अपने ही ‘अनेक’ के फेर में उलझती फिल्म
कभी किसी जमाने में अमीर खुसरो ने कहा था “गर फिरदौस बर रूह-ए-अमी अस्तो, अमी अस्तो अमी अस्त” यानी कहीं कुछ स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है यहीं है। अनुभव सिन्हा की फिल्म में भी सही जगह इस्तेमाल हुई ये पंक्तियाँ अनुभव सिन्हा को सिनेमा की दुनियां का क्रांतिकारी निर्देशक बनाने के लिए काफी है। वैसे वे अपनी अब तक की बनाई फिल्मों से खुद को क्रांतिकारी से कहीं ज्यादा एक ऐसे खाके में डाल चुके हैं जिस खाके में कोई शायद ही फिट बैठकर ऐसे मुद्दे उठाएगा कभी जो अब तक नजर अंदाज किए जाते रहे हैं।
‘अनेक’ फिल्म का ट्रेलर देखकर लगा था कि यह एक उम्दा और अच्छी फिल्म होगी। लेकिन जब इसके पूरे पत्ते खुले इस शुक्रवार तो दिल में कई सारी कसक भी उठी। पहली तो ये कि अनुभव क्यों ऐसे मुद्दों को छूने की जहमत उठाते हैं। फिर ये कि चलो जहमत उठाई भी तो उसमें सिनेमैटिक लिबर्टी लेते हुए उसे उम्दा बनाने के चक्कर में इतना मिक्सी में क्यों घुमाते हैं घुर्र-घुर्र की वह असहनीय चुभन देने लगे। वे इतने पर ही नहीं रुकते बल्कि उसमें कई बातें अपनी ओर से भी जोड़ते चलते हैं। खैर जो भी हो उनका यही अंदाज उन्हें बाकी फिल्म मेकर्स से अलग भी बनाता है।
उत्तर-पूर्वी भारत हमारे देश का महत्वपूर्ण हिस्सा जिसे हमारी सरकारों ने हमेशा किनारे पर रखा। फिर वे खुद उठे और लड़ने लगे अपने आपके लिए, अपनी स्वतंत्रता के लिए। जैसे कश्मीर और पंजाब लड़ता आ रहा है। यही वजह रही कि किसी को चिंकी, किसी को पाकिस्तानी, किसी को खालिस्तानी, किसी को नक्सली कहकर बुलाया जाने लगा। अब ये अपने लिए, अपनी आजादी के लिए हथियार न उठाएंगे तो क्या आपके स्वागत में फूल माला लेकर आएंगे?
धारा 371 का जिक्र भी यह फिल्म करती है लेकिन उसे कायदे से बता पाने में असफल होती है। नोर्थ इंडिया के लोगों ने हथियार उठाए हैं लेकिन उन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं तो इंडिया के लिए, अपने झण्डे के लिए खेलकर देश का नाम भी रोशन करना चाहते हैं।
वैसे मैंने कहीं पढ़ा और सुना था कि लोगों के हाथों में किताबों की बजाए बंदूकें थमा दो वे खुद लड़ मरेंगे। इसी तरह फिल्म में जब एक संवाद आता है – ‘जितनी गोली चलती हैं इस स्टेट्स में उतने पैसे में तो सब ठीक हो सकता है न? कितने पैसे में आता है एक गोली? और कौन लाता है? तो लगता है फिल्म के लेखक, निर्देशक यह सवाल आम लोगों से, दर्शकों से नहीं बल्कि सरकारों से पूछ रहे हैं।
इसी तरह जब टाइगर सांगा एक इंटरव्यू देते हुए कहता है इंटरनेट और व्हाट्सएप की दुनियां में आने के बाद भी लोगों को हमारे स्ट्रगल के बारे में कोई जानकारी नहीं तो उसका यह कहना वाजिब सवाल के रूप में लगता है। फिर फिल्म में शांति समझौते की बातें हों या देश के लिए खेलने या देश के खिलाफ लड़ने की बातें ये सब कहीं न कहीं एक सवाल नहीं ‘अनेक’ सवालों और ‘अनेक’ बातों को कहने के फेर में उलझती नजर आती है। बावजूद इसके अनुभव का यह काम सराहने योग्य जरूर है कि उन्होंने फिर से एक ऐसे मुद्दे को उठाया है जिस पर कोई आजतक कायदे से बात करना तो दूर उन्हें ठीक से उठा और पकड़ भी नहीं पाया है।
फिल्म में दिखाया जाना कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों पर इंडिया की सरकार और उसके सैनिक अत्याचार कर रहे हैं। जिसके चलते यहाँ न ही कोई खास विकास हुआ है और शांति तो यहाँ बिल्कुल भी नहीं है। लेकिन क्या फिल्म में दिखाए गए किरदारों के माध्यम से शांति स्थापित हो सकी या कोई विकास हुआ? यह तो फिल्म देखकर आपको पता करना पड़ेगा। लेकिन इतना जरूर है कि मजेदार और मनोरंजन हर समय ढूंढने वालों के लिए तो यह फिल्म कतई नहीं बनी है।
ऐसी फिल्मों की कहानियों को पर्दे पर भी ठीक उसी तरह से खेल पाना आसान काम नहीं होता। यही वजह है कि ऐसी फिल्में अक्सर बोरियत भरी राह पर खुद चलती तथा दर्शकों को चलाती नजर आती हैं। फिल्म में कई सारे अच्छे सीन्स हैं, कई सारी अच्छी लोकेशन्स, कई अच्छे संवाद हैं। फिल्म की लोकेशन के लिए रेकी का काम करने वाली टीम की भी खासी सराहना की जानी चाहिए।
ढाई घंटे लम्बी इस फिल्म में एक्टिंग सबकी जोरदार है, डायरेक्शन भी, मेकअप, कास्टिंग, बैकग्राउंड स्कोर, गीत-संगीत भी।