पूरी फ़िल्मी है रे! ये अतरंगी रे
जब ‘अतरंगी रे, नाम सुना था तो जाने क्यों गुलजार का लिखा ‘दिल से’ फिल्म का गीत याद आ गया ‘तू ही तू, तू ही तू सतरंगी रे’ संगीतकार थे, ए आर रहमान। लेकिन जब फिल्म के अंत में Film By में सबसे पहले ए आर रहमान का नाम पढ़ा, जो फिल्म के संगीतकार भी हैं, तो मैं चौंक गई, और मेरी शंका या संदेह कुछ इस तरह दूर हुआ कि अपने ‘दिल से’ के प्रसिद्ध गीत की तर्ज पर उसे भुनाने की चाहना में यह नाम रख दिया होगा। अब इस अतरंगी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई यह काम भाषा वैज्ञानिकों का है, हालांकि इसे आप एक फिल्मी शब्द कह सकते हैं, जो आपको हिन्दी शब्दकोशों में नहीं मिलेगा। अगर मिले तो बताइयेगा।
फ़िल्मी सन्दर्भों में अतरंगी आप एक ऐसे व्यक्ति को कह सकतें हैं जो अपने किस्म का अनोखा, असाधारण और निराला है, सनकी-सा किसी से नहीं डरता। फिल्म का शीर्षक अगर फ़िल्मी है तो फिल्म भी पूरी फिल्मी ही होगी। जो विशुद्ध मनोरंजन हेतु बनाई गई है। अत: इस फिल्म को यदि देखना है, तो कहते हुए दु:ख हो रहा है कि अपना दिमाग साइड पर रखें, जैसे डेविड धवन की फ़िल्में देखते हुए करतें हैं।
दु:ख इसलिए कि कथानक जिसे फ़िल्मी भाषा में प्लाट या थीम कहते है, बहुत ही महत्वपूर्ण और गंभीर मुद्दे लिए हुए है। जैसे कि एक इंटरव्यू में अक्षय कुमार भी कहतें हैं कि फिल्मकार आनंद एल राय विशुद्ध रूप से वास्तविक मुद्दों और असल जिंदगी से जुड़े हुए विषयों पर फिल्म बनाते हैं लेकिन फ़िल्म को अतरंगी बनाने के चक्कर में इस वास्तविकता में कल्पना का ऐसा अनोखा रंग डाल दिया कि यथार्थ कहीं उड़ गया और गंभीर मुद्दों को अत्यंत फूहड़ता के साथ हँसी में उड़ा दिया। अत्यंत गंभीर सामाजिक समस्याओं जैसे बिहार में पकड़ुवा ब्याह, अंतरजातीय विवाह, ऑनर किलिंग और एक बच्ची की मानसिक बीमारी यानी स्किजोफ्रेनिया को कहानीकार हिमांशु और आनन्द एल राय सामने रख भर देते हैं और रोमांस तथा कॉमेडी के तड़के में दर्शकों का ध्यान भी नहीं जाता।
एक छोटी बच्ची जिसकी आंखों के सामने उसके माता-पिता की ऑनर किलिंग हो जाती है और वह एक ऐसे वहम या कल्पना के साथ जी रही है। मनोविज्ञान के भाषा में जिसे स्किजोफ्रेनिया कहते हैं, जिसमें मरीज वास्तविक दुनिया से कट जाता है। कल्पना और यथार्थ के अंतर को समझ नहीं पाता और अपने विचारों को उसी हिसाब से व्यवहार में करता है। एक मानसिक समस्या की गंभीरता को समझे बगैर उसे हँसी में उड़ा दिया गया। ठीक उसी प्रकार जैसे हमारे समाज में चलन है कि किसी की कमी का मजाक बना दिया जाता है। जिसके सिर पर बाल नहीं तो उसे गंजा कहकर हँसी का पात्र बना दिया जाता है।
नहीं मालूम फिल्म में मजाक मरीज रिंकू का बनाया गया है या हमारे देश के मनोचिकित्सकों का। क्योंकि यहाँ मानसिक व्याधि को गंभीर समस्या माना ही नहीं जाता। सभी को एक सिरे से पागल कह दिया जाता है तो भला मनोचिकित्सक को कोई कैसे गंभीरता से लेगा। आज हमारा दर्शक विवेकवान और बौद्धिक भी हो रहा है। हर विषय को वह स्वीकार करने हेतु उसकी रूचि में बदलाव आ रहा है तब उसे वापस इस तरह फ़ूहड़ता की ओर ले जाने का क्या मतलब? ऐसी उम्मीद सिर्फ बॉलीवुड से ही की जा सकती है कि धनुष जैसे कलाकार को बेसिर-पैर के हँसी-मजाक में शामिल कर लिया।
बिहार के पकड़ुआ ब्याह की डोर थामकर फिल्म आरंभ कर दी गई। इस थीम पर एक टीवी सीरियल प्रसारित हो चुका है और ‘जबरिया जोड़ी’ (यानी मजबूर दंपत्ति) के नाम सिद्धार्थ और परिणीति चोपड़ा की एक फिल्म भी आ चुकी हैं। रिंकू सूर्यवंशी की शादी उसकी नानी सीमा विश्वास तमिल भाषी विष्णु यानी धनुष से जबरदस्ती करवा देती है। जबकि विशु लव मैरिज करने जा रहा है बावजूद इसके जाने क्यों है रिंकू से प्यार कर बैठता है।
मगर विशु के लिए विडंबना तब शुरू होती है जब रिंकू बताती है कि वह किसी सज्जाद अली से प्यार करती है और बड़े उत्साह से बताती है कि वह प्यार भी क्या प्यार हुआ जहां पर मार कुटाई ना हो। 1-2 के खून ना हो जाए, मोहल्ले में दंगे ना हो जाए आदि आदि। रिंकू अपनी प्रेम कहानी के कारण ख़ून-ख़राबे वाले पक्ष को जैसे बताती है, वह चाहे कितना ही सामाजिक गंभीर मुद्दा क्यों ना हो सुनकर सब हँस देतें है और बात ख़त्म।
बिहार में पकड़ुवा ब्याह जिसमें लड़के को डरा धमकाकर, अगवा कर शादी करवा दी जाती है। सामाजिक सहभागिता के चलते पुलिस भी कार्यवाही नहीं करती। लेकिन अफसोस इस कुप्रथा पर भी फिल्म आगे कोई प्रकाश नहीं डालती। बल्कि कहीं ना कहीं नायक विशु का अपनी इस जबरदस्ती की पत्नी के प्रति स्नेह हो जाना, प्रेम हो जाना लगता है कि उसे इस तरह के पकड़ुआ ब्याह में उसे कोई आपत्ति नहीं थी। अजीब है जबकि नफरत और डर के आधार पर स्थापित ऐसे रिश्ते पति पत्नी विशेषकर लड़की के लिए कितना पीड़ादायक होता होगा। फ़िल्म पकड़ुआ ब्याह की कुप्रथा पर स्वीकृति की मोहर लगाती जान पड़ती है।
धनुष का दोस्त आशीष वर्मा पुरानी फिल्मों की तरह घोषित कॉमेडियन की तरह रखा गया है जो मनोचिकित्सक है लेकिन रिंकू के लिए उसका इलाज बिल्कुल फिल्मी अंदाज में होता हैं। आपने कई फिल्में देखी होंगी जहां पर नायिका मरने जा रही है और नायक उसे ज़ोर से थप्पड़ मारता है! लो जी हो गया इलाज! वैसा ही इलाज विशु रिंकू के साथ अपनाने की कोशिश करता है, अपने सिर पर 21 बोतलें फोड़कर।
रिंकू और सज्जाद का प्रेम वास्तव में रिंकू की मां और सज्जाद का ही प्रेम है, जिसे वह छोटी बच्ची जी रही है क्योंकि उसने हमेशा सज्जाद अली और अपनी माँ को प्यार करते देखा है, उनकी जिंदगी के विविध रंगों को देखा है, खुशियों को देखा है लेकिन उसी बच्ची रिंकू ने उन दोनों को (उसके माता-पिता) जिन्दा जलते हुए भी देखा है, जिसे वह विस्मृत नहीं कर पा रही है। समझ नहीं पा रही है। वह छोटी बच्ची बड़ी ही नहीं हो पा रही है। अंतिम दृश्य में जब सज्जाद छोटी बच्ची को गोदी में लेकर जाते हुए कहता है कि अब नहीं आऊंगा, फ़िल्मी अंदाज़ में इसका अर्थ है कि रिंकू अब ठीक हो गई है। तभी विशु प्लेटफार्म पर सबको मिठाई बांटते हुए कहता है, ‘मेरी पत्नी वापस आ गई है’।
डिजनी हॉटस्टार पर यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ आपका मनोरंजन करेगी वैसे भी बॉलीवुड फिल्मों से संदेश की तो उम्मीद कम ही होती है। फिल्में और उनसे जुड़ी बातें मात्र फिल्मी नहीं होती, उनमें सामाजिक सरोकार खोजने की कोशिश भी होनी चाहिए और फिल्म को फिल्म की तरह देखो यह तर्क अब स्वीकार्य नहीं रह गया। छोटी बच्ची रिंकू जो अब युवा हो चुकी है लेकिन मन से बच्ची ही है। उसके साथ एक करुणा का भाव फिल्म के अंत में रेलवे स्टेशन वाले सीन में उपजता है, करुणा जो पूरी फिल्म में सिरे से गायब है।
फिल्म का अंत जो रेलवे स्टेशन पर फिल्माया गया है। पूरी फिल्म का सबसे बेहतरीन दृश्य है जब अक्षय कुमार कहता है कि ‘तुम्हारी मां बहुत बहादुर थी’ और पितृसमाज की खूबी है कि उसे बहादुर लडकियाँ रास नहीं आती। हालांकि ओनर किलिंग के लिए रिंकू की नानी ने इतना इंतजार क्यों किया कि आज उसकी 12-13 साल की एक लड़की भी है। बेटी के प्रेमी पति सज्जाद अली को जलाने के क्रम में बेटी भी जलकर मर जाती है। और दर्शकों से उम्मीद की जा रही है कि दिमाग घर पर छोड़ कर आयें पर यह फ़िल्म तो घर ही पर OTT प्लेटफार्म पर देखी जा रही है।
भाई एक लड़का जो डॉ. है, लव मैरिज करने वाला है, जाने क्यों ‘जबरदस्ती ही सही पत्नी है हमारी’ कहकर उसे अपने साथ ले जाता है। नहीं पता कि लड़कों के होस्टल में लड़की को रहने की अनुमति मिलती है क्या? तमिलनाडु का विशु दिल्ली के मेडिकल कॉलेज से फाइनल ईयर का स्टूडेंट है। दो-तीन दिन में उसकी शादी होने वाली है लेकिन बिहार गया क्यों, यह नहीं बताया और क्या वास्तव में बिहार में नेटवर्क की स्थिति इतनी खराब है कि उसे टेलीफोन के पोल पर चढ़कर फ़ोन करना पड़ता है। अतिवादिता की हद है, बड़ा ही मूर्खतापूर्ण दृश्य था वह। और इतना तो अतरंगी रिंकू को भी मालूम होगा कि रेलवे स्टेशन से कोई ट्रेन जापान नहीं जाती होगी पर वह चली गई है। यह सोच कर के वहां सज्जाद मिल जाएगा।
अब आप कहेंगे कि हम फिल्म क्यों देंखे? तो इस फिल्म में मनोरंजन के लिए आपको रोमांस, इमोशन, ड्रामा, कॉमेडी, थ्रिलर सभी कुछ मिल जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण आपको रांझणा वाले अत्यंत मासूम धनुष आपको यहां पर भी मिल जाएंगे। आपको धनुष से कोई शिकायत नहीं होगी वे बेहतरीन कलाकार हैं अपने रोल को बखूबी निभाया है। जहां तक बिहार के सिवान की रिंकू यानी सारा अली खान की बात है उन्होंने कोशिश तो बहुत की है लेकिन उन्हें किसी ने बताया ही नहीं गया कि वे इससे भी बेहतर कर सकती हैं। निर्देशक को कट करने की जल्दी थी, उनके काम को मानो जल्दी में निबटा दिया गया। यह सोच कर कि कौन समय खराब करें।
जादूगर के रूप में अक्षय कुमार का जादू भी चल ही निकला। संगीत ए आर रहमान का है ‘चक्का चक्क’ गीत लज्जा फिल्म के ‘बड़ी मुश्किल बाबा बड़ी मुश्किल गोरे गोरे गालों पर काला काला तिल’ की याद दिलाता है, डांस भी कुछ-कुछ वैसे ही करवा दिया सारा से। एक बात जरूर कहूँगी कि बमुश्किल OTT प्लेटफार्म ने दर्शकों की रुचि का परिष्कार करना आरम्भ किया है, नये कलाकारों के साथ और नये विषयों को दर्शक हाथों हाथ ले रहें है इसलिए भी यह फिल्म मेरी दृष्टि में हमारे दर्शक को औसत से भी कम समझने की गलती कर गई। हाँ, हँसने हँसाने के लिए फिल्म देखी जा सकती है बाकी आप समझदार हैं।