संविदा-सैनिक योजना: सुधारों की स्वाभाविक परिणति !
यह सही है कि अग्निपथ भर्ती योजना संविदा-सैनिक योजना है। यानि 17 से 21 साल की उम्र के युवाओं को चार साल के लिए ठेके पर सेना में भर्ती किया जाएगा। अभी तक सैनिकों को मिलने वाली सुविधाएँ और सामाजिक सुरक्षा के वे हकदार नहीं होंगे। (योजना का बड़े पैमाने पर, और काफी जगह हिंसक विरोध के होने के बाद जिन रियायतों की बात की जा रही है, वह सरकार का उत्तर-विचार (आफ्टर थॉट) है। उसक यह उत्तर-विचार कितना टिकेगा कहा नहीं जा सकता) ठेके की नियुक्ति किस तरह की होती है, देश को इसका पिछले 20-25 साल का लम्बा अनुभव हो चुका है। इस बीच सभी दलों की सरकारें सत्ता में रह चुकी हैं। लिहाज़ा, उस ब्यौरे में जाने की जरूरत नहीं है। जरूरत यह देखने की है कि जब शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई सहित हर क्षेत्र में संविदा-भर्ती पर लोग काम कर रहे हैं, तो सेना की बारी भी एक दिन आनी ही थी।
अग्निपथ भर्ती योजना का आकांक्षियों द्वारा विरोध समझ में आने वाली बात है। लेकिन विपक्षी नेताओं, बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज एक्टिविस्टों के विरोध का क्या आधार है? नियुक्तियों में ठेका-प्रथा नवउदारवादी सुधारों की देन है और हर जगह व्याप्त देखी जा सकती है। क्या सेना में संविदा-भर्ती का विरोध करने वाले ये लोग नवउदारवादी सुधारों के विरोधी रहे हैं? अगर हाँ, तो पूरे देश में इतने बड़े पैमाने पर स्थायी नियुक्तियों की जगह संविदा नियुक्तियों ने कैसे ले ली? अगर यह मान लिया जाए कि उन्हें अन्देशा नहीं था कि मामला सेनाओं में संविदा-नियुक्तियों तक पहुँच जाएगा, तो क्या अब वे इस संविधान-विरोधी प्रथा का मुकम्मल विरोध करेंगे? यानि सुधारों के नाम पर जारी नवउदारवादी अथवा निगम पूँजीवादी सरकारी नीतियों का विरोध करेंगे? अगर वे पिछले तीन दशकों से देश में जारी इस नव-साम्राज्यवादी हमले को नहीं रोकते हैं, तो उसकी चपेट से सेना को नहीं बचाया जा सकता।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, उनके पितृ-संगठन और ‘नवरत्नों’ के सेना के बारे विचित्र विचार सबके सामने रहते हैं – व्यापारी सैनिकों से ज्यादा खतरा उठाते हैं, भारत की सेना के पहले ही आरएसएस की सेना शत्रु के खिलाफ मोर्चे पर पहुँच जाएगी और फतह हासिल कर लेगी, शत्रु की घातों को नाकाम करने के लिए बंकरों को गाय के गोबर से लीपना चाहिए, सैनिकों को प्रशिक्षण और अभ्यास की जगह वीरता बनाए रखने के लिए गीता-रामायण का नियमित पाठ करना चाहिए, शत्रु को मुँह-तोड़ जवाब देने के लिए इतने इंच का सीना होना चाहिए, इतने सिरों का बदला लेने के लिए शत्रु के इतने सिर लेकर आने चाहिए, भारत फिर से महान और महाशक्ति बन चुका है, अब ‘अखण्ड भारत’ का सपना साकार करने से कोई नहीं रोक सकता… और न जाने क्या-क्या! ऐसे निजाम से सेना, वीरता और युद्ध के बारे में किसी गम्भीर विमर्श या पहल की आशा करना बेकार है।
लेकिन सेना के वरिष्ठतम अधिकारियों के बारे में क्या कहा जाए? यह सही है कि लोकतन्त्र में सेना नागरिक सरकार के मातहत काम करती है। इस संवैधानिक कर्तव्य को बनाए रखने में ही सेना का गौरव है। हालाँकि, महत्वपूर्ण और नाजुक मुद्दों पर कम से कम अवकाश-प्राप्त सैन्य अधि कारियों को समय-समय पर अपने विवेक से राष्ट्र को निर्देशित करना चाहिए। सरकार ने अग्निपथ भर्ती योजना की पैरवी के लिए बड़े सैन्य अधिकारियों को आगे किया है। निश्चित ही इस रणनीति का भावात्मक वजन है। तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने समस्त विरोध के बावजूद अग्निपथ भर्ती योजना की शुरुआत की घोषणा कर दी है। यह भी स्पष्ट कह दिया है कि योजना के विरोध के दौरान हिंसक गतिविधियों में शामिल युवाओं को अग्निवीर बनने का अवसर नहीं दिया जाएगा। उन्होंने इसे सैन्य अधिकारियों द्वारा सुविचारित योजना बताते हुए सेना में युवा जोश शामिल करने का तर्क दिया है। बेहतर होता इस सुविचारित योजना के बन जाने के बाद उस पर थोड़ा पब्लिक डोमेन में भी विचार हो जाता। तब शायद योजना के हिंसक प्रतिरोध की नौबत नहीं आती।
सवाल उठता है कि अगर सेना में युवा जोश इतना ही जरूरी है कि उसके लिए हर चार साल बाद नया खून चाहिए, जैसा कि तीनों सेना प्रमुख एवं कुछ अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कह रहे हैं, तो सेना की अफसरशाही में भी यह जोश दाखिल करना चाहिए। सेना के बड़े अफसरों को सब कुछ उपलब्ध है। वे अवकाश लें और नए अफसरों को अपनी जगह लेने दें। नए अफसरों ने उनकी योग्य कमान में हर जरूरी जिम्मेदारी सम्हालने का प्रशिक्षण और कौशल हासिल किया ही होगा। वैसे भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के लिए कई महत्वपूर्ण पद इन्तजार कर रहे होते हैं।
सैन्य अधिकारियों के साथ न्याय करते हुए यह माना जा सकता है कि इस योजना पर आग्रह बना कर वे केवल चुनी हुई सरकार के आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं। योजना को उनका अपना भी समर्थन है। जिस तरह से देश का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व नवउदारवाद का समर्थक है, उसका प्रभाव सैन्य नेतृत्व पर भी पड़ना स्वाभाविक है। जिस तरह सिविल मामलों में पुरानी व्यवस्था के तहत अपनी ताकत हासिल करने वाले अधिकारी गणों को संविदा-भर्ती में खटने वाले युवा-अधेड़ों की पीड़ा नजर नहीं आती, उसी तरह सैन्य अधिकारियों को भी लग सकता है कि सेना का काम बिना दीर्घावधि सेवा (और उसके साथ जुड़ी सेवाओं के) वाले सैनिकों से चल सकता है।
अग्निपथ भर्ती योजना के खिलाफ आन्दोलनरत युवाओं को क्या कहा जाए, कुछ समझ नहीं आता है। हमारी पीढ़ी के लोग उनके अपराधी हैं। यही कहा जा सकता है कि उनका आन्दोलन सही है, हिंसा नहीं। कई युवा आन्दोलनकारियों ने किसान आन्दोलन का हवाला दिया है। उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि एक और लम्बा आन्दोलन खड़ा कर सकें। अभी उनके दूध के दांत हैं, और सरकार ने उनके सामने सेना को खड़ा कर दिया है। फ़िलहाल योजना का विरोध और उनका समर्थन करने वाले उनके भविष्य के साथी बनेंगे, ऐसा नहीं लगता है। और उनके सामने पूरा भविष्य पड़ा है।