सहायता का स्वरूप भी साफ़ हो जाएगा। मेज़बान देश पोलैंड अभी कोयले से प्राप्त होने वाली ऊर्जा पर ही अधिक निर्भर है। उसे जीवाष्र्म इंधन छोड़ने की व्यवस्था पर जोर देना होगा। हरित-कोष से भारत के लिए तीन प्रस्ताव स्वीकृत हुए हैं। इन योजनाओं के क्रियान्वयन से तक़रीबन सत्रह लाख लोगों को लाभ मिलने की उम्मीद की गई है। पेरिस जलवायु समझौता 2015 एक ऐसा पहला समझौता है, जिसके तहत दुनिया के तक़रीबन सभी देशों ने तापमान वृद्धि रोकने के प्रति प्रतिबध्दता ज़ाहिर की है, जो कि मुख्यतः कोयला, तेल और गैस से होने वाले उत्सर्जन से होता है। पोलैंड के शहर कैटोविस का जलवायु सम्मेलन, पेरिस जलवायु समझौते को समझने का सही समय साबित हो सकता है।

लेखक प्रसिद्द साहित्यकार हैं|

संपर्क: 331, जवाहरमार्ग, इन्दौर 452002 फ़ोन(+91731-2543380)

Email: rajkumarkumbhaj47@gmail.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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