कोरोना और गाँव
- मोहन सिंह
कोरोना संकट के 1 महीने से ज्यादा दिन बीत जाने के बाद शहरों की हलचल गाँवों में जैसे ठहर सी गयी है खेती के कार्य आधा अधूरे पड़े है तो किसानों को खाससकर बटाईदार किसानों के सामने ये मुसीबत आ पड़ी है कि उनकी पैदावार का क्या होगा? कानूनी तौर पर सरकारी खरीद के हकदार तो वे नही है लेकिन यह भी एक हकीकत है की इस देश की कुल खेती का 60 फीसदी से ज्यादा बटाईदार किसान ही करते है। प्राकृतिक आपदा के जो मुवावजे मिलते है वो भी उन्हे नसीब नहीं और सरकार का ध्यान भी उनकी ओर नहीं जाता एसे में जबकी प्रवासी मजदूर गाँवों की ओर लौट रहे है खेती की संकट के साथ बेरोजगारी की संकट भी पैदा होने की आशंका को और बल मिला है।
मनरेगा के तहत मजदूरों को कम-से-कम 100 दिन काम देने की उम्मीद की जा रही है स्थानीय स्तर पर उसकी क्रियान्वयन देखने को नही मिल रही, वजह पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था पूरी तरीके से फेल नजर आ रही है। सरकारी आकड़े बताते है कि 14वें वित्त आयोग के सिफारशों के मुताबिक 2 लाख करोड़ से ज्यादा पिछले 5 साल (2015-2020) खर्च किए गए लेकिन किसी भी ग्राम सभा में मानक के अनुरूप काम तो दूर, हर पंचायत का प्रधान, मुखिया अथवा सरपंच भ्रष्टाचार में पूरी तरह लिप्त पाया जाएगा। ऐसे में जबकि हम गाँधी 150वीं जयंती मना रहे है। पंचायती राज को लेकर गाँधी जी के सपनों का बिखर जाना एक बेहद दुखद घटना है।
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कहाँ तो कोरोना महामारी से निपटने में स्थानीय जन प्रतिनिधि संस्थाएँ सरकार के लिए मदद में आगे आती वहाँ ये खुद ही भ्रष्टाचार में लिप्त है। गन्दगी से निजात पाने की उम्मीद हमें स्वच्छ भारत के तहत बनाए जाने वाले शौचालयों से बंधी थी वही हमें गन्दगी देखकर महामारी से और ज्यादा डर लगने लगता है। जाहिर है कि संकट दोहरा है एक ओर महामरी का संकट तो वहीं दूसरी प्रवासी मजदूरों के लिए गाँव में रोजगार के अवसर पैदा करना। मनरेगा उम्मीद के मुताबिक रोजगार पैदा नहीं कर रहा। मौसम के मिजाज के गड़बड़ होने से खेती के उपज सुरक्षित बच जाए इसकी भी चिन्ता है और किसानों के उपज की उचित लाभकारी कीमत मिलने की चिन्ता एक बड़ी चुनौती है।
अन्तर्राज्यीय सीमाएँ बन्द है और नदी मार्ग से भी आवागमन ठप है यह सरकार के लिए बेहद बड़ी चुनौती है कि किसानों से समुचित उपज की खरीदारी के साथ उसकी भंडारण की व्यवस्था हो जाए। कृषि से सम्बन्धित कुटीर उद्योगों से भी अभी कोई ज्यादा उम्मीद नहीं है महामारी के बाद पौल्ट्री उद्योग का करीब-करीब दिवाला ही निकल गया है और निकट भविष्य में भी कोई ज्यादा उम्मीद नजर नहीं आ रही है। इस साल उन किसानों के लिए एक मुसीबत की घड़ी जो गर्मी के दिनों में मक्के की फसल उगाते है उनकी लागत भी मिल जाए तो बड़ी बात है।
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15 अप्रैल के बाद शादी ब्याह के मौसम में बेहद गिरावट दर्ज की जा रही है, बाजार के बन्द होने के कारण शादियाँ टाली जा रही है या बेहद शादगीपूर्ण तरीके से मनाने की तैयारी की जा रही है लेकिन इसमें बाजार की भागीदारी नगण्य है। इसका असर छोटे दुकानदारों कपड़ा व्यापारियों, सुनार, लुहार, कुम्हार, नाई, बढ़ई और इससे छोटे तबके लोगों रोजगार के अवसर छिन रहे है। और बड़े तबके में फिलहाल शादियाँ कराने वाले पुरोहित वर्ग के रोजगार पर भी खासा असर नजर आ रही है। एक तरह से लोगों में आकाल के समय मानसिक उहापोह की स्थिति पैदा कर रहा है एसे ही आकाल की स्थिति में याद आती है गोस्वामी तुलसी दास की पंक्तियाँ- खेती न किसानी को भिखारी को ना भीख भली। बनिक को बनीज न, चाकर को चाकरी। जीविका विहीन लोग सिद्ध मान सोच वश, कहे एक दूसरों से कहाँ जाई का करीं।
गाँव के बुजुर्ग ऐसे समय में बंगाल का आकाल हैजा प्लेग से होने वाली मौतों के हवाले से बताते है कि उससे कठीन समय तो यह नहीं है तब तो मेडिकल की इतनी सुविधाएँ भी नहीं थी। गाँव के गाँव हैजा, प्लेग की बीमारी से असमय काल कवलित हो जाते थे। नौजवान और बुजुर्गों के कंधे अपनों के लाश ढोते-ढोते थक जाते थे इस बार अच्छी खबर तो यह है इस महामारी की वजह से अभी तो लोग नाउम्मीद भी नहीं हुए है, ऐसा भी नहीं है कि लोगों के दिमाग में भविष्य का कोई ब्लूप्रिंट तैयार हो गया है। लेकिन उन्हें सहारा है तो अपने सादगीपूर्ण औऱ किफायती जिन्दगी जीने की और इस संकट के बादल छट जाने के बाद पुन: खुद को खड़ा करने की।
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तकलीफ उन लोगों को ज्यादा है जो पिछले दो-तीन दशकों से ग्रामीण जीवन से और अपने परिवार से कट कर एकाकी जीवन बिताने लगे थे और उसे ही अपने जीवन का उद्देश्य बना बैठे। फिलहाल ऐसे लोगों के फिजूलखर्ची पर रोक तो लेगेगी ही साथ ही दिखावेपन पर भी अपने आप रोक लग जाएगी। तब मजबूरी में नहीं मजबूती के साथ गाँधी याद किये जाएँगे खास कर ऐसे वक्त जब हम गाँधी जी के 150वीं जयंती पर उन्हे याद कर रहे हैं क्योंकि 1909 से लगातार गाँधी दुनिया को हिन्द स्वराज के माध्यम से बता रहे हैं कि अंहिसा, सादगी, स्वदेशी और स्वावलम्बन और प्राकृतिक के साथ समांजस्य बिठाकर जीना ही वास्तविक जीना है। मानविक सभ्यता के इतिहास में जब भी हमने उनकी उपेक्षा की है, प्रकृति ने हमें अपने तरीके से साज दी है इस महामारी से हम कम-से-कम यह सबक तो सीख ही सकते है।
मानव निर्मित कारणों से जो संकट दुनिया के सामने पैदा हो रहा है उसका समाधान भी हमे ही खोजना है। ऐसा क्यों है कि पिछले एक महीने में करीब सभी नदियों के जल प्रदूषण में कमी आई है और देश के सबसे खतरनाक स्तर पर पहुँच चुके दिल्ली में भी वायु प्रदूषण में कमी आई है। इस लॉकडाउन ने हमें सीखा दिया कि जीवन की आपाधापी के बीच में थोड़ा ठहराव भी जरूरी है। इस महामारी ने प्राकृतिक चिकित्सा, घरेलू चिकित्सा और प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए एक अवसर उपलब्ध कराया। इस क्षेत्र में अभी और काम करने की जरूरत है और उम्मीद की जानी चाहिये कि योग के साथ आयुर्वेद की चिकित्सा भी दुनिया के सामने एक मिशाल के रूप में पेश होगी।
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हमारे अनुभव और उम्मीदें ऐसे बुरे वकत में हमारे लिए संबल बनेगे। एक अरसे बाद अतीत से जो एक हमारा रिश्ता टूट सा गया था उसे हम एक नए सिरे से जोड़कर भविष्य की राह तय कर सकेंगे। ऐसी विकट परिस्थिति में सत्ता, प्रशासन और समाज तीनों मिलकर ही इस संकट का मुकाबला कर सकते है, थोड़ी सी लापरवाही और लेट लतीफी पूरी पीढी को अंधेरी गर्त में ढकेल सकती है। ऐसे में प्रशासनिक स्तर पर मुस्तैदी भी उतनी ही जरूरी है, जितनी नितिगत मामलों का क्रियान्यवयन। पंचायती राज संस्थाओं के तमाम खामियों को दुरूस्त करते हुए उनके ऊपर निगरानी रखते हुए सरकारी नीतियों के अनुपालन करने में मददगार साबित हो सकती है। बोर्ड परीक्षार्थियों के नतीजों का अभी इंतजार हो रहा है साथ इनकी भविष्य की चिन्ता भी सरकार को करनी चाहिये।
लेखक गाँधी विचार अध्येता है
सम्पर्क- +917317850267, mohansingh171963@gmail.com
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