लोकसभा चुनाव के गहरे निहितार्थ
18वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम ने भारत के लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की हैं। और यह हुआ है उन करोड़ों वंचित, पीड़ित और दलित मतदाताओं की समझ और सजगता के कारण! इस चुनाव परिणाम ने एक साथ उन तमाम लोगों को उद्वेलित कर दिया है जो चिन्तित थे भारत के लोकतन्त्र और संविधान के भविष्य को लेकर। वास्तव में अभी अभी सम्पन्न हुआ लोक सभा चुनाव यह सन्देश दे गया कि जब-जब भारत का संविधान ख़तरे में पड़ेगा तब-तब भारत के सजग और सचेत मतदाता अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग करते हुए गाँधी और अम्बेडकर के सपनों को मरने नहीं देंगे।
जिस दिन चुनाव परिणाम सामने आ रहे थे उस दिन का दृश्य ही कुछ अलग था। जहाँ एक तरफ जीता हुआ पक्ष ठिठका हुआ और ठगा हुआ महसूस कर रहा था वहीं सफलता से कुछ दूर रह गये विपक्ष सन्तोष और उल्लास से लबालब दिख रहा था। लेकिन सबसे ज्यादा खुश था वह आम अवाम जिसने संविधान और लोकतन्त्र की हिफाज़त के लिए अपना महत्त्वपूर्ण मतदान किया था। मुझे यह सब देखकर वह दिन याद आने लगा जब 1977 में हमलोगों ने सामूहिक अभिक्रम के बल पर तत्कालीन तानाशाही सत्ता को परास्त कर लोकतन्त्र तथा संविधान को बचा लिया था। सचमुच इस चुनाव परिणाम के सम्बन्ध में कहें तो यही कहा जा सकता है कि यह चुनाव परिणाम “हारे हुए को जीत का एहसास दिला दिया और जीते हुए को हार का अभिशाप” थमा दिया।
यहाँ से भारत के लोकतन्त्र की एक अभिनव यात्रा शुरू होने वाली है। बहुत दिनों के बाद इस चुनाव में यह साफ तौर पर दिखा कि जनता मुद्दों की बात कर रही थी। खासकर वैसे मुद्दों की जो जीवन और जीविका से जुड़े थे। उसके अधिकार से जुड़े थे। छद्म और दिग्भ्रमित मुद्दों के झांसें को जनता ने एक सिरे से नकार दिया। समाज को जोड़ने और समाज को स्वस्थ दिशा में बढ़ाने वाले जीवनोपयोगी मुद्दों को जनता ने पकड़ लिया और समाज को विभाजित और जीवन को तबाह करने वाले मुद्दों को नकारते हुए स्पष्ट तौर पर यह सन्देश दे दिया “भारत को भारत रहने दो। भारत को प्रेम और सद्भावना के रास्ते आगे बढ़ने दो। हम गरीब रहना नहीं चाहते लेकिन दूसरे के कन्धे पर सवार हो तथा उसे विनष्ट कर अमीर बनना नहीं चाहते। हम समृद्ध होना जरूर चाहते हैं लेकिन प्रकृति की विविधता और संस्कृति की सम्पन्नता को सहेजते हुए ही। कथित विकास के नाम पर देश का विध्वंस नहीं चाहिए।”
उक्त चाहना के इर्द-गिर्द मतदाताओं ने अपने कमर कसे थे। और जब परिणाम सामने आया तो एक खुशी की लहर सभी मतदाताओं में दौड़ पड़ी। सरकार जिसकी भी बने लेकिन एक ऐसी सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ जो किसी भी स्थिति और परिस्थिति में जनता की आवाज को अब अनदेखी नहीं कर सकती है और जो सरकार जनता की सामूहिक भावनाओं की अनदेखी करेगी वह अपने विनाश को आमन्त्रित करेगी। यही सोच कर आमजन भी खुश हैं, और प्रतिपक्ष तथा जनपक्ष भी।
लेकिन यहाँ हमसबों को अब मिल-बैठकर यह जरूर सोचना चाहिए कि भविष्य में प्रीपोल और एक्जीट पोल की क्या जरूरत है? इसकी कोई प्रासंगिकता रह गयी है क्या? या यह सिर्फ बाजार और कॉरपोरेट्स का हिस्सा भर है, जो चुनाव को ही “तीन-तसिया” तक पहुँचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। इसलिए जनपक्षधरों को इस चुनाव के बाद की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्री पोल और एक्जिट पोल पर रोक लगाने का जन अभियान चलाना चाहिए। सच कहें तो एक्जिट पोल की लाज योगेन्द्र यादव ने रख ली। उनका अनुमान लगभग शत् -प्रतिशत सही निकला, लेकिन यह अनुमान था कोई एक्जिट पोल नहींI वे अपनी प्रस्तुतियों में हमेशा यह हिदायत देते रहे कि यह अनुमान भर हैI इसलिए मुझे लगता है कि योगेन्द्र यादव जी को इस तरह के छद्म और दिग्भ्रमित करने वाले अभ्यास के खिलाफ लोगों में एक व्यापक चेतना फैलाने और गोलबन्द करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा मैं पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूँ। बहुत हुआ भूल-भुलैया वाला यह खेल। जनता के मन में अभी भी उनलोगों में गुस्सा हैI
इस चुनाव के निहितार्थ को अगर बारिकी से समझें तो यह बात साफ हो जाती है कि जनता के मुद्दों के लिए शान्तिमय सतत् संघर्ष और चेतना जागरण के काम में प्रतिपक्ष और जनपक्षधरों को लगे रहना होगा। यह थोड़ा कठिन काम जरूर है लेकिन इसके बिना देश के लोकतन्त्र और संविधान को क्षरित होने से बचाया भी नहीं जा सकता।
जहाँ तक संविधान के खिलाफ साजिश रचने और लोकतन्त्र को कमजोर करने की बातें हैं इसमें कोई दो मत नहीं कि अधिकांश कारपोरेट्स और कुछ दलों/संगठनों को न तो लोकतन्त्र रास आ रहा और न देश का यह संविधान ! इसलिए संविधान के पहुरूओं को जागते रहने की हाँक देती रहनी पड़ेगी।
इस चुनाव ने एक महत्त्वपूर्ण सन्देश देश के सामने दे दिया है कि आवारा पूँजीवाद (क्रोनीकैपिटलिज्म) अब इस देश में नहीं चलेगा। यह चुनाव इसके खिलाफ भी एक मैनडेट है। आवारा पूँजीवाद न सिर्फ देश की प्राकृतिक धरोहरों के बल्कि देश की साझी संस्कृति और सद्भाव के भी खिलाफ है। पैसे के बल पर ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ और ‘मानवीय ईथोज’ को समाप्त करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती है। इसलिए जागते रहो –जागते रहो का अनवरत अभिक्रम चलाते रहना पड़ेगा।
इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि भारत के पढ़े लिखे उच्च वर्गों / लोगों के मुकाबले अनपढ़ और अनगढ़ वंचित समुदायों ने लोकतन्त्र और संविधान की रक्षा के लिए न तो 45 से 48 डिग्री तापमान की परवाह की और न लू के थपेड़ों की। निश्चित तौर पर भयंकर गर्मी में जिन तमाम लोगों (कर्मचारी और पदाधिकारी भी) ने चुनाव को सम्पन्न कराने में कोई कसार नहीं छोड़ी, उन्हें तो साधुवाद देना ही चाहिए।
अयोध्या की जनता ने जो जनादेश दिया उसकी गहन गवेषणा की जरूरत है। भाजपा वहाँ बुरी तरह हार गयी और एक दलित उम्मीदवार को वहाँ की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुन लिया। उनके जीत को अन्धभक्तों ने जिस तरह द्वेष भाव और ग्लानिबोध से ग्रहण किया वह शर्मनाक हैI चुनाव परिणाम के बाद जिस तरह की बातें की जा रही थीं वह न सिर्फ अशोभनीय है बल्कि अमानवीय भी है। एक पढ़े लिखे और विदेश में रहकर अपनी शोहरत बढ़ा रहे एक अधेड़ की टिप्पणी की बानगी सुनिए — “भगवान श्रीकृष्ण ने ठीक किया था, मथुरा को छोड़ द्वारका चले गये थे। यूपी वाले हैं ही ऐसे। जो राम का नहीं हुआ वह कृष्ण का कैसे हो सकता था।” इसके अलावे ऐसी अनर्गल और भद्दी भद्दी बातें करने वाले हजारों अन्धभक्त दिखे। ऐसा करना उनके अन्दर की कुण्ठा ही दिख रही थी।
ऐसे अन्धश्रद्धालुओं को क्या कहा जाए? हम जैसे लाखों लोगों का मानना है कि अयोध्या के मतदाताओं ने न सिर्फ अपने अधिकार का सदुपयोग किया बल्कि यह बतलाने और जतलाने में भी सफल रहे कि ‘राम’ को महज एक ‘मूर्ति’ के रूप में स्वीकार कर एक मन्दिर में स्थापित कर देना राम की महत्ता और व्यापकता को कम कर देना है। लोग मानते हैं कि राम तो कण कण में विराजते हैं। घट-घट में बसते हैं। इसीलिए उन्हें महज अयोध्या का मान लेना उन्हें सीमित कर देना है। इस अर्थ में अयोध्या के लोगों की राम के प्रति भाव- भक्ति कहीं ज्यादा सार्थक और अन्तःस्थलीय है। ज्यादा आध्यात्मिक और रागात्मक है। इसलिए वहाँ की सजग जनता ने यह साबित कर दिया है कि राम जैसे अलौकिक व्यक्तित्व के नाम पर राजनीति नहीं चलेगी। राम को राजनीति के घेरे में कैद कर अपने दलीय हित के लिए इस्तेमाल करना राम की सार्वभौमिकता को नकारना है। सबसे दुखद और हास्यास्पद तो यह दिखी कि अयोध्या की हार के बाद अन्धभक्तों ने राम नाम जपना तक छोड़ दिया।
इसके निहितार्थ एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत की प्रायः जनता धार्मिक रहते हुए भी सेकुलर है। और यह सेकुलर ईथोज धर्मविहीनता नहीं है बल्कि सर्वधर्म समभाव है। इंसान और इंसान के प्रति सद्भाव है। इंसान और इंसानेत्तर प्राणियों के प्रति संवेदनात्मक लगाव है।
इसलिए इस चुनाव को सकारात्मक ढंग से लेते हुए सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष को जनभावना का क़द्र करना चाहिएI लोकतन्त्र को और गहरा तथा धारदार बनाने के लिए देश की अधिकांश निर्णय प्रक्रिया में जनता को शामिल करने का अवसर प्रदान करना चाहिए। ग्राम सभा को सशक्त कर लोकतन्त्र की विभिन्न संस्थाओं को विकेन्द्रित किया जा सकता है। सत्ता का जिस अनुपात में विकेन्द्रीकरण होगा लोकतन्त्र उसी अनुपात में सशक्त और गहरा होगा। इस चुनाव ने यह सन्देश पूरे देश को दिया है।