पति द्वारा बलात्कार : अधिकार या अपराध
किसी भी व्यक्ति का शरीर एक ऐसे किले की भांति होता है जिसका सम्पूर्ण स्वामी वह व्यक्ति है। उस व्यक्ति की अनुमति के बिना उस किले को हाथ भी लगाना, यहाँ तक कि उस पर कुदृष्टि डालना एक शत्रुतापूर्ण कृत्य माना जाता है, सामाजिक और कानूनी – दोनों ही दृष्टियों से। ऐसे में किले में जबरन और अनाधिकार प्रवेश तो एक अक्षम्य और जघन्य अपराध माना ही जाना चाहिए।
बलात्कार किसी मानव का दूसरे मानव के साथ किए जाने वाले नृशंसतम अपराधों में एक है। कई अर्थों में यह हत्या से भी क्रूर कृत्य है। यह अपराध पीड़िता के न केवल शरीर को क्षति पहुँचाता है बल्कि उसकी आत्मा को भी क्षत-विक्षत करता है। पीड़िता के मानस को जो आघात पहुँचता है उसका घाव जीवन भर बना रहता है और अपने मवाद के साथ रिसता रहता है। पीड़िता कभी भी स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाती। यहाँ तक कि अपने पुरुष रिश्तेदारों और कार्यालय के सहकर्मियों के साथ उसके सम्बन्ध असहज होते हैं। और वह उन पर कभी भरोसा नहीं कर पाती। आस्था और विश्वास का उसका आन्तरिक आधार बिखर चुका होता है, दीवार ढह चुकी होती है। वह अपने रिसते जख्म के साथ जीने को अभिशप्त होती है।
अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए भारतीय दण्ड संहिता में इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। सामान्यतः इस अपराध के लिए कम से कम सज़ा सात साल का सश्रम कारावास है, जो कतिपय विशिष्ट परिस्थितियों में कम से कम दस साल भी हो सकता है। अगर न्यायालय चाहे तो इस अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा भी दी जा सकती है। मगर पति द्वारा बलात्कार को कानून किस नज़र से देखता है? भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 बलात्कार को परिभाषित करती है और इस धारा के अन्त में एक अपवाद का जिक्र है। जिसके अनुसार बलात्कार करने वाला यदि पीड़ित का अपना पति हो और पीड़िता की उम्र यदि 15 साल से कम नहीं हो तो पति के इस कृत्य को बलात्कार नहीं माना जाएगा। यदि हम धारा 375 और 376 को साथ-साथ पढ़ें तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि पीड़िता की आयु यदि 15 वर्ष से कम भी हो लेकिन 12 साल से कम नहीं हो तो पति के कृत्य को बलात्कार तो माना जाएगा मगर सजा की अवधि दो साल से अधिक नहीं होगी। हाँ! यदि पीड़िता की आयु 12 साल से कम है, तो बलात्कारी पति को एक सामान्य अपराधी के रूप में ही देखा जाएगा और उसे वहीं सजा मिलेगी जो बलात्कार के आम अपराधी को मिलती है।
ऊपर वर्णित 15 वर्ष की न्यूनतम आयु को लेकर कानूनी विवाद पैदा इस वजह से हुआ क्योंकि लड़की के ब्याह की न्यूनतम आयु 18 साल है। एक और कारण बना लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012, जिसे पोक्सो एक्ट के नाम से भी जाना जाता है। इस कानून के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के बालक (नारी या पुरुष) के साथ बलात्कार को अपराध माना गया है, चाहे बलात्कारी अपना पति ही क्यों न हो। अलग-अलग कानूनों में विरोधाभास को 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने सुलझाते हुए यह स्थापना दी कि 18 वर्ष की कम आयु की स्त्री के साथ उसका अपना पति भी अगर जबर्दस्ती करता है तो उसे बलात्कार का अपराधी माना जाएगा। हाँ! अठारह या इससे अधिक आयु की स्त्री के पति द्वारा बलपूर्वक बनाया गया शारीरिक सम्बन्ध अपराध की कोटि में अभी भी नहीं आता।
पति द्वारा बलात्कार से पीड़ित स्त्री को थोड़ी बहुत राहत घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, जिसे डॉमेस्टिक वायलेंस एक्ट के नाम से भी जाना जाता है, द्वारा भी मिल सकती है। इस अधिनियम की धारा 3 घरेलू हिंसा को परिभाषित करती है और इस परिभाषा के दायरे में जबरन शारीरिक सम्बन्ध बनाना भी शामिल है। लेकिन यह एक कमज़ोर कानून है और इसमें कारावास जैसे दण्ड का प्रावधान नहीं है। इस कानून का उद्देश्य पीड़क और पीड़िता को परामर्श देने, पीड़िता को संरक्षण देने, धरेलू संपदा में पीड़िता के अधिकारों की रक्षा करने और पीड़क से पीड़िता को हरजाना दिलाने तक ही सीमित है।
पिछले दिनों पति द्वारा बलात्कार का आपराधिक पक्ष अखबारों की सुर्ख़ियों में था जब नारी अधिकारों और मानवाधिकारों से जुड़ी कतिपय स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा दायर की गई याचिकाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा विचार किया जा रहा था। याचिकाओं में न्यायालय से प्रार्थना की गई थी कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा के उस अपवाद को निरस्त कर दिया जाए जिसके अनुसार पति अपनी पत्नी के साथ बलात्कार अपराध की श्रेणी में नहीं आता। याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय के दो न्यायधीशों द्वारा विचार किया गया। ये दोनों न्यायधीश एक निर्णय पर एकमत नहीं हो पाए और दोनों ने ही अलग-अलग और परस्पर विरोधी निर्णय दिए।
दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के दो न्यायधीशों में से एक न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने अपना फैसला याचिकाकर्त्ताओं के पक्ष में सुनाया। न्यायमूर्ति शकधर के अनुसार धारा 375 के अपवाद का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव के विरुद्ध अधिकार), अनुच्छेद 19(1) (ए) (संभाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वाधीनता का अधिकार) का अतिक्रमण करता है।
न्यायमूर्ति शकधर के अनुसार यदि महिला मित्र या बिना विवाह साथ रह रही महिला के साथ सहमति के बिना यौनाचार अगर बलात्कार माना जा है तो ब्याहता पत्नी के साथ यही व्यवहार बलात्कार क्यों नहीं माना जाना चाहिए। इनका मत है कि बलात्कार मानवाधिकार का घनघोर हनन है और इसे दण्डनीय अपराध माना जाना चाहिए चाहे ऐसा करने वाला अपना पति ही क्यों न हो। लेकिन खण्डपीठ के दूसरे न्यायधीश न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर ने धारा 375 के अपवाद को असंवैधानिक मानने से इन्कार कर दिया और इसे तर्कसंगत और न्यायोचित ठहराया। इनके अनुसार, यदि इस अपवाद को निरस्त किया गया तो इससे विवाह की व्यवस्था पर ही कुठाराघात होगा। पति द्वारा जबरन यौनाचार किसी अन्य द्वारा किए गए कुकृत्य से गुणात्मक रूप से भिन्न है और दोनों को समान धरातल पर रखना एक भूल होगी। विवाह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें दोनों पक्षों को यह न्यायसंगत अधिकार है कि वे अपने जीवन साथी से यौन सम्बन्ध की अपेक्षा रखें। यह अपेक्षा तब अनुमान्य नहीं होती जब बलात्कारी और पीड़िता एक दूसरे के साथ विवाह के बन्धन में बंधे नहीं होते। यदि स्त्री और पुरुष वैवाहिक बन्धन में बंधे हुए हैं तो इसका अर्थ यही होता है कि स्त्री ने सोच-समझ कर और अपनी इच्छा से ऐसे बन्धन में बन्धना स्वीकार किया है जिसका यौन सम्बन्ध एक अहम हिस्सा है। अपने इस निर्णय से स्त्री ने अपने पति को यह अधिकार दिया है कि वह उस स्त्री के साथ एक सार्थक वैवाहिक सम्बन्ध की अपेक्षा रखे।
न्यायमूर्ति हरिशंकर ने अपने फैसले में यह भी कहा कि धारा 75 को निरस्त करना उस बच्चे के साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा जिसका जन्म पति के बलपूर्वक यौनाचार के परिणाम स्वरूप होगा। अपवाद के निरस्तीकरण के बाद यदि पत्नी अपने पति पर बलात्कार का मुकदमा चलाती है और यदि पति को अन्ततः सजा हो जाती है तो वह संतान आजीवन इस कलंक के साथ रहेगी कि उसका पिता एक बलात्कारी था। क्या यह उस भावी शिशु के मानवाधिकार का हनन नहीं होगा?
जैसा कि स्पष्ट है, खण्डपीठ के दोनों न्यायधीशों के परस्पर विरोधी फैसलों के कारण मसला ज्यों का त्यों बना हुआ है। खण्डपीठ ने यह आधिकारिक रूप से प्रमाणित किया है कि इस मुकदमे के साथ कानून से सम्बन्धित महत्वपूर्ण प्रश्न जुड़े हुए हैं और इस कारण से यह सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत करने योग्य है। सम्बन्धित पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच चुके हैं। अब यह देखा जाना है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मुकदमे से जुड़े सवालों का समाधान क्या निकालता है।
मेरे अपने मतानुसार किसी भी स्त्री के साथ पशुवत व्यवहार को कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता, चाहे ऐसा व्यवहार करने वाला स्त्री का अपना पति ही क्यों न हो। लेकिन यह भी सच है कि यदि कोई स्त्री अपने पति के विरुद्ध मुकदमा दायर करने का निर्णय लेती है तो इसमें कई कानूनी अड़चन भी हैं। पहली समस्या है अपराध को तर्कसंगत सन्देह से परे प्रमाणित करने की। अगर आरोपी पति के अलावा कोई अन्य व्यक्ति है तो यदि डाक्टरी जाँच शारीरिक सम्बन्ध को प्रमाणित करता है और पीड़िता का बयान यदि विरोधाभासों से मुक्त है तो इसे अपराधी को दंडित करने का पर्याप्त प्रमाण मान लिया जाता है। मगर यदि आरोपी स्वयं पति ही हो तो डाक्टरी जाँच का बतौर सबूत वह महत्व नहीं रह जाता। ऐसे में शारीरिक सम्बन्ध सहमति के साथ था या इसके बिना, इसका सारा दारोमदार केवल पत्नी के बयान पर आकर टिक जाता है। कथित अपराध का स्थल पति पत्नी का अपना ही शयन कक्ष होता है, जहाँ किसी गवाह की गुंजाइश नहीं है। ऐसे में किसी भी अदालत द्वारा आरोपी को दंडित कर पाना आसान नहीं होगा।
दूसरी समस्या है इस कानून के दुरुपयोग की संभावना की। ऐसे में हम भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए का उदाहरण ले सकते हैं। इस कानून को इस उदात्त उद्देश्य से लाया गया था कि दहेज के नाम पर पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा किसी स्त्री को प्रताड़ित किए जाने से रोका जा सके। मगर यह प्राय: ही देखा गया है कि पति और पत्नी के बीच आपसी रंजिश की हालत में पति और उसके परिवार वालों को सबक सिखाने के लिए इस कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है।
तीसरी समस्या कानून की अपनी सीमा से जुड़ी हुई हैं। यह अपेक्षा करना बहुत सही नहीं होगा कि मानव समाज की हर समस्या का समाधान मात्र कानून और न्यायालय ही है। समाज को सुचारू रूप से चलाने में इनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है लेकिन अब इन पर बोझ इतना बढ़ चुका है कि न्याय व्यवस्था धीरे-धीरे चरमराने की दिशा में बढ़ रही है। ताजा आंकड़ों के अनुसार देश के विभिन्न न्यायालयों में कुल चार करोड़ सत्तर लाख मामले लंबित हैं। ऐसे यदि कोई मुकदमा दायर होता है तो वह वर्षों घिसटता रहता है और वादी एवं प्रतिवादी के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मुकदमे की ही भेंट चढ़ जाता है। बेहतर होगा कि हर समस्या का हल न्याय व्यवस्था में ढूँढने की बजाय देश और समाज की अन्य संस्थाओं और व्यवस्थाओं जैसे पुलिस, समाज, शिक्षा प्रणाली, धर्म इत्यादि को भी इस ओर सक्रिय होना चाहिए।
अभी तो ऐसा ही लगता है कि अत्यंत जटिल सवालों से जूझते इस मुद्दे पर कोई ऐसी स्थापना दे पाना, जो मुद्दे से जुड़े सभी पहलुओं को संज्ञान में ले पाता हो, सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक चुनौती भरा काम होने वाला है।