स्त्रीकाल

स्त्री पुरूष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से – मुंशी प्रेमचन्द

 

मैं धरा हूँ, मैं जननी, मैं हूँ उर्वरा
मेरे आँचल में ममता का सागर भरा
मेरी गोदी में सब सुख की नदियाँ भरी
मेरे नयनों से स्नेह का सावन झरा
दया मैं, क्षमा मैं, हूँ बह्मा सुता
मैं हूँ नारी जिसे पूजते देवता – शशि पाधा

देखा गया है कि कितना भी देवी माना, बनाया गया फिर भी महिलाओं की स्थिति सुधर नहीं रही। आज भी वह कहीं न कहीं उपेक्षित और प्रताड़ित हैं। जरूरत है बनी बनायी उन छवियों को तोड़ने की जो चली आ रही है परम्परागत रूप से। हमें इन छवियों को खुद से अलग करना होगा। हमें यह बताना होगा कि हम देवी नहीं है एक मनुष्य है हाड़ मांस के साधारण से इंसान। परी नहीं है जिसे हर वक्त सुंदर होने की सुंदरता के मानक पर कसा जाये। महान भी नहीं हूँ और उतनी भी बेचारी नहीं जो यह बतलाकर हमें कमतर बताया जाये। निसहाय बेसहारा तो बिल्कुल भी सिद्ध ना किया जाये। कोमल कहकर बराबरी की जंग में पीछे हटने को ना कहा जाये। लड़की अपने सुख-दुख , भला-बुरा बखूबी जानती है वह अपने निर्णय लेने में सक्षम है।

आज भी इतने दशकों के बीत जाने पर भी हमारे समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव होता है। संघर्षों और आंदोलनों के बावजूद वो आज भी हाशिये पर हैं। अभी भी महिलाएँ बराबरी के हक़ से वंचित है। अपने आसपास समाज में हो रहे इस भेदभाव को कतई हम नकार नहीं सकते। आधी आबादी की आजादी का सच यही है कि अभी भी इस आधी आबादी को आजादी नहीं मिली है और इस कड़वी सच्चाई से हम अपना मुख नहीं मोड़ सकते।

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ज्वलंत सवाल यह है हमारे सामने क्या 21वीं सदी का जो भारत है महिलाओं बालिकाओं की स्थिति आज भी क्यूँ नहीं बदली है? थोड़े बहुत परिवर्तन या छुटपुट बदलाव से नहीं होगा। हम ऐसे कैसे आज़ाद भारत की कल्पना कर सकते हैं। जरूरत है इतिहास, भूगोल, और अर्थशास्त्र की किताबों, बनी बनायी परिपाटियों को धवस्त करने की। इनके संवेदनशीलता को समझने की, इन्हें मनुष्य शब्द पढ़ने की तभी इनके विजय की बात हो सकती है। इसके पश्चात हीं हम एक बेहतर समाज उनके लिए बना सकते है। जहाँ वह स्वतन्त्र होगी अपने मन की करने की,इच्छा को पाने की। और खुलकर कह सकेंगी मैं स्त्री, मैं शक्ति, मैं विश्वास, मैं आजाद, मैं घर की धूरी, मेरे बिना सब है अधूरी और संस्कृत में कही गयी पंक्तियाँ भी सिद्ध हो जाएँगी। जहाँ कहा गया है ”न स्त्रीरत्न्नसमं रत्न्नम” मतलब स्त्रीरत्न्न के समान और कोई रत्न नहीं है।

महिलाओं की आजादी तभी मानी जाएगी जब घर, परिवार, समाज, देश दुनिया सभी जगह हर वर्ग की महिलाओं को आजादी हासिल हो। सच्चाई तो यही है कि इस आजादी को पाने के लिये आज भी जूझना पड़ रहा है। मशक्क़त करनी पड़ रही है। जब यह आजादी मिलेगी तभी समाज, परिवार हर रिश्ते में बंधी महिलाओं की आजादी मानी जाएगी। वरिष्ठ कवयित्री सुमन केशरी कहती हैं — स्त्रियाँ हैं और यह एक अहम मुद्दा है, किन्तु हम इसी के साथ सचेत,ठोस और सार्थक नागरिक भी है, दुनियावालों यह जानों और फिर आओ बराबरी के धरातल पर बात करते हैं। फिलहाल कानून चाहे जो कहे, हमारे समाज की कड़वी सच्चाई यह है कि आज कानून बनने के बाद भी बेटियों, बहुओं , बहनों को संपत्ति में हक़ बराबर का नहीं मिल पा रहा। लड़की कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी तो जो भी आधी हिस्सेदारी उसमें अपना हक़ पाएगी। सवेक्षा से देने की बात छोड़िए। यह हम देखकर रहें कि कितनी महिलाएँ कोर्ट का दरवाजा खटखटा पाती है या उन्हें मनमर्जी से मिल गया होता है या मिल रहा है। इस हकीक़त से हम सभी रूबरू है।

यहाँ मुझे वसीम ताशिफ़ जी के कहे बोल याद आ रहे वो कहते हैं ” मेरी हर नज़्म लड़कियों पे निसार , मेरी हर शेर औरतों के लिए। मैं कहती हूँ यही बातें उनके हक़ और अधिकारों पर भी लागू हो तब क्या हीं असर हो घर समाज में महिलाओं की स्थिति पर। खै़र अभी हम सिर्फ सपना ही देख सकते है। जमीनी हकीक़त क्या है हमसे और आपसे छुपी हुई नहीं है। कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है अपना हिस्सा लेने, खुद का हक़ माँगने के लिए यह तो उस समय पता चलता है जब बेटियाँ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाती है। हमारे यहाँ की कानून प्रक्रिया इतनी लंबी है कि इंसान की आधी उम्र निकल जाती है। एक अकेली औरत को बच्चे को लेकर लड़ना , बोलना, माँगना कितना महँगा पड़ता है ये तो उस लड़की के मुँहज़बानी सुनी जानी जा सकती है या हमारे आसपास भी कितनी महिलाएँ रहती है जो कुछ समय बाद थक हार जाती है और लड़ना माँगना बंद कर देती है। हारकर उन्हें उन्हीं परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है। लेकिन असली सवाल तो ये है कि क्यों उन्हें समझौता करना पड़े? कितना अच्छा हो कि बिना लड़े उन्हें उनका वाजिब हक़ मिले बिना समय गंवाएँ।

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आज भी समाज की कड़वी सच्चाई यही है कि जमीन, सारी खेत, सारी संपत्ति, बेटे, पति, पुरूष के हीं अधीन होती है। अधिकतर पर उन्हीं का नाम होता है। महिलाओं को संपत्ति में बराबर हिस्सा देने वाले लोग कम हैं कम हीं सुना। मुझे लगता है सबसे बड़े बदलाव की जरूरत तो यहीं है। बदलाव इन्हीं कामों और घर से क्यूँ ना कि जायें? लैंगिक समानता की शुरुआत घर से हीं क्यूँ ना हो? कई घरों में आज भी लड़कियों की तुलना में लड़को को प्राथमिकता दी जाती है। दोनों को समानता देनी होगी, तभी गाँव, समाज, देश, परिवार लड़कियों महिलाओं के विकास की यह लड़ाई समानता बराबरी के पथ पर आगे बढ़ सकेगी।

और एक बात जो अब तक नहीं बदली हम कितने भी आधुनिक क्यूँ ना हो गए हो पर व्यवहार में उसे अपनाने में अभी भी वह समय दूर है। औरतों को हीं कुसूरवार ठहराया जाता है अगर कुछ भी रिश्ते में ऊंच नीच हो जाती है। रिश्ते बिगड़ते है रिश्ते नहीं चलते घूम फिर उन्हीं के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया जाता है इसलिए जिंदगी में हो रहे तमाम दुर्गति को सहती है ना चाहते हुए भी अपने जीवन में। मैं तो कहती हूँ अन्याय किसी भी कीमत पर हमें सहन नहीं करनी चाहिए क्योंकि हम फिर आनेवाली पीढ़ीयों की लड़कियों को देखने सुनने के लिए क्या छोड़ जाएँगे? इसलिए हो रहे अत्याचारों का विरोध हम सबको करना चाहिए। लेकिन शुरू तो पहले अकेले हीं से की जाती है फिर साथ देने को हाथ मिलते जाते हैं। थामते हाथ हीं बार बार इस आधी आबादी की जीत को मुक़्कमल करेंगे।

और एक बात जो मैंने देखी समझी आज भी लड़कियाँ अपनी जाति से बाहर शादी नहीं कर सकती अपने मनपसंद साथी का चुनाव नहीं कर सकती। सही ये होता कि उन्हें तय करने दिया जाता वो क्या चाहती है, चुनने दिया जाता उनकी अपनी इच्छा जो कि सबसे अहम बात है और एक सवाल शादीशुदा महिलाओं के जब घर टूटते है अधिकतर उन्हें हीं समझाया जाता है समझौतों के लिए और रिश्ते न चल पाने की जवाबदेही भी उसके ऊपर छोड़ दी जाती है। अगर हिम्मत कर खुद का वह निर्णय ले भी ले तो परिवार छोड़ भी दे हमारा यह समाज उसे कसूरवार ठहराने में पीछे नहीं रहता। मौजूद रहता है हर वक्त उससे सवाल करने के लिये बुरा बताने के लिए। वह नहीं चाहती फिर भी एहसास कराया जाता है तानों को मारकर जहाँ भी वो कहीं हो। मैंने खुद देखें हैं और इसलिए यह मेरा खुद का अनुभव है यह विचार है दुख, पीड़ा,अपमान, और अब्यूसिव रिश्तों के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। समाज परिवार के लोगों की सोच में बदलाव बहुत कम हुआ है। जो कि यह बदलाव व्यवहारिक स्तर पर होना चाहिए था और परिवार समाज में हमें सबसे ज्यादा इसी की आवश्यकता है।

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जब तक लड़कियाँ खुलकर नहीं बोलेंगी अपनी बात नहीं रखेंगी उनकी कोई नहीं सुननेवाला। उनको अपना हक़ चाहे छीनकर, माँगकर जैसे भी हो बुलन्द आवाज़ कर हिम्मत से लड़कर लेना हीं होगा। आज भी बोलती लड़कियाँ घर बारह नहीं सुहाती उन्हें झगरालू, मुँहफट करार दे दिया जाता है अधिकांश घर की यही कहानी है। कम ऐसे केसेज देखने को मिलते होंगे जहाँ यह ना कहा सुनाया जाता हो। मैं तो कहती हूँ अपनी चुप्पी को तोड़िए एक होइए, संग बोलिए ना कि इस लड़ाई को अपनी दूसरी सोच, विचार हरक़तो बोली वचन से कमज़ोर कीजिए। क्योंकि हम ऐसे ही पितृसत्तात्मक वैमनस्यता, पेट्रिआर्कि के खिलाफ़ लड़ बोल सकते हैं अपने हक़ो अधिकारों की इस लड़ाई को एक होकर मजबूत कर सकते है और हमारी यही मजबूती एक दिन हमें अपने अधिकार दिलवाकर रहेगी।

अंत में यह कहकर अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगी फ़िलहाल इस वक्त जो बहुत ज्यादा जरूरी है इस समय के लिये। महिला अधिकारों की रक्षा व सुरक्षा का संकल्प करते हुए नारी शक्ति को सलाम करते हुए बोलों की बोलने के लिये शब्द आज़ाद है हमारे। यह बताओ सबको कि हम आज़ाद है अपना हर पक्ष रखने के लिए। बोलना जरूरी है हमारे सबके लिए वहाँ जहाँ हमें कमतर, कमजोर बताने पर तुली हो सारी दुनिया। यूँ कब तक हम चुप्पियों का थामें रहें। ख़ामोशी के पहरे के साये में रहे। गर ख़ामोश है सही बातों के लिये तो कमज़ोर कर रहे है खुद की लड़ाई को, कहीं ना कहीं सभी की लड़ाई को।

अपनी सबकी लबों के आजादी की लड़ाइयों को, महिलाओं के हकों में उठती आवाज़ो को। यह ना समझों कि यह करने से हमारे तुम्हारे घर के ये गुलशन बर्बाद होंगे। ग़र हिम्मत है आपमें तो उठा लो शब्द का ढाल खुद को बचाने को शब्दों वाक्यों का तलवार। ग़र हिम्मत है तो बढ़ा लो कदम अपने आगे दो चार हो तो और दस कदम। यह मत सोचो की क्या होगा घर परिवार का हाल। यह मत सोचों कि क्या होगा आपके खुद का हाल। बस यह समझो कि यह आपके अस्तित्व के वजूद की लड़ाई है। उन सब महिलाओं की लड़ाई है जो आज भी अपने हक़ो को नहीं माँग पा रही लड़ पा रही। आधी आबादी की जीत तभी होगी जब हम संगठित होकर एक दूसरें का हाथ थामें चल पड़े हाथों में जलते मशाल लिये एकता के साथ सुर में सुर मिलाकर। बोलो कि बोलना सबसे ज्यादा जरुरी है हमारे तुम्हारें सबके आपके लिए।

मैं स्त्री और पुरुष में कोई अंतर नहीं मानता स्त्रियों को भी अपने आपको पुरूषों जैसा ही स्वतंत्र मानना चाहिए। वीरता पर केवल पुरुषों का ही सर्वाधिक नहीं है। — महात्मा गाँधी

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एकता प्रकाश

लेखिका पटना से हैं तथा कविता, आलेख तथा समीक्षात्मक लेखन से जुड़ी हैं।
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