मुद्दा

कोविड-19 के नामकरण का विवाद

 

मानव समाज में घटनावों का नाम और उनका नामकरण अपने आप में महत्वपूर्ण होता है। केवल ऐतिहासिक कारणों से ही नहीं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो महत्वपूर्ण होती ही है। इसके साथ-साथ नामकरण की एक प्रक्रिया होती है जिसके पीछे कुछ निश्चित कारण निहित होते हैं। और यह नामकरण उन नामों की प्रक्रिया में प्रयुक्त सांस्कृतिक और राजनैतिक कारणों को व्यक्त करने का एक माध्यम बन जाता है। अतः कोई भी नाम केवल एक लेबल मात्र न होकर एक वृहद पृष्ठभूमि को भी प्रतिबिम्बित करता है।

     इसी संदर्भ में नाम को एक सम्पत्ति के जैसे भी देख सकते हैं। जैसे एक ही सम्पत्ति के कभी-कभी एक से अधिक दावेदार उसको अलग-अलग रेफरेंस पॉइंट या परिप्रेक्ष्य में देखते है, वैसे ही एक ही घटना को अलग-अलग संस्कृतियाँ अलग-अलग मानकों से अपने-अपने मूल्यों में निहीत रखती हैं। ऐसे कई उदाहरण उपलब्ध हैं। परन्तु दो उदाहरणों से यह बात कुछ ज्यादा ही स्पष्ट हो जाएगी। एक वियतनाम युद्ध और दूसरा 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध।वियतनाम में किस राष्ट्रपति ने युद्ध ...

     यह आम धारणा है कि 1960 में लगभग 60,000 अमरीकी सैनिक वियतनाम युद्ध में मारे गये। अधिकतर पश्चिमी देशों में भी इसको ‘वियतनाम युद्ध’ के नाम से ही जाना जाता है। जबकि इस युद्ध की एक वृहद राजनैतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि थी और जिसका बदला अमरीका ने रूस से अफगानिस्तान में लिया। तो अफगानिस्तान रूस का वियतनाम बन गया। वो बात फिर कभी। अमरीका में भी यह घटना ‘वियतनाम युद्ध’ के नाम से ही याद किया जाता है, जिसके समर्थक और विरोधी दो अलग-अलग खेमों में बंटे हुए हैं। परन्तु वियतनाम में ‘वियतनाम युद्ध’ जैसा कुछ नहीं है। वहाँ इस घटना को ‘अमरीकी युद्ध’ या ‘अमरीकी प्रतिरोध युद्ध’ के नाम से जाना जाता है।

     यह तो दूर की बात हुई। थोड़ा करीब आते हैं। पचास साल गुजर जाने के बाद भी, 1971 का युद्ध भारतीय उपमहाद्वीप के तीन राष्ट्रों में अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में याद किया जाता है। जहाँ बांग्लादेश में यह युद्ध बंगालियों के पाकिस्तानी उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष के रूप में याद किया जाता है। वहीं अन्य दोनों देशों में यह तीसरे भारत-पाकिस्तान युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। और इस कारण कई बंगलादेशी लोग यह महसूस करते हैं कि इन दो बड़े देशों की युद्ध-प्रसिद्धि विश्वपटल पर उनकी आज़ादी की लड़ाई के योगदान को नजरंदाज़ कर देती है।

     भारत में यह युद्ध एक ऐतिहासिक जीत के रूप में याद किया जाता है, जोकि पाकितान के खिलाफ उसकी फौजी श्रेष्ठता का बखान करती है। जहाँ एक ओर इसे 1962 में चीन से हार के उपरान्त और पाकिस्तान से तीन युद्धों (1948,1965 और 1971) के निरन्तर संघर्षों की सफलता के फल के रूप में देखा जाता है। वही दूसरी ओर यह युद्ध 1947 के भारत-विभाजन का मुख्य दोषी पाकिस्तान को मानते हुए उससे उचित बदले का पर्याय बन जाता है। वहीं पाकिस्तान 1971 की इस घटना को भूलने की कोशिश करता है। इसको एक शर्मनाक हार समझते हुए वहाँ की स्कूली किताबों में इस युद्ध का कोई जिक्र नहीं मिलता है। और तो और पूर्वी पाकिस्तान मे बंगालियों के प्रति अपने फौजी औपनिवेशवाद को भी वह एक सिरे से नकार जाते हैं।आज के दिन ही पाकिस्तान के कर दिए दो ...

     16 दिसम्बर 1971 का एक ही दिन, दो देशों, जो एक ही राष्ट्र से बने है, में अलग-अलग तरीकों से याद किया जाता है। बांग्लादेश में इस दिन को ‘लिबेरशन ऑफ बांग्लादेश’ (बांग्लादेश की आज़ादी) के नाम से जाना जाता है तो वहीं पाकिस्तान में इसे ‘फॉल ऑफ ढाका’ (ढाका का खो जाना) या ‘डिसमेंमबरमेंट ऑफ पाकिस्तान’ (पाकिस्तान का अंग-विच्छेद) के नाम से याद किया जाता है।

तो किसी भी वस्तु का नाम और उसमे प्रयुक्त शब्द मानव समाज में महतवपूर्ण स्थान रखता है। ये शब्द उन चीजों को पारिभाषित करते हैं जिनसे हम इस दुनिया के बारे में जानते और समझते हैं। यह हमारे व्यवहारिक ज्ञान का हिस्सा बन जाते हैं। यह इतने प्रत्यक्ष लगते हैं कि हम इन्हे बिलकुल सही मान लेते है। और कभी अलग से इसके बारे में सोचने की आवश्यकता भी है, ऐसा हम कभी महसूस भी नहीं करते हैं। परन्तु प्रगट रूप से स्पष्ट लगने वाले ‘शब्द’, दरअसल, एक सिमित दृष्टिकोण को ही बयान करते हैं। इसका पता हमें तब चलता है जब हमें ज्ञात होता है कि कुछ दूसरे लोग इस ‘शब्द’ के बारे में कोई दूसरा ही दृष्टिकोण रखते हैं। या फिर जब  समय के साथ-साथ उस ‘शब्द’ में बदलाव आ जाता है।

इसी सन्दर्भ में हाल ही में जो कोरोना वायरस के नामकरण में विवाद हुआ है उसका जिक्र करते हैं। जबकि मेडिकल विशेषज्ञ इस वायरस को इसके औपचारिक नाम, ‘सार्स-कोवी-2’ से और ज्यादातर मीडिया वाले इसको ‘कोविड-19’ से सम्बोधित कर रहें हैं। वहीं कुछ लोग, जिन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी शामिल हैं, इसको लगातार ‘चीनी वायरस’ से सम्बोधित कर रहें हैं। तो कुछ और लोग इसे ‘वुहान वायरस’ और ‘कुंग फ्लू’ के नाम से प्रसारित कर रहे हैं। जहाँ कुछ लोग इसका विरोध दर्ज कर रहें हैं। तो वहीं कुछ लोग इसको सही बताते हुए कह रहे हैं कि चीन ही इस संक्रामक महामारी के लिए दोषी है, क्योंकि चीनी लोग ही तरह-तरह के न खाने वाले जानवरों जैसे, चमगादड़, साँप, और कुत्ता खाते हैं।

ये दूसरी श्रेणी के लोग अपने को ‘भाषायी नस्लवादी’ कहे जाने पर स्वयं को बचाते हुए सफाई देते हैं कि ये ‘शब्द नस्लवादी’ नहीं है। ये वायरस चीन से आया है इसीलिए इसे चीनी कहना गलत कैसे हुआ। और अपने आप को सही ठहराने के लिए ये लोग ‘स्पैनिश फ्लू’ का हवाला देते हुए कहते हैं कि किसी भी महामारी का नामकरण उसके भौगौलिक विस्तार पर करने की प्रथा है।Tick-Borne Virus: कोविड-19 के बाद चीन में नए ...

इस विवाद में उलझने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि अतीत में अन्य बिमारियों का नामकरण कैसे हुआ है। बहुत सारी बीमारियों के नाम इनके लक्षणों को ही प्रदर्शित करते हैं। तपेदिक या क्षय रोग का नाम इस बीमारी में मरीज का अपना बहुत-सा भार खो देने से पड़ा है। अभी भी किसी बहुत ही कमजोर व्यक्ति को समान्य बोलचाल कि भाषा में ‘टीबी के मरीज’ कि संज्ञा दे दी जाती है।

मम्पस या गलसुआ में लार ग्रंथियों में सूजन के कारण चेहरे में सूजन हो जाती है। जिसके कारण मरीज सही से बोल नहीं पाता है और उसके मुँह से ‘गु गु गु’ की आवाज निकलती है। जिसे अंग्रेजी में ‘मम्ब्ल’ कहते है। जोकि खुद डच भाषा के शब्द ‘मोम्पेलेंन’ से बना है। खसरे के संक्रमण में मरीज की त्वचा पर भूरे रंग की धुंधले धब्बे हो जाते है। इसीलिये इस बीमारी को अंग्रेजी में ‘मिस्ल्स’ कहते हैं, जोकि मध्यकालीन अंग्रेजी शब्द ‘मसेलिन’ से आया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है बहुत सारे छोटे-छोटे धब्बे।

पोलियो की बीमारी में वायरस का हमला रीढ़ में स्थित धूसर वस्तु (ग्रे मेटर) पर होता है, जोकि धड़े, अंग, और पसलियों के बीच की गतिविधियों को नियन्त्रण करता। इसके प्रभाव से मरीज को पक्षाघात हो जाता है। और इसी वजह से इसका वैज्ञानिक नाम ‘पोलियोमेलाइटिस’ है जोकि ग्रीक शब्द ‘पोलियो’ और ‘मिलोन’ का मिश्रण है। पोलियो का अर्थ धूसर रंग है। और ‘मिलोन’ मतलब रीढ़ के बीच मज्जा है। सर्दी के सामान्य लक्षण वही है जो ठन्डे इलाकों में रहने वाले लोगों का सामन्य व्यवहार होता है। इसीलिए इसका नाम सर्दी पड़ा है।

वही कुछ और बीमारियों को उनके खोजकर्ताओं के नाम से जाना जाता है। इस सूचि में पार्किन्सन, हंटिंगटन, टोरेट, और क्रोहन बीमारियाँ आती है। 

तो कुछ और बीमारियों के प्रचलित नाम नस्ली पूर्वाग्रह से प्रेरित लगते हैं। 1860 के एक ‘मूर्ख जातिओं के वर्गीकरण’ शीर्षक नामक शोध पत्र में आज जिसे हम डाउन सिंड्रोम के नाम से जानते है उसे मोंगोलिस्म कहा गया है। क्योंकि इस बीमारी में मरीज की शक्ल को एक मंगोल की तरह देखा गया। यह भी महत्वपूर्ण है कि यूरोप, जहाँ की इन बीमारियों पर शोध किया गया था, एशिया और मंगोलों के प्रति पहले से ही नस्ली पूर्वाग्रह से ग्रसित है। उसके अपने सांस्कृतिक और राजनैतिक कारण गिनाये जा सकते है। बहरहाल, यह नाम 1980 के दशक तक चलता रहा। जब इसे इसके खोजकर्ता जॉन लैंगडन डाउन के नाम से पुन नामित किया गया।

जो बिमारियों के नाम नस्ली पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं, वो ज्यादातर अनैतिकता के दायरे में आती हैं। सिफिलिस बीमारी के लिए बहुत से देश अपने पड़ोसी देश के दुश्चरित आचरण को दोष देते थे। जैसे अँग्रेज इसे फ़्रांसिसी बीमारी कहते थे। तो फ़्रांस के लोग इसे ‘लॉ मालाडी अंगलेस’, यानि, अंग्रेजी बीमारी कहते थे। क्योंकि उनकी सीमा स्पेन से भी लगी हुई थी, तो वे इसे ‘स्पेनी पॉक्स‘ भी कहते थे। वही रूस के लोग इसे ‘पोलैंड की बीमारी’ कहते थे। जबकि प्रासंगिक तौर पर अमरीका में सिफिलिस को चेचक के साथ यूरोपीय उपनिवेशक ही ले कर आये थे। तो क्या यही अनुकरण करते हुए इसको हम यूरोपियन संक्रमण कह सकते हैं।Covid-19 test in India: अमेरिका के बाद कोवि़ड-19 ...

तो क्या ट्रम्प ने इसी संदर्भ मे कोविड-19 का नामकरण किया है? फिर कुछ लोग इसके बचाव में कहते हैं कि कई बीमारियों के उनके उद्गम स्थान से ही जाना जाता है। जैसे ‘लाइम’ बीमारी सबसे पहले लाइम, जोकि अमरीका के कन्नेक्टिकट प्रान्त का एक शहर है, मे पाई गयी थी। तो ‘वेस्ट नाइल’ वाइरस को यूगांडा के वेस्ट नाइल जिले मे खोजा गया था। एबोला को कोंगों मे इबोला नदी के पास पाया गया था। और इसी तरह से ‘मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम’ (MERS) को सबसे पहले सऊदी अरबिया मे रिपोर्ट किया गया था।

हालाँकि बचाव पक्ष की यह दलील सही है कि बीमारियों का नामकरण किसी स्थान विशेष से सलंगन रहता है। परन्तु यह नाम ‘स्थान विशेष’ तक ही सीमित रहता है, न कि यह किसी विशेष नस्ली या प्रजातीय तरीके से परिभाषित होता है। तो हम इसे इबोला कहते है न कि ‘कोंगों इबोला’, लाइम बीमारी न कि ‘अमरीकी लाइम’ बीमारी, या ‘अमरीकी बीमारी’। जैसे कि यह कहने मे अन्तर है कि यह वायरस चीन से है, और यह एक चीनी वायरस है।

इसके बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन बीमारियों का किसी स्थान विशेष पर नामकरण करने की निन्दा करता है। और वह मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (MERS) नाम के साधारण जन में प्रचलित होने पर खेद व्यक्त करता है। नयी बीमारी के नामकरण को ले कर उसने अपनी एक मार्गदर्शिका बनाई है। इसके अनुसार नयी बीमारियों के नामकरण मे किसी भी शहर, देश, क्षेत्र, और महाद्वीप, के नाम से बचना चाहिए, क्योंकि यह नाम उन स्थानो को अनुचित रूप से कलंकित करता है। और यह कहते हुए वह लाइम, MERS और स्पैनिश फ्लू का उदाहरण देता है।

स्पेनिश फ्लू का उदाहरण सही माइने चीनी वाइरस के समतुल्य है। और यह क्यों पड़ा उसकी भी एक निश्चित वजह है। ऐसा माना जाता है कि 1918 से 1919 के बीच, इस फ्लू ने लगभग 5 करोड़ लोगों को मृत्यु के घाट उतार दिया था। इस फ्लू की शुरुआत स्पेन में नहीं हुई थी और इसके द्वारा स्पेन से कहीं ज्यादा ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, और अमरीका में लोगों की मृत्यु हुई थी। परन्तु और सभी देशों ने इसके कवरेज पर रोक लगा दी थी। लेकिन स्पेन ने नहीं। तो इसका आंकड़ा स्पेन के मीडिया द्वारा ही सामने आया था।

उस समय लन्दन टाइम्स ने ब्रिटेन में इस फ्लू से मौतों की संख्या को कवर नहीं किया। और इसका नाम ‘स्पैनिश फ्लू’ कर दिया। जो नाम इसके साथ चिपक गया। हालाँकि स्पेन में कई लोग इसे ‘फ़्रांसिसी फ्लू’ के नाम से भी याद करते है। आज स्वस्थ्य अधिकारी अपनी गलती को सुधारते हुए इसे 1918 का फ्लू महामारी या 1918 की महामारी कहते है।

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धनंजय कुमार

लेखक सेंटर फॉर कल्चर एंड डेवलपमेंट, वडोदरा ( गुजरात) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +919427449580, dkdj08@gmail.com
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