- पवन कुमार सिंह
एमए के रिजल्ट के बाद पीजी होस्टल के हम लगभग डेढ़ दर्जन मित्रों ने सामूहिक निर्णय लिया कि अब अपने अभिभावकों से खर्चा-पानी नहीं लेंगे। खुद कुछ उपार्जित करने के लिए उद्यम करेंगे। कई दिनों तक विचार-विमर्श चलता रहा कि क्या किया जाए? उस समय तक शहर में कोचिंग संस्कृति की शुरुआत नहीं हुई थी। भविष्य की अच्छी संभावना को देखते हुए सर्वसम्मत फैसला लेकर योजना बनी कि इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन तक के सभी प्रमुख विषयों के लिए कोचिंग संस्थान खोला जाए। इसके लिए एक बड़े मकान की जरूरत थी। भाड़े पर मकान लेने के लायक कोई बजट नहीं था हमारे पास। एलएसडब्ल्यू के पन्ना कुमार सिंह ने प्रस्ताव रखा कि भागलपुर के डीएसई त्रिभुवन बाबू से मिलकर किसी सरकारी स्कूल में संध्याकालीन कोचिंग क्लास चलाने का आदेश प्राप्त किया जाए। वे पन्ना जी के रिश्तेदार थे और बेरोजगार युवाओं की मदद के लिए विख्यात थे।
पन्ना जी ने त्रिभुवन बाबू से मिलने का समय लिया और हम एक दर्जन साथियों ने उनसे आवास पर मुलाकात की। हमारी योजना पर विस्तार से चर्चा करने के बाद उन्होंने मदद करने का भरोसा दिया। फिर उन्होंने खलीफाबाग के पास अवस्थित कन्या मध्य विद्यालय की प्राचार्य को फोन करके संध्या 5 बजे से 8 बजे तक क्लासरूम और एक आदेशपाल उपलब्ध करवा दिया। भवन मुफ्त था और प्यून को यथायोग्य कुछ भुगतान करने की बात थी। इतनी अच्छी व्यवस्था हो जाने से हमारा उत्साह काफी बढ़ गया था। अब प्रचार- प्रसार करने का उपाय करना था। संस्थान के नामकरण पर थोड़ी माथापच्ची हुई। नाम तय हुआ ‘कोऑपरेटिव कोचिंग सेंटर’। सामूहिक अंशदान से पाँच सौ पोस्टर छपवाये गये। पोस्टर चिपकाने के लिए पेशेवर मजदूर से बात की गई तो जो पारिश्रमिक मांगा गया वह हमारी क्षमता के बाहर लगा। हमने यह काम खुद करने का निर्णय लिया। एक मित्र ने अपने परिचित बिजली मिस्त्री से बाँस की सीढ़ी मांग लायी। मैदे की लेई बनायी गयी और रात ग्यारह बजे से एक बजे के बीच अलग- अलग चौक-चौराहों पर हमने एक सप्ताह के अंदर सारे पोस्टर चिपका दिये। पहले दिन के बाद से ही इक्के-दुक्के छात्र पूछताछ और नामांकन के लिए आने लगे। हमने इंटर और ग्रेजुएशन के सामान्य पाठ्यक्रम पढ़ाने की योजना बनायी थी। फीस इतनी रखी गयी थी कि कम आमदनी वाले परिवार के बच्चों को भी सहूलियत हो। साथ ही अघोषित फैसला था कि यदि वह फीस भी देने में किसी को कठिनाई हो तो हम छूट देंगे। कोचिंग का नाम ‘कोऑपरेटिव’ सौ प्रतिशत सार्थक था। सभी डेढ़ दर्जन साथी उसके मालिक थे। हाँ यह अलग बात थी कि दो-चार लोग अधिक सक्रिय थे, बाकी लोगों को समय पर आकर अपने क्लास लेने तक से ही मतलब था।
एक पखवाड़े के बाद सौ से अधिक बच्चे आने लगे थे। किन्तु उसी तेजी से आगे एडमिशन नहीं हो सका था। रहस्यमय रूप से कोचिंग सेंटर के ग्रोथ को ब्रेक लग रहा था। बहुत बाद में पता चला कि ट्यूशन का मेला लगाने वाले आचार्यों ने अपने दूत-भूत लगा दिये थे। खैर, जो भी हो, मासिक आमदनी को बराबर बाँटकर हमें उतने पैसे मिल जाते थे कि खुद्दारी से बेरोजगारी का सामना कर सकें।प्रतिमाह औसतन डेढ़ सौ बच्चे आने लगे थे। सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि इसी बीच आधा दर्जन साथियों को विभिन्न कॉलेजों से तदर्थ नियुक्ति के लिए आमंत्रण मिला। कोचिंग के मोह में सभी चाहते थे कि भागलपुर के आसपास ही रहें पर सबको विकल्प नहीं मिला था। मुझे खगड़िया, नौगछिया और कहलगाँव से बुलावा आया था। नौगछिया जाता तो वापस गाँव जाकर बसना होता। कोचिंग डूब जाता। खगड़िया जाता तो गाँव और भागलपुर दोनों छूट जाता। सो मैंने कहलगाँव चुन लिया; यहाँ से दिनभर में वापस भागलपुर आकर कोचिंग मैनेज करना आसान था। कुछ प्रमुख साथियों के गोड्डा, दुमका, बरबीघा, खगड़िया आदि चले जाने से कोचिंग को जोरदार झटका लगा था।
पाँच-छः माह बीते होंगे कि हमारे खिलाफ आचार्यगण आक्रामक हो गये। मंतरी से संतरी तक ज्ञापन ठोक दिया गया कि शहर के अमुक सरकारी स्कूल में अवैध रूप से प्राइवेट कोचिंग सेंटर चलाया जा रहा है। ले बलैया मित्रमंडली! बिना नोटिस के ही अगली शाम प्रवेशनिषेध। अपने चौक डस्टर , बैनर आदि लेने हमें अगले दिन कार्यालय अवधि में बुलाया गया। बुजुर्ग महिला प्राचार्य, जिन्हें हम सभी दीदी जी बुलाते थे, ने अफसोस जताते हुए कहा कि इस प्रकरण में खुद उनकी और त्रिभुवन बाबू की बड़ी बदनामी हुई है। लेकिन उन्हें इस बात का संतोष और गर्व है कि उन्होंने बेरोजगार युवकों की निःस्वार्थ भाव से मदद की है।
इस जोरदार झटके से हम सभी एक सप्ताह तो बेसुध पड़े रहे थे। धीरे-धीरे साहस जुटा तो नयी योजना पर काम शुरू हुआ। तिलकामांझी में एक मकान भाड़ा किया गया। किस्तों में भुगतान की शर्त पर फर्नीचर वाले से थोक के भाव में ढाई दर्जन जोड़े बेंच-डेस्क और ब्लैकबोर्ड बनवा लिये। स्थान परिवर्तन के प्रचार के लिए हमें फिर से पोस्टरबाजी करनी पड़ी, किन्तु इस बार हमारी हैसियत मजदूरी अदा करने की हो गयी थी। तिलकामांझी में कोचिंग जमा नहीं। यूनिवर्सिटी कैम्पस से दूर होने के कारण पर्याप्त छात्र नहीं मिले। यहाँ से बिस्तर समेट कर हम बूढ़ानाथ मंदिर के पार्श्व में बसे विख्यात विद्वान और साहित्यसेवी पं0 उमेश चौधरी की शरण में पहुँच गये। पंडित जी के पुत्र राधाकृष्ण (अब स्वर्गीय) हमारे सहपाठी और आत्मीय थे। उनके पुस्तैनी मकान के पिछले हिस्से में कई कमरे और बरामदे खाली पड़े थे। वहाँ का रास्ता पीछे की गली से होकर जाता था। परिजनों की आवाजाही नहीं होने के कारण पिछले बाहरी बरामदे में बकरियों का बसेरा था। जगह पर्याप्त थी। साफ-सफाई करवाकर हमने भीतर-बाहर फर्नीचर सजा दिये। रास्ता बहुत पेचीदा था इस कारण पुनः पोस्टर छपवाना पड़ा। गली के नुक्कड़ पर हस्तलिखित बैनर लगवाना पड़ा। झटके पर झटका बड़ा भारी पड़ गया। बच्चे आए, किन्तु लाख कोशिशों के बावजूद कोचिंग पुरानी स्थिति तक नहीं पहुँच सका। कुछ साथी एडहॉक नियुक्ति पर दूर चले गये तो कुछ आचार्यों के पदचिह्नों पर चल पड़े। टीम बिखर गयी। कुछ ही दिनों में दो बार स्थान बदलने और अफवाहों के कारण छात्रों का भरोसा टूट गया और दीये की मद्धिम होती लौ की तरह हमारे सपनों का कोचिंग धीरे-धीरे अपनी मौत मर गया। हम असहाय उसे दम तोड़ते देखते रह गये। इस दरम्यान सबने पीजी होस्टल छोड़ दिया था। कुछ ने बीएड में नामांकन लेकर होस्टल पकड़ लिया और कुछ निजी लॉज में रहने लगे। विधाता हमारे लंबे संघर्षपूर्ण भविष्य की पटकथा लिख चुका था, जिसका अहसास हममें से अधिकांश को था।
(क्रमशः)

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