प्रेरणा देती है ये छोरियाँ
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फिल्म निर्माता: सतीश कौशिक
फिल्म निर्देशक: राजेश बब्बर
कलाकार : रश्मी सोमवंशी, अनिरूद्ध दवे, जानवी सगवान, अंजवी सिंह हूडा, विधि देशवाल, गौतम सौगात, जगबीर राठी और अन्य
रिलीजिंग प्लेटफॉर्म – ज़ी 5
अपनी रेटिंग: तीन स्टार
हिन्दी सिनेमा में आजकल महिला सशक्तिकरण के मुद्दे छाए हुए हैं। पहले भी इस तरह की फिल्मे आती रही हैं। पिछले साल आई फ़िल्म ‘छोरियाँ छोरों से कम नही होती’ और अब ओटीटी पर रिलीज हुई एक ऐसी ही कहानी को हमारे सामने पेश करती है। और महिलाओं को सशक्त बनाने और लैंगिक समानता में कदम बढ़ाने के विचार को पेश करती है। राजेश अमरलाल बब्बर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में सतीश कौशिक, अनिरुद्ध दवे, रश्मी सोमवंशी मुख्य भूमिकाओं में हैं।
हरियाणा में वैसे भी छोरियों को ज्यादा तवज्जो नही दी जाती है। अब हालांकि हालात बदलने लगे हैं। फिल्म रिलीज के वक्त सतीश कौशिक एक इंटरव्यू में कहते नजर आए थे कि जयदेव चौधरी के किरदार को मेरे लिए निभाना कठिन था, क्योंकि यह एक ग्रे पार्ट था, लेकिन मुझे किरदार की गतिशीलता पसंद थी और एक ठेठ, रूढ़िवादी पिता की भूमिका निभाना वाकई बहुत अच्छा अनुभव था, जो हमेशा परिवार में एक बेटे की चाहत रखता था।
फ़िल्म की कहानी भी एक ऐसे ही बाप की है जिसे बेटे की तमन्ना है लेकिन उसके घर में दो बेटियां हो गई। बड़ी वाली को ब्याहकर घर भेजा तो वहाँ उसके कम पढ़े लिखे होने के कारण रुसवाई झेलनी पड़ी। अब छोटी बहन विनीता जो शुरू से ही लड़कों जैसे व्यवहार करती है। पतंगें लुटती है।लड़कों के साथ खेलती है और लड़कों को पीटती रहती है। विनीता (रश्मी सोमवंशी) किसी से नहीं डरती नहीं अपने आप को लड़कों के बराबर ही मापती है। लेकिन स्कूल पूरा करने के बाद कुछ समय घर में रहती है लेकिन जब एक महिला आईपीएस से मिलती है तो प्रभावित होकर खुद भी उसके जैसा बनना चाहती है और अंत में बनकर भी दिखाती है। कहानी हरियाणा के एक गांव दिनारपुर की है। जहाँ अनाथ विकास(अनिरूद्ध दवे) अपने फूफा के यहाँ रह रहा है। उसके पड़ोस में जयदेव चौधरी (सतीश कौशिक) और सामने जयदेव चौधरी के भाई बलदेव चौधरी (मोहनकांत) रहते है। बलदेव चौधरी धन के मामले में ताकतवर हैं। उनके एक बेटा भी है।
अक्सर जयदेव को बेटियों के होने व बेटे के न होने का ताना भी सुनना पड़ता है। इसलिए जयदेव अपनी बेटियों पर कई तरह की पाबन्दी लगाकर रखता है। इधर एक दिन बलदेव चौधरी, धोखे से जयदेव चौधरी की सारी जमीन हथिया लेता है। तहसीलदार धोखे से जयदेव से जमीन के असली कागज लेकर बलदेव तक पहुंचा देता है। अदालत में जयदेव मुकदमा हार जाता है। वह सारा गुस्सा विनीता पर निकलता है कि यदि उनका छोरा होता, तो वह उसके साथ खड़ा होकर उनके दुःख का भागीदार बनता। पिता के ताने सुनकर विनीता अपने ताउ बलदेव के अखाड़े में जाकर उनके कुश्तीबाजों को पटखनी देकर धमकी देती है। विनीता हर बार अच्छे नम्बर से पास होती है। उसे स्पोर्ट्स कोटे से कॉलेज में प्रवेश मिल जाता है।
इसके बाद कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं। विनीता को आईपीएस की ट्रेनिंग के लिए चुन लिया जाता है। इधर विनीता आईपीएस की ट्रेनिंग के लिए रवाना होती है, उधर जयदेव पश्चाताप की आग में जलते हुए घर छोड़कर चले जाते हैं। वहाँ वे लड़कियों को पढ़ाना शुरू करते हैं। आईपीएस बनने के बाद विनीता चौधरी अपने पिता को उनका खोया हुआ मान सम्मान व जमीन वापस दिलाती है। तो जयदेव कह उठते हैं कि छोरियाँ छोरों से कम नही होती।
हालांकि यह फिल्म पुरूष मानसिकता को बदलने में कारगार तो होती है। लेकिन जमीन वापस दिलाने वाला मुद्दा बस हल्के से छूकर निकल जाता है। वैसे लंबे समय से यह कहा जाता रहा है कि हर लड़की को सपने देखने और अपने उन सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत करनी चाहिए। वही बात यह फ़िल्म भी बताती है लेकिन लेखक व निर्देशक की कुछ कमियों के चलते उतनी प्रभावी नहीं बन पाई। प्रेरणा देने का काम अच्छा है लेकिन फ़िल्म मुकम्मल तौर पर पूरी होती तो और बेहतर होता। वैसे इस साल हुए 67 वें राष्ट्रीय पुरस्कार में इस फ़िल्म को नेशनल अवॉर्ड भी मिला है।
गीत संगीत फ़िल्म में खूब हैं और लगातार आकर फ़िल्म की गति को बनाए रखते हैं। ताकि कोई ऐसा न लगे कि भाषण पेला जा रहा है। फ़िल्म के विज्युलाइजेशन व लोकेशन बेहतरीन रखे गए हैं। लेकिन 3 दशक सिनेमा को देने के बाद भी इसके सतीश कौशिक बॉलीवुड के मोह से उबर नहीं पाते और उसमें मुम्बईया मसाला डाल देते हैं। वहीं निर्देशक के तौर पर राजेश बब्बर यह भूल गए लगता है कि किरदार के रोने से दर्शक नहीं रोया करते। इसके लिए कथन शैली और किरदार इस तरह से गढ़े जाने चाहिए कि सिनेमा देखते समय किरदारों व कहानी के साथ जुड़कर दर्शक की आंखों से स्वत: आंसू आ जाएं।
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महिला सशक्तिकरण के नाम पर फ़िल्म की लीड एक्ट्रेस को सुपर हीरो की तरह पेश किया गया है। तमाम कमियों व कमजोरियों के बावजूद इस फिल्म को हर किसी को देखना चाहिए। रश्मी सोमवंशी अच्छा अभिनय करती नजर आती है। अनिरुद्ध देव के हिस्से करने को कुछ खास नहीं रहा, पर कुछ दृश्यों में उसके चेहरे के भाव बहुत कुछ कह जाते हैं। दंगल में ताऊ आमिर खान पूछते हैं ‘म्हारी छोरियाँ छोरों से कम हैं के…? तो वहीं यह हरियाणवी फिल्म उसी के जवाब में कहती नजर आई कि ‘छोरियाँ छोरों से कम नहीं होतीं।’ साल 2016 में ‘सतरंगी’ फ़िल्म आने के बाद मुकम्मल तौर पर अब जाकर कोई हरियाणवी फिल्म रिलीज़ हुई है। तो देखिए जरूर।