बिहार में महागठबन्धन का अपराध – व्रजकुमार पाण्डेय
- व्रजकुमार पाण्डेय
2014 के लोकसभा में भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने जो वायदे किये थे – उनको लागू करने की दिशा में कुछ नहीं किया। उल्टे नोटबन्दी और जीएसटी लागू कर लोगों को परेशानियों में डाला। दूसरी ओर शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, आजादी की लड़ाई और आजादी बाद जो अच्छे काम हुए थे, संस्थाएँ बनी थी – उसके साथ छेड़छाड़ करने के खुराफात से जनता दुःखी थी। निराशा और हताशा के दौर में देश गुजर रहा था। धीरे-धीरे मोदी सरकार के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हुई। गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस की बढ़त से विरोधी पार्टियों में उत्साह देखने को मिला। फिर कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जीत ने मोदी विरोधी पार्टियों, संगठनों और सेकूलर जमात में यह अहसास हुआ कि मोदी और एन.डी.ए. की सरकार को हराया जा सकता है। जगह-जगह भाजपा विरोधी पार्टियाँ रैलियाँ निकालने लगी जिसमें ऐसे सभी दल शामिल होने लगे जो भाजपा विरोधी थे। फिर गठबन्धन बनाने के लिए भी बैठकें होने लगी। लेकिन विरोधी पार्टियों का मानस दो भागों में बटा था। ऐसे नेता जिनका अपने राज्य में वर्चस्व था और उस राज्य में उनकी सरकार थी जो मोदी के खिलाफ तो जरूर थी लेकिन गठबन्धन में शामिल होना नहीं चाहते थे। इन पार्टियों में बीजू जनता दल, टी आर एस की पाटी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस शामिल थी। इस संदर्भ में मायावती कभी स्पष्ट नहीं हुई। अब तो पी एम के उम्मीदवार के रूप में अपने को प्रोजेक्ट कर रही है। यही हाल ममता का भी रहा है। इस तरह देश में लोकतान्त्रिक सेकूलर और वाम मोर्चा का माहौल बनकर विखर गया जिसका मुख्य कारण क्षेत्रीय दलों के नेताओं की अहमन्यता रही हैं। कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस को छोड़कर फेडरल फ्रंट बनाने की कोशिश की लेकिन यह पहल भी हवा हवाई बन कर रह गया। यहाँ यह नोट करने की जरूरत है कि मोदी राज्य में कांग्रेस ने एनडीए सरकार के खिलाफ संघर्ष किया और उनकी जीत के कारण मोदी विरोध की हवा तेज हुई। ऐसे में कांग्रेस से अलग मोर्चा बनाने का तुक सही नहीं था। आखिरकार राष्ट्रीय स्तर पर एक गठबन्धन के प्रयास सफल नहीं हो सका। राज्य स्तर पर गठबन्धन जरूर बने और आज चुनाव में उसी रूप में चुनावी मैदान में पार्टियाँ चुनाव लड़ रही है।
एक साल पहले बिहार में महागठबन्धन बनाने के प्रयास शुरू हुए थे। लालू प्रसाद और उनकी पार्टी गठबन्धन के केन्द्र में थी। गठबन्धन में शामिल होनेवाली पार्टियों के जेहन में एक बात मजबूती से बैठी थी कि लालू के पास माय समीकरण है जो गठबन्धन की पार्टियों मे ट्रांसफर हो सकती हैं। इस कारण इस गठबन्धन में शामिल होने की होड़ मच गई थी। कांग्रेस और वाम पार्टियों सहित कुशवाहा, माँझी, सहनी और देवेन्द्र यादव की पार्टियाँ सभी गठबन्धन में सीट पाने के लिए मारामारी कर रही थी। ये सभी पार्टियाँ लालू प्रसाद की कृपा की आकांक्षी थी। इस गठन में शामिल होने के लिए आतुर दलों की संख्या आठ थी और इस राज्य में लोकसभा की सीटें 40 हैं। जब लालू प्रसाद जेल से जमानत पर छूटकर पटना आये – उस समय उन्होंने विभिन्न पार्टियों के नेताओं से अलग- अलग मिलना शुरू किया था और उनसे उनके उम्मीदवारों के नाम और लड़ी जानेवाली सीटों की संख्या की जानकारी लेने का प्रयास किया और सबों को एडजस्ट करने का अश्वासन दिया।
जब उनकी जमानत की अवधि समाप्त हुई तो वे पुनः जेल चले गये। पार्टियों के नेता उनसे मिलने राँची जेल में जाने लगे लेकिन उन्होंने कोई पत्ता नहीं खोला। बिहार में सोयी कांग्रेस तीन राज्यों में जीत होने के कारण उनमें उत्साह देखने को मिला। दूसरी पार्टियों के नेताओं में कांग्रेस में शामिल होने की होड़ मच गई। इस स्थिति ने कांग्रेस को ज्यादा सीटों की जरूरत आ पड़ी और गठबन्धन में वे ज्यादा सीटें मांगने लगे। इस मांग ने गठबन्धन को अनिर्णय की स्थिति में डाल दिया। कांग्रेस के साथ कुशवाहा और माँझी भी ज्यादा सीटों की दावेदारी करने लगे। इस बीच मुकेश सहनी अपनी पार्टी के साथ धक्का देने लगे। इस तरह इस धक्का मुक्की में वाम दल, देवेन्द्र यादव और पप्पू यादव के लिए कोई जगह नहीं रह गयी।
आखिर गठबन्धन बना और लालू प्रसाद कुशवाहा, माँझी और सहनी पर ज्यादा मेहरवान होकर इन प्रतियों को ग्यारह सीटें दे दी और कांग्रेस को 9 सीटें। अपने कोटे में से एक सीट माले को जरूर दे दी कि वह अपनी पार्टी के सिम्बल पर नहीं लड़ेगी या तो राजद के सिम्बल पर लड़ेगी या किसी स्वतन्त्र सिम्बल पर। गठबन्धन में माले शामिल होने के बावजूद तीन और सीटों पर चुनाव लड़ रहा है जहाँ गठबन्धन के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं।
लालू प्रसाद के इस गठबन्धन को बनाने के पीछे दो राज छिपे हैं। पहला – उनके दिमाग में 2020 का विधानसभा का चुनाव है जिसमें उन्होंने अपने समीकरण को नया आकार देने का काम किया है। कुशवाहा, माँझी के बहाने अति दलितों और मल्लाहों को साधने का प्रयास किया है। यह प्रयास नीतीश कुमार के अति पिछड़ों के समीकरण के काट के लिए बनाया गया है। संभव है इस लोकसभा के चुनाव में संभावित सफलता न मिले लेकिन विधानसभा जीतने का आधार बन सकता है। दूसरा – ऐसे तो यह चुनाव नीति विहीन, सिद्धान्त विहीन चुनाव है फिर भी लोक-लाज और मनुष्य के जीवन में विवेक और ईमानदारी माने रखती है।
लालू प्रसाद और गठबन्धन में शामिल दलों और उनके नेता मोदी और आरएसएस की नीतियों के खिलाफ होने का दावा जरूर करते हैं लेकिन मोदी सरकार के खिलाफ बिहार में किसी एक व्यक्ति ने जितना संघर्ष किया, लाठियाँ खायी और जेल की सजा काटी – जिसको देश के मोदी विरोधी पार्टियों के नेताओं, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, छात्रों, दलितों और अल्पसंख्यकों ने उनका समर्थन किया – उनके साथ एकजुटता दिखलाई – कन्हैया कुमार को गठबन्धन ने टिकट देने का आश्वासन दिया लेकिन जब अन्तिम निर्णय का समय आया तो उनका नाम काट दिया। गठबन्धन का यह कृत्य एक बड़ा अपराध है। गठबन्धन के माथे पर यह कलंक है – जिसे कभी इतिहास नहीं भूलेगा।
लेखक बिहार के चर्चित राजनीति विज्ञानी तथा बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के प्रान्तीय अध्यक्ष हैं|
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