स्त्री मन के कोनों को तलाशती ‘बुलबुल’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
निर्माता : अनुष्का शर्मा, कर्णेश शर्मा
निर्देशक : अन्विता दत्त
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : तृप्ति डिमरी, अविनाश तिवारी, पाउली दाम, राहुल बोस, परमब्रत
रिलीजिंग प्लेटफॉर्म : नेटफ्लिक्स
अपनी रेटिंग : 3.5
हिन्दी सिनेमा में कई हॉरर फिल्में आईं और गयी लेकिन कोई भी फ़िल्म ज्यादा समय तक दिमाग में और हमारे शैदाई दिलों में जगह नहीं बना पातीं। पहले के समय में हॉरर को दिखाने का तरीका कुछ अलग था जिसमें गहरे पुते चेहरे, विकृति अंग-भंग जैसा कुछ होता था। परन्तु अनुष्का शर्मा की परी और सोहम शाह की तुम्बाड़ ने इस तरह से डरावनी फिल्मों को दिखाने का तरीका बदला है। अब बात करें बुलबुल फ़िल्म की तो अंग्रेजी में इसका नाम थोड़ा अजीब सा है। लेकिन हमें नाम से क्या हमें तो काम से मतलब है।
तो फ़िल्म में एक छोटी बच्ची है बुलबुल जिसे डरावनी कहानियां सुनने में मजा आता है। उसका हमउम्र उसका देवर उसे कहानी सुनाता है और अंत में वह खुद ही उस डरावनी कहानी की चुड़ैल बन जाती है। लगता है कुछ ज्यादा ही गहराई से आत्मसात कर लिया उसने कहानी को। लेकिन ऐसा नहीं है दरअसल फ़िल्म हॉरर के बहाने से स्त्री मन के कोनों को भी समझाती है।
फ़िल्म की कहानी है 1881 के गुलाम भारत के बंगाल की। हमारे देश में जितनी मान्यताएँ देवी देवताओं को दी गयी है उतनी ही भूत-प्रेत और चुड़ैल को भी। फ़िल्म में एक छोटी बच्ची है जिसकी शादी उसकी उम्र से तीन,चार गुना बड़े आदमी इंद्रनील से शादी हो जाती है। उस वक्त में हमारे देश में ऐसा होता भी था। इंद्रनील का जुड़वा मंदबुद्धि भाई महेंद्र है और उसकी पत्नी बिनोदिनी और एक छोटा भाई सत्या है जो बुलबुल का हमउम्र है।
उसकी शादी भले ही बड़े उम्र के आदमी के साथ होती है लेकिन वह कहती है कि मेरा पति तो मेरा हम उम्र है। इसके बाद कहानी बीस साल की पलटी खाती है और जंगल में बसे गांव और हवेली के लोगों की अचानक मौतें होने लगती है। कुछ कहते हैं चुड़ैल ने मारा है तो कुछ और। इधर बुलबुल सत्या को पसन्द करने लगती है और यह बात इंद्रनील को पसन्द नहीं आती। वह सत्या को लंदन भेज देता है। और अपनी पत्नी की टाँगे तोड़ देता है। पाँच साल बाद जब सत्या लौटता है तो बुलबुल एक रहस्यमय औरत में बदल जाती है और कहानी नया मोड़ लेती है।
खैर लॉक डाउन के समय में ओटीटी पर आई इस फ़िल्म को अब तक आप लोग देख ही चुके होंगे नहीं देखी तो देख सकते हैं। फ़िल्म को लेकर एक लोचा है कि ट्रेलर में हमें जो नजर आता है फ़िल्म उसके कहीं उलट ही देखने को मिलती है। इसलिए इसे मात्र हॉरर फ़िल्म कहना भी गलत होगा।
फिल्म की कहानी ज्यादा ठीक नहीं है। फ़िल्म के किरदार के आपसी रिश्ते कहानी को जरूर विशेष बना देते हैं। फ़िल्म में कुछ कुछ हजम भी नहीं होता मसलन ज्यादा ही लाल रंग का प्रयोग करना। एक चुड़ैल को गोली लगना आदि। इस तरह की कमियां फिल्म लेखन की कमजोरी को दर्शाते हैं।
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उस दौर में महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को फिल्म जरूर प्रमुखता से उठाती है। जो आज भी वैसे ही प्रश्नचिन्ह बने हुए हैं। कहानी से फ़िल्म कुछ नया पेश नहीं कर पाती और क्लाइमैक्स में आकर कमजोर हो जाती है। हॉरर फिल्मों की इसे एक बड़ी कमी भी कहा जा सकता है। निर्देशन के मामले में अन्विता दत्त ने कहानी को लोकातीत अंदाज में कहा है। उस दौर को भी अच्छे से पर्दे पर दिखाया गया है जिससे हम फ़िल्म के साथ जुड़े रहते हैं।
बड़ी हवेली, घने जंगल, धोती-कुर्ते में बंगाली बाबू, साड़ी-गहने, आलता लगाए बंगाली बहू, पालकी उठाने वाले, घोड़ागाड़ी, सफेद साड़ी में लिपटी सिर मुंडी विधवाएं, ये सब हमें उस कालखंड का बखूबी अहसास करवाती है।
तकनीकी रूप से फिल्म मजबूत है। बैकग्राउंड म्यूजिक भी ज्यादा लाउड नहीं है ऐसी फिल्मों में जैसा म्यूजिक होना चाहिए उसका खास ख्याल रखा गया है। सिनेमाटोग्राफी, सेट, लोकेशन्स, कास्ट्यूम अच्छा है। खास करके फ़िल्म का वीएफएक्स गजब लगा जो असल लोकेशन का आभास कराता है।
तृप्ति डिमरी लीड रोल में हैं और उन्होंने अपने अभिनय के जरिये अपना प्रभाव छोड़ा है। वे अभिनय से कहीं ज्यादा अपनी आँखों से ही प्रभावित करती हैं। डबल रोल के साथ राहुल बोस न्याय करते नजर आए हैं और पाउली दाम, परमब्रत चटर्जी भी असर छोड़ते हैं। परमब्रत को हिन्दी फिल्मों में आगे भी काम करना चाहिए।
एक और बात न जाने किसने ये कहा कि चुड़ैल के पांव उल्टे होते हैं। वह लोगों के मांस को उनके लोथड़ों को खाती है। जिसने भी कहा उसने तो सच में चुड़ैल को देखा नहीं होगा। क्योंकि कोई चुड़ैल को देख ले और जिन्दा बच जाए ऐसा हो सकता है? इस तरह के शब्द व्यभिचार में लिप्त औरतों के लिए जरूर इस्तेमाल किया जाता है। फ़िल्म में एक संवाद है जिसके अनुसार लड़की के पाँव में बिछिया इसलिए पहनाई जाती है ताकि वह उड़ न जाए लेकिन क्या आप इन बिछिया से उन्हें उड़ने से रोक सकते हैं? नहीं। इसका उदाहरण भी महिलाओं ने दिया है।
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