कथित अकथित

बनारस तब और अब

 

हाल के कुछ वर्षों के दौरान बनारस काफी चर्चा में रहता आया था। केन्द्र तथा राज्य- दोनों ही सरकारों का इस नगर पर विशेष ध्यान था। मुख्य मन्दिर परिसर के साथ-साथ घाटों तथा नगर के विकास और सौन्दर्यीकरण के बारे में पढ़ने, सुनने और टेलीविजन पर देखने को भी काफी कुछ मिल जाता था। लेकिन मेरे मन मस्तिष्क में बनारस की वही पुरानी छवि बैठी हुई थी। वैसे यह उत्कंठा निरन्तर ही रहती थी कि जिस बनारस में आए बदलाव के बारे में इतना कुछ बताया जाता रहा है उसे एक बार जाकर देखना तो बनता ही है।

इसी साल जुलाई में मुझे बनारस जाने का मौका मिल ही गया- अपने पुत्र विशाल और पौत्र वेदांत के साथ- साथ में विशाल के एक मित्र भी थे और उनका नाम भी विशाल ही था। हम सभी ने दिल्ली से शिवगंगा एक्सप्रेस पकड़ी जो रात आठ बजे दिल्ली से चलकर दूसरे दिन सबेरे बनारस पहुंचती है। मैने बनारस को लेकर पहला बदलाव महसूस किया कि वैसे तो पहले भी यह शहर देश के शेष भाग से रेल मार्गों द्वारा बहुत ही अच्छी तरह से जुड़ा हुआ था मगर अब इसमें और भी बेहतरी आई है और बनारस आने जाने के लिए कई नयी और अधिक गतिशील ट्रेनें शुरू हो गई हैं। दूसरे दिन सवेरे जब मैं मडुवाडीह उतरा जो पहले एक छोटा सा स्टेशन हुआ करता था मगर अब यह एक बड़े स्टेशन में बदल चुका है। स्टेशन का नाम भी अब मडुआडीह से बनारस हो चुका है। यानि बनारस नगर में अब तीन स्टेशन हैं- वाराणसी, काशी और यह नया स्टेशन बनारस।

शहर के अंदर साफ-सफाई की स्थिति काफी अच्छी हो गयी है। सड़कें भी पहले से बेहतर  और साफ-सुथरी हैं। लेकिन स्थानीय आवागमन की व्यवस्था बहुत कुछ पहले जैसी ही है। रिक्शों और ऑटो की बहुतायत है। हाँ, पहले जहाँ तांगे चला करते थे आज वहाँ बैटरी चालित ऑटोरिक्शा आ गए हैं और ओला ऊबर वाली टैक्सियाँ भी खूब दौड़ रही हैं। जिस ‘बनारसी एक्का’ पर कभी हिन्दी के प्रख्यात व्यंग्यकार बेढब बनारसी ने ललित निबंध लिखा था वह अब बीते दिनों की बात बन चुका है।

मुख्य काशी विश्वनाथ के मन्दिर क्षेत्र का काफी विकास हुआ है। मन्दिर के चारो ओर एक भव्य परिसर बन चुका है और मन्दिर के प्रांगण से ही घाट तक जाने के लिए एक मनोरम कारीडोर भी अस्तित्व में आ गया है। दर्शनार्थियों की भारी भीड़ को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए अच्छी खासी व्यवस्था हो गयी है और उनके बीच धक्कामुक्की नहीं होती।

मन्दिर के बाहर मेन रोड का बाज़ार बहुत बदल चुका है। सड़कें चौड़ी हो गई हैं और गुलाबी नगर जयपुर की तर्ज पर यहाँ भी दोनों तरफ की दुकानों और घरों को एक ही रंग और यहाँ तक कि एक ही बाह्य शैली में लाने का काम चल रहा है। वैसे बनारस की प्रसिद्ध और जीवंत गलियाँ आज भी वैसी ही हैं। उनमें ज्यादा कुछ बदला नहीं है। बनारसी कचौड़ी जलेबी की पुरानी संस्कृति वैसे तो अपनी जगह कायम है, मगर उसमें मोमो और नूडल्स की सैंध अब लगती जा रही है।

पुराने ज़माने में मैंने जिस बनारस को देखा था उसकी तुलना में लगता है भीड़ अब बीस गुनी ज़रूर  होगी। इसमें मन्दिर के नए परिसर से जुड़ी लोक उत्सुकता का भी खासा योगदान रहा होगा। मन्दिर परिसर के आसपास की सड़कों पर चल पाना अब बहुत सहज नहीं रह गया है। दर्शनार्थियों में मुझे पहले की तुलना में  दक्षिण भारतीय लोगों की संख्या में बहुत बढ़ोत्तरी दिखी।  बनारस भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और भारतीय धर्म और संस्कृति में इसकी महत्ता को देखते हुए देश के हर भाग के लोगों की उपस्थिति यहाँ स्वाभाविक है। शायद देश की अखंडता और एकता को अक्षुण्ण और सशक्त बनाए रखने में बनारस, उज्जैन, द्वारका, रामेश्वरम इत्यादि नगरों की भी बहुत बड़ी भूमिका है।

बनारस का प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट संध्या काल में अब विशेष आकर्षण का केन्द्र है और इसका कारण है यहाँ होने वाली संध्याकालीन गंगा आरती। यह आरती स्वयं में एक अत्यंत ही भव्य दैनिक आयोजन है- श्रव्य और दृश्य दोनों ही प्रकार से। इसे देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ प्रतिदिन उमड़ पड़ती है जिनमें विदेशी पर्यटकों की संख्या अच्छी खासी होती है। इस भीड़ में हर प्रयोजन के लोग थे। कुछ उत्सुकता वश आए थे, कुछ चाक्षुण तोष के लिए और कुछ आध्यात्मिक अनुभूति की तलाश में। एक बड़ी संख्या तीनों प्रकार के मिले जुले भावों वाले लोगों की भी रही होगी। इतना अवश्य है कि इस संध्या आरती में शामिल होना एक विशेष प्रकार के ऐसे अनुभव से गुजरना है जिसमें हज़ारों लोगों की सम्मिलित सहभागिता होती है- ‘सं वो मनांसि जानताम्’ का आर्षवाक्य अपने मूर्त रूप में चरितार्थ हो जाता है।

दूसरे दिन सवेरे दशाश्वमेध घाट पर हम दुबारा आए। सूर्योदय हो चुका था और सूर्य की किरणें गंगा नदी के जल से परावर्तित होकर इस पावन नदी की जलराशि को एक दिव्य और अनिर्वचनीय सौन्दर्य प्रदान कर रही थीं। सच! यह अप्रतिम दृश्य अभी भी वैसा ही था जैसा मैं बाल्य काल से ही देखता आया था। यदि हम इस पवित्र नदी को मानव की स्वार्थ परता, हृदय हीनता और लोलुपता से बचा पाए तो यह अवर्णनीय सौन्दर्य हमारी अगली पीढ़ियों’ के लिए संरक्षित रह पाएगा। अपने इसी अकथनीय सौन्दर्य के कारण बनारस की सुबह हमेशा से प्रसिद्ध रही है ‘सुबहे बनारस शामे अवध’ एक मशहूर लोकोक्ति है। इसकी वजह है, बनारस में गंगा नदी का उत्तरायण होना, यानि बनारस में गंगा पूरब से पश्चिम की ओर प्रवाहित न होकर उत्तर से दक्षिण की और बहती हैं और इसी कारण से यह प्रातःकालीन सूर्य द्वारा कुछ अलग और अनोखे तरीके से प्रकाशित होती है।

सुबहे बनारस भले ही अभी अपने अनोखे सौन्दर्य के कारण अपनी पारंपरिक साख को अक्षुण्ण रख पा रही हो मगर अब घाटों की स्थिति में परिवर्तन आ चुका है। आजकल घाटों पर स्नान संभव नहीं है और नाव से उस पार जाकर  ही  स्नान करना होता है। मैंने इस बदलाव पर ध्यान देते हुए दल बल के साथ नाव से उस पार जाने का मन बनाया। उस पार घाट जैसा कोई निर्माण नहीं है, बस बालुका राशि है और किनारे से लगभग 20-25 फीट की दूरी तक पानी की गहराई बहुत नहीं है।

काशी विश्वनाथ मन्दिर के प्रांगण में एक नन्दी की एक बड़ी सी मूर्ति हैं जहाँ से पड़ोस में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद की झलक दिखाई दे जाती है। वह दिन बकरीद का था और कुछ मुस्लिम जन मस्जिद में त्योहार के अनुरूप अपनी पारंपरिक वेषभूषा में आए हुए थे। उन्हें देखते ही दर्शनार्थियों के किसी जत्थे  के चंद मनचले युवकों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाना शुरु कर दिया। मुस्लिम जनों ने इसकी अपेक्षा नहीं की थी और हतप्रभ थे। जब तक वे कुछ प्रतिक्रिया कर पाते और  बात बिगड़ती, मन्दिर में तैनात अर्ध सैनिक दस्ते के जवान तुरंत हरकत में आ गए। उन्होंने पहले तो नारा लगाने वाले युवकों को शान्त किया और उसके बाद एक तिरपाल डाल कर मस्जिद को दृष्टि से अवरुद्ध कर दिया। बात आई गयी हो गई मगर जवानों की सतर्कता और चुस्ती सराहनीय थी।

मेरे अंदर छुपा पत्रकार निरन्तर अपना सर उठाता रहता था। मैंने बनारस में हो रहे निरन्तर बदलाव पर कई लोगों से अनौपचारिक बातचीत की। अधिकतर लोग नगर की प्रगति और विकास से संतुष्ट नजर आए मगर एक सज्जन की टिप्पणी थी कि पर्यटकों से सम्बन्धित स्थानों और सड़कों के विकास पर तो काफी काम हुआ है लेकिन रिहाइशी इलाकों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। एक और व्यक्ति ने अपने सुझाव में कहा कि पर्यटन को ध्यान में रखकर तो भरपूर काम किया जा रहा है मगर बनारस के निकटवर्ती इलाकों में उद्योग-धंधों का और विकास भी उतना ही जरुरी है ताकि नौजवानों के रोजगार की सम्भावनाएँ बढ़े।

मन्दिर परिसर के नवनिर्माण और नगर के सौंदर्यीकरण के कारण पर्यटकों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है और इस कारण से पर्यटन तथा इससे जुड़े उद्योगों जैसे होटल, रेस्टोरेंट, स्थानीय परिवहन इत्यादि को बहुत प्रोत्साहन मिला है। उपहारों और सौगातों से जुड़े स्थानीय कुटीर उद्योगों ने भी पर्यटकों की बढ़ती संख्या का अच्छा खासा  लाभ उठा‌या है। इस प्रकार का लाभ हर जाति और संप्रदाय के लोगों को मिलना स्वाभाविक है।

हमारी दो दिवसीय बनारस यात्रा इस प्रकार सम्पन्न हो गई और हम वापस दिल्ली आ गए- कुछ समय पूर्व शुरू हुई वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन से, जो अभी देश की तीव्रतम ट्रैन है। लेकिन बनारस की विकास यात्रा लगातार रूप से जारी है। शायद आगे आने वाले दिनों में जब फिर बनारस जाने का अवसर मिलेगा तो और ओ सकारात्मक बदलाव देखने को मिलेंगे

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धीरंजन मालवे

लेखक प्रसिद्द मीडियाकर्मी हैं। सम्पर्क +919810463338, dhiranjan@gmail.com
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