कोरोना और अमीरों की बस्ती
- प्रेमपाल शर्मा
भारत के शहरी मध्यवर्ग का जवाब नहीं! कोरोना वायरस और चीन के बारे में यों तो महीने भर से सनसनी चल रही थी लेकिन यह वैसा ही था जैसे कुछ-कुछ भूत प्रेत की सी बातें हों। रात हुई तो भूत और दिन होते ही साफ। उन्हीं दिनों एक सरकारी भर्ती के लिए चल रहे साक्षात्कार में तो एक सदस्य सिर्फ यही कोरोना प्रश्न हर बच्चे से करते थे। लेकिन ज्यों-ज्यों इटली स्पेन इंग्लैंड फ्रांस की खबरें भारत पहुँचने लगी अमीरों को असली भूत का एहसास गरीबों से बहुत पहले होने लगा। कई कारण थे। ज्यादातर के बच्चे इन सभी देशों में हैं। कुछ आने वाले दिनों में बच्चों को वहाँ पढ़ाने के लिए वीजा की लाइन में लगे हुए थे, तो कुछ मई जून की तपती दिल्ली में अपना वक्त रोम और स्विट्जरलैंड में गुजारना चाहते थे।
लेकिन उनकी तत्काल समस्या कुछ दूसरी थी और वो यह कि पूरा लॉक डाउन होने वाला है। यानी किसी को भी आने जाने की छूट नहीं मिलेगी। यहाँ तक कि घर में काम करने वाली बाई, नौकरानी नौकर को भी नहीं। खाते पीते अमीरों की बस्ती की स्मृति में यह सबसे बड़ी विपत्ति थी। हालांकि अभी लॉक डाउन में दो दिन बाकी थी लेकिन उनकी चेहरे पर चिन्ताएँ साफ साफ पढ़ी जा सकती थी। हर तरफ यही खुसुर-पुसुर
आनन-फानन में सोसायटी के हरे भरे गार्डन में मीटिंग बुलाई गयी और उसमें सबसे पहले वे सभी हाजिर थे जो 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी कभी नहीं देखे गए। छूटते ही एक अमीर ने गोला दागा। बाई को बुलाने मैं क्या दिक्कत है? उनके घरों में कोई विदेशी थोड़े ही आते हैं? सरकार ने लाक डाउन इसलिए किया है कि जो विदेश से आ रहे हैं उनके सम्पर्क में कोई नहीं आए। ये तो सुबह आएँगी और काम करके चली जाएँगे। दूसरी अमीरन ने भी हाँ में हाँ मिलाई। एक पुराने अफसर तो ऐसे मौके पर अपनी बायोग्राफी तुरन्त सुनाने लगते हैं कि जब वे कृषि मंत्रालय में थे तो कैसे पूरी पूरी रात ड्यूटी बजाते थे। चौथे अमीर ने 1965 और 1971 की दास्तां सुनाने में पहले 10 मिनट लगाए। अपनी बहादुरी के किस्सों को बीच-बीच में पिरोते हुए कि कैसे हम खाइयो में घुस जाते थे। और फिर निष्कर्ष निकाला कि बाइयों का आना, नौकरों का आना तो उन दिनों भी बन्द नहीं हुआ था। इसलिए हम तो अपनी नौकरानी को बुलाएँगे। इस उम्र में हमसे खाना नहीं बनता। दो अमीरन खुसर पुसर कर रही थी कि हमने तो अभी 10 दिन पहले ही नई बाई लगाई है तो हम घर बैठे पैसे कैसे दे दे?सरकार देना चाहे तो दे! एक अपनी दास्तां और जोरों से बताने लगी कि जब वे सरकारी नौकरी करती थी तो कैसे-कैसे पहाड़ तोड़ ती थी। घंटो तक वाद विवाद चलता रहा और बिना फैसले के मीटिंग खत्म हो गयी। समय की तो चिन्ता उनको थी ही नहीं क्योंकि सभी के घरों में बाइया या तो खाना बना गयी थी या बना रही थी। कुछ तेज पत्रकार किसम के लोगों की सूचना पर कि यह लॉक डाउन और भी लम्बा खिंच सकता है उनकी घबराहट और बढ़ गयी। तुरन्त कई आवाज उठने लगी कि हम भी घर पर रहेंगे, बच्चे भी स्कूल नहीं जाएँगे तब तो खाने वाली, काम करने वाली की जरूरत और भी ज्यादा है इसलिए कोई बुलाए ना बुलाए हम तो बुलाएँगे। सोसाइटी का इसमें क्या लेना देना यह हमारे और हमारे नौकरानी के बीच का मामला है।
लेकिन बाइयों के सामने बड़ा धर्म संकट था। न आए तो नौकरी चली जाएगी और आए तो कैसे आएँ? एक बाई की मालकिन ने बताया कि उसकी मालकिन कह रही है कि तुम सुबह सूरज निकलने से पहले ही आ जाना। मैं तुझे आने जाने का अलग से पैसे दे दूंगी। लेकिन उसकी चिन्ता यह थी कि एक घर में आऊंगी और दूसरे में नहीं आई तो कानपुर वाली तो मेरी जान ही ले लेगी। नौकरी चली जाएगी। बाईया तीन तीन चार चार के झुंड में अलग विमर्श पर जुटी हैं कि किया जाए तो क्या किया जाए? अब मेमसाब और साब को भी तो सरकार घर बैठे पगार देगी . एक बाई कह रही थी कि उसकी मालिकन ने तो आज ही अगले 2 दिन का खाना बनवा लिया है। इस पर दूसरी ने कहा कि मेरी मालकिन भी यही करती है। होली दिवाली की छुट्टी बाद में आती है उस दिन का खाना पहले बनवा लेती हैं। भले ही वह बासी हो जाए और फेंकना पड़े। कई बार तो पूरी सब्जी के डोंगे के डोंगे डस्टबिन में डाल देते हैं। अरे भाई तुम्हें नहीं खाना तो हमें दे दो, गेट पर दे दो, किसी भिखारी को दे दो अन्न का ऐसा अपमान तो मत करो। गोयल साब के घर में तो रोटियों को छत पर डाल देते हैं। पिछले दिनों इसीलिए उनकी छत पर बन्दर आने लगे और उन बन्दरों को रोकने के लिए सोसाइटी में एक लंगूर रखा गया। एक बाई ने बताया कि उस की मालकिन कह रही हैं कि हम तीन घरों ने मिलकर फैसला किया है कि बाइयों को एक-एक करके बुलाया करेंगे। वे तीनों घरों में काम करके चली जाया करेंगी। कार साफ करने वाले ड्राइवरों को भी हम ऐसे ही बुलाएँगे। सरकार अपना काम करें। हमारे काम में दखल न दें। नौकरों के शोषण का दिल्ली का कोपरेटिव फार्मूला।सरकारी आदेश की ऐसी तैसी!
याद आए भारत पाकिस्तान विभाजन के वे भयानक दिन! उर्वशी बुटालिया ने विभाजन के बाद सन् 2000 के आसपास एक किताब लिखी थी जिसमें विभाजन से गुजरे हुए लोगों के अनुभव दर्ज किए गए थे। बताते हैं सब से निश्चिंत पाकिस्तान में शौचालय साफ करने वाले जमादार थे। वे थे तो हिंदू जमादार लेकिन पाकिस्तान के रईसों ने और मुस्लिम लीग के नेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। यहाँ तक कि उन्हें तरह-तरह के लालच देकर रहने को फुसलाया भी गया। उन्हें डर था कि यदि ये काम वाले जमादार चले गए तो हमारी गंदगी कौन साफ करेगा?कोरोना के दौर में वैसी ही स्थिति बाइयों की बन रही थी।वैसे बइयाँ इनके टॉयलेट की तरफ देख भी नहीं सकती .
बस्ती के अमीरों की चिन्ता में कोरोना का कहर नहीं था, बाइयों के न आने का कहर ज्यादा था। फिर कुढ़ा कौन उठाएगा? मेरा तो बच्चा छोटा है! अमुक घर में तो सिर्फ बूढ़े रहते हैं! उनको खाना कौन खिलाएगा?किसी ने कहा भी दो-चार दिन के लिए आप इन बूढ़ों को भी नहीं खिला सकते? और बूढ़े खाते भी कितना है?क्या ऐसे दौर में जरूरी है कि छप्पन भोग बनवाए जाएँ! जिस देश का किसान अपने हाड़ तोड़कर अन्न उगाता है, सब्जियाँ पैदा करता है वहाँ के शहरों के अमीर अपने हाथ से खाना भी बना, खा नहीं सकते! उनकी सोचो जो पाँच 500 किलोमीटर पैदल चलकर अपने परिवार के पास पहुँचना चाहते हैं। कितने हिम्मती और मेहनतकश है यह गरीब!
कोरोना की चपेट में आज पूरी दुनिया आज चुकी है। चीन कोरिया यूरोप अमेरिका से लेकर अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया तक लेकिन छोटे-मोटे कामों को लेकर ऐसा संकट शायद किसी भी समाज के सामने नहीं होगा और न आएगा। भारत-पकिस्तान जैसे कुछ देशों को छोड़कर।
दरअसल ऐसी ऐतिहासिक चुनौतियों के सामने ही सत्ता समाज और तन्त्र की पोल खुलती है। सर्वत्र हाहाकार की सी स्थितियाँ बनती जा रही हैं। हलवाई की दुकान पर काम करने वाले मजदूर कहाँ जाएँ और कहाँ जाएँ सड़क भवन और दूसरे कामों में लगे लोग। गरीब कैसे जिन्दा रहे जिन्हें 2 जून की रोटी का जुगाड़ भी ना हो और वह भी ऐसी अनिश्चितता में! ऊपर से मौत का डर अलग। लेकिन अमीरों की चिन्ता! बाप रे बाप! बाई और नौकरों के बिना जिन्दगी कैसे चलेगी? सुबह की चाय कौन बनाएगा और कौन उनके बच्चे को खिलाएगा? यह सबसे दुखद पक्ष है
चिन्ताओं में यूरोप अमेरिका चीन भी गुजर रहे हैं लेकिन उनके वैज्ञानिक, उनकी प्रयोगशालाये इससे निपटारे के लिए लगातार जूझ रही हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था के चलते हम ऐसे वैज्ञानिक तो बाद में पैदा करेंगे, अभी तो हमारे बच्चे रसोई और छोटे-मोटे काम ही करना सीख ले वही बहुत है। दरअसल इस सबके पीछे लगातार बढ़ती सामाजिक आसमानताएँ हैं। मुगल और अंग्रेजो के समय जो जमीदारी, सामंती व्यवस्था फल फूल रही थी उसे आजादी के बाद न संविधान मिटा पाया न कोई दूसरे उपाय। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का संदेश” डिग्निटी ऑफ लेबर” लगातार छीजता ही चला गया है।
ईश्वर करें यह कोरोना जल्दी ही अपनी मौत मरे। लेकिन इसने भारतीय मध्यवर्ग की विशेष रूप से चूले हिला दी हैं। चूलें तो सभी धर्म गुरुओं की भी हिली हैं जो एक कार्टून में माइक्रोस्कोप में झांकते वैज्ञानिक के पीछे खड़े हुए किसी दवा का इंतजार कर रहे हैं। सब चमत्कार भूल गए और भूलना भी चाहिए। मानव सभ्यता विज्ञान के बूते ही आज यहाँ पहुंची है।
रहीम दास ने ठीक ही कहा है कि रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय, हित अन हित या जगत में जान परत सब कोय। आज पाँचवा दिन है। सरकार की सख्ती को। इसलिए सब कुछ बन्द कर दिया गया है। शुरू में तो नौकरी की धमकी देकर कुछ लोगों की काम वालिया आती रही लेकिन अब सुनते हैं उन घरों के बच्चे भी अपने गिलास उठा कर पानी पीने लगे हैं और चीड़चिड करते बर्तन साफ करने भी। बड़े साहब इस बात पर बड़ा नाज करते थे कि उन्हें चाय बनानी भी नहीं आती। वे चाय भी बनाना सीख गए हैं और फोन पर दिनभर दोस्तों को बताते हैं कि चावल बनाना भी। ज्यादातर मेम साहब खाना बनाना तो जानती थी लेकिन जिस देश में बाई और काम वाली इतनी सस्ती मिल जाए तो वे भी क्यों बनाएँ? अगर वे खाना बनाएँगे तो फिर जिम में जाने के लिए समय कहाँ मिलता! मोबाइल से घंटों बात करने की फुर्सत कैसे मिलती! और किटी पार्टी में फिर कब जाएँगे? कुछ तो सरकारी कर्मियों को अपने घर पर बच्चों को खिलाने और उनकी पॉटी साफ करने के लिए अपने घरों में लगाए रहती थी। सब चौकड़ी भूल गए।
अमीरों को खूब पता है कि जब उनके बच्चे अमेरिका में जाते हैं यूरोप में जाते हैं तो वहाँ हर काम खुद करते हैं लेकिन हिंदुस्तान में वे तब तक नहीं करेंगे जब तक कि कोरोना वायरस इनके घुटने न टिका दें। वाकई एक वायरस ने इन अमीरों को शिक्षा का पहला पाठ सिखा दिया है जो ना गाँधी की नई तालीम सिखा पाई, न टालस्टाय का दर्शन और ना हमारे आईआईटी जेएनयू और आई आई एम के शिक्षा संस्थान।
लेखक पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और जाने माने शिक्षाविद हैं|
सम्पर्क- +919971399046 , ppsharmarly@gmail.com
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