
नीतीश कुमार के फिर से सत्ता में आने के बाद बिहार की राजनीति में बहुत कुछ होता दिखा। पहले नीतिश सरकार ने शराबबंदी पर मोर्चा खोला तो साल 2018 की शुरूआत में ही बाल विवाह व दहेज प्रथा के खिलाफ। नाम दिया गया मानव श्रृंखला।
शराबबंदी के समर्थन में बनाई गई मानव श्रृंखला ने बिहार सरकार को उड़ने के लिए जैसे पंख दे दिये थे, लेकिन ऐसा लगता है कि दहेज प्रथा के खिलाफ बनाई गई मानव श्रृंखला ज्यादा जोर नहीं पकड़ पायी।
चूक कहां हुई यह तो सरकारी तंत्र बताएगा, लेकिन इन पंक्तियों के लेखक ने बिहार के अररिया जिला के फारबिसगंज अनुमंडल में 21 जनवरी को खुद श्रृंखला में शामिल होकर यह जानने की कोशिश की कि हमारे नेतागण और आम जनता दहेज प्रथा के विरोध के लिए कितने समर्पित हैं। यह भी जानने की कोशिश की गई कि क्या नेतागण सही मायने में अपने आला नेताओं के आदेश का पालन कर रहे हैं? या फिर वे सिर्फ रस्म अदायगी के लिए, आलाकमान के डंडे के डर से इस तरह की मानव श्रृंखला में शामिल हुए?
सबका अंदाज जुदा-जुदा था. सबके अंदाज जुदा-जुदा थे. सब वहां थे, लेकिन वहां कोई भी नहीं था. सभी फोटो खिंचाने की होड़ में लगे दिखाई दे रहे थे. जिधर भी कान लगाईए, उधर से आवाज आ रही थी – ‘‘लाईव कर दो, लाईव’’, ‘‘अरे, फेसबुक पर डाल दो’’, ‘‘पत्रकार साहेब, हमारा भी फोटो ले लीजिये’’ इत्यादि। आश्चर्य सिर्फ यही नहीं था, हद इस बात की थी कि दहेज प्रथा के खिलाफ मानव श्रृंखला तो बनाई गई लेकिन किसी भी नेता ने दहेज प्रथा के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा. किसी ने दहेज प्रथा के विरोध में किसी ने नारेबाजी नहीं की.
दूसरों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले नेतागण खुद ही अस्त-व्यस्त से खड़े रहे. बच्चों को सब ज्ञान दे रहे थे, लेकिन खुद पर अमल कोई भी नहीं कर रहा था.
लेकिन इसके बावजूद दहेज प्रथा के विरोध में निकाली गई मानव श्रृंखला की खास बात क्या रही?
जी हां. खास बात तो थी, और वो थी- टोपी की होड़। किसी की टोपी हरी, तो किसी की भगवा। किसी के सिर पर जदयू की टोपी तो किसी के सिर पर भाजपा की।
कुछ ही महीने पहले जदयू और राजद के कार्यकर्ता और नेता गलबहियां डाले खड़े दिखाई देते थे, लेकिन इस बार वाली मानव श्रृंखला में हाथ में हाथ तो डले थे, बस टोपी का रंग बदला हुआ था. राजद-जदयू की जगह जदयू-बीजेपी के कार्यकर्ताओं और नेताओं की गलबहियां दिख रही थी. तीर छाप वाली टोपी कलम छाप के साथ मैच कर रही थी. ये बात मानव श्रृंखला में शामिल नेतागण भी महसूस कर रहे थे. एक नेता कह रहा था- ‘‘दोनों टोपी तो एक ही है, कोई भी पहन लो.’’
नेता जी ज्ञान दे रहे थे और आम इंसान सोच रहा था, दोनों टोपी एक कैसे हो गयी? हालांकि वो ये भी समझ रहा था कि ये राजनीति है. बिहार की राजनीति. जिस राज्य को कभी राजनीति की पाठशाला माना जाता था, उस बिहार की राजनीति. जहां बैलेट और बुलेट एक दूसरे के पर्याय समझे जाते थे, उस राज्य की राजनीति.
बिहार का युवा आज भी शिक्षा के लिए दूसरे राज्यों में जा रहा है. पढ़ाई के साथ रोजगार के अवसर तलाश रहा है, और यहां आज भी टोपी के रंग बदलने पर किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. राजनीति है, होती रहेगी. लेकिन कभी तो बदलेगी. क्योंकि उम्मीद जिंदा है.
आयुष अग्रवाल
लेखक युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ‘एक पहल’ नाम की संस्था के संस्थापक हैं.
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