
प्रधानमन्त्री के नाम खुला ख़त
माननीय प्रधानमन्त्रीजी,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व कवि पाब्लो नेरूदा, जब सुबह-सुबह रेडियो से पाँच मिनट के लिए बोला करते थे तो उनका पूरा देश कान लगा कर धैर्य से उनको सुना करता था। वह इस उत्कण्ठा से सुनता था कि वे कितने सुन्दर और समर्थ मुहावरे में अपनी बात रखते हैं कि जिससे ‘विचार’ और ‘भाषा’ दोनों ही सम्पन्न हो उठते हैं। कहना न होगा, आप स्वयम् जानते होंगे कि इन दिनों स्पेनिश भाषा का आकर्षण अमेरिका में इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि अँग्रेज़ी, जो कि दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी संकल्प से, तमाम देशों की भाषाओं को विस्थापित करने में लगी है, ‘स्पेंग्लिश’ न बन जाये।
मैंने पिछले दिनों आपके कई वक्तव्य और ‘मन की बात’ कार्यक्रम का प्रसारण सुना तो स्पटतः यह लगा कि आप अपने समूचे सोच और दृष्टि में, मूलतः एक राजनीतिक व्यक्ति हैं, नतीज़तन, आपके लिए ‘भाषा’ प्राथमिक नहीं है, बल्कि केवल ‘सम्प्रेषण’ ही आपका अन्तिम अभीष्ट है। राजनीति के साथ यही है कि भाषा को वह इसी इकहरी भूमिका से भिन्न नहीं देखती है। कहना न होगा कि आपके बोलने से आपके कार्यक्रम के श्रोताओं के लिए एक बहुत स्पष्ट सूचना यह जाती है कि आपकी दृष्टि में हिन्दी, एक असमर्थ और अपर्याप्त भाषा है, और उसमें अँग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट नहीं की गयी तो वह अपाहिज भाषा रहेगी, जो चलकर ‘आज के युवाओं’ तक नहीं पहुँच सकेगी। यह सोच आपके भीतर के ‘नव- उपनिवेशित मनोविज्ञान’ की वजह से है, जिसने आपसे, अपनी भाषा के प्रति रहने वाले आत्मविश्वास को छीन लिया है।
यह आकस्मिक नहीं, बल्कि सुविचारित रणनीति है, विज्ञापन जगत की, कि उसने भारतीय भाषाओं को बोलने वाले के भीतर यह बात बैठा दी है कि अगर उसने अपने बोलने में अँग्रेज़ी के शब्द नहीं मिलाये तो लोग उसकी बात को समझेंगे नहीं। यह भाषा-रूप माल बेचने वाले लोगों ने इरादतन चलाया है, यह ‘मांगे मोर’ से शुरू किया था। और दुर्भाग्य यह कि उन माल बेचने वालों की चपेट में भारत का राष्ट्र नायक भी आ गया। बहुत दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि आप बोलते हुए, राष्ट्रनायक नहीं, विचार को वस्तु की तरह बेचने वाले ‘सेल्स-मैन’ लगते हैं। इससे यह भी लगता है कि आपको अँग्रेजी नहीं आती है। आप भी एक औसत भारतीय नागरिक की तरह ही अँग्रेजी की हीनता-बोध की ग्रन्थि के मारे दिखायी देते हैं और अनावश्यक रूप से हिन्दी के अति परिचित शब्द को भी हटा कर, उसकी जगह अँग्रेज़ी के शब्द इस्तेमाल करते हैं। अगर आपको अँग्रेजी नहीं आती है तो भी क्या हुआ, नेहरूजी की अ्रग्रेज़ी के बारे में भारतीय अँग्रेजी लेखक, नीरद सी. चैधुरी कहा करते थे, ‘नेहरू नेटिव स्पीकर की तरह अँग्रेजी नहीं लिख बोल सकते।’
शायद, इसी सोच के चलते आप अपने प्रसारण के दौरान हिन्दी में अधिक से अधिक अँग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट की जरूरत को बिलकुल नहीं भूलते। मसलन, अगर आप अपनी मन की बात में, भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग का उल्लेख करते हैं तो आप इरादतन उसके लिए, पिछले सात दशकों से प्रचलित रहे हिन्दी के शब्द को हटाकर, उसकी जगह अँग्रेज़ी के शब्द का ही प्रयोग करते हैं। जैसे, ‘आयकर’ शब्द बोलना हो तो आप निश्चय ही ‘इनकम टैक्स’ शब्द का प्रयोग करना ज़रूरी समझेंगे।
माननीय प्रधानमन्त्रीजी, आपके द्वारा समय-समय पर दिये गये सार्वजनिक वक्तव्यों और ‘मन की बात’ के प्रसारण की इस भाषा का एक त्वरित प्रभाव यह हुआ कि आपके सरकारी अमले ने तुरन्त मंत्रालयों और भारत-सरकार के तमाम विभागों के नामों को अँग्रेज़ी में ही लिखना और व्यवहार करना शुरू कर दिया है। जैसे, अब आगे से हिन्दी के शब्दों के उपयोग की ज़रूरत नहीं रहनी है।
यह बहुत स्वाभाविक बात है कि जब वे देखते हैं कि उनके देश के प्रधानमन्त्री, जो राष्ट्र के सम्मान से नख से शिख तक भरे हुए हैं, जब वे ही ‘बहुत अच्छी हिन्दी बोलने जानने के बावजूद’, जब हिन्दी की शब्दावली को अपने प्रसारण में इरादतन छोड़ कर, अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो उनके लिए यह खुली छूट है या कहें कि एक साफ-साफ संकेत है कि वे निर्भीक होकर ज़ल्दी से ज़ल्दी से हिन्दी की शब्दावली छोड़कर, उसकी जगह अँग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करें।
आप को शायद यह पता न हो कि आज स्थिति यह है कि भारत-सरकार के तमाम सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों के प्रचार-प्रसार सम्बन्धी, रेडियो और टेलीविजन या कि अखबारों में, जो विज्ञापन आते हैं, उनसे हिन्दी के शब्दों को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया है। नौकरशाही की प्रवृत्ति को आप बेहतर जानते होंगे। हमारी मालवी बोली में एक कहावत है, ‘चाय से ज्यादा केतली गर्म होती है।’ सरकार से ज़्यादा उस की नौकरशाही उतावली होती है। याद रखिये, श्रीमती इंदिरा गाँधी को आपातकाल में यदि सबसे बड़े भ्रम में रखा था और वे अन्त में हार गयी थीं-तो इसमें उनकी नौकरशाही की बहुत बड़ी भूमिका थी। मुझे सन्देह नहीं कि आपकी नौकरशाही अपने इस इतिहास को भूली नहीं होगी।
निस्सन्देह आप देश के पहले ऐसे प्रधानमन्त्री हैं, जो लगभग पूरी दुनिया की परिक्रमा लगा चुके हैं और इस ऐतिहासिक लेकिन सबसे कटु और धूर्त-सत्य को साम्राज्यवादी कूटनीतियों के ज़रिए, आप अभी तक बहुत अच्छे-से जान चुके होंगे कि अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को, ब्रिटिश कौंसिल द्वारा तैयार की गयी कूटनीति से किस तरह ख़त्म किया गया। वे कहते हैं, बीसवीं सदी में भाषा-विस्थापन अर्थात् लैग्विज शिफ्ट को लेकर हमारा ध्यान केवल अफ्रीकी महाद्वीप पर था, अब हमारा ध्यान भारत पर है।
अगर आप जानते हैं तो अच्छा ही है, फिर भी मैं उस कूटनीति को संक्षिप्त में यहाँ ज़रूर ही बताना चाहूँगा। दरअसल, अफ्रीकी महाद्वीप की भाषाओं के संहार की धूर्त कूटनीति थी, वहाँ की तमाम प्रचलित और जीवित भाषाओं को नष्ट कर के उन्हें ‘बोली’ में बदल दो। इसे कहते है, ‘ग्रेजुअल-क्रियोलाइजेशन ऑफ़ लैंग्विज़’। इस कूटनीति के तहत यह योजना बनाई जाती है कि जिस देश की भाषा को विस्थापित करना हो उस देश की भाषा में, धीरे-धीरे, अँग्रेज़ी शब्दों की मिलावट की जाये- और, इस मिलावट को एक धूर्त-युक्ति से यह भ्रम फैलाया और प्रचारित किया जाये कि यह ‘रिलिग्विफिकेशन’ है। यह तो आपकी भाषा का ‘पुनर्सृजन’ है और अँग्रेज़़ी के शब्दो को मिलाने के बाद यह भाषा, अधिकतम लोगों तक अधिकतम संप्रेषण करेगी। इसलिए, उन्होंने अफ्रीकी भाषाओं में सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के माध्यम से, उनमें अँग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट करना शुरू की।
पहले उन्होंने यह भ्रम निर्मित किया कि रेडियो की भाषा में यह जो मिलावट की जा रही है वह युवाओं के केवल ‘मनोरंजन के लिए’ ही है, और धीरे-धीरे अफ्रीका की पूरी पीढ़ी को मनोरंजन की भाषा, जिसमें अँग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट थी, में पूरी तरह डुबो दिया। यह कूटनीति थी ‘कीलिंग विथ इण्टरटेण्मेण्ट, अर्थात्’ मनोरंजन से भाषा और युवा पीढ़ी, दोनों को ही मारना। नील पोस्टमैन ने इसे कहा है, ‘आनन्दवाद ज़रिये भाषा के दमन की सिध्दान्तिकी।’ वहां भी फ्रांस की तर्ज़ पर लैग्विज़ विलेज़ बनाये गये थे।
हमारे यहाँ भारत में भी, सबसे पहिले एफ.एम. रेडियो के ज़रिए हिन्दी में अँग्रेज़ी शब्दों को मनोरंजन की आड़ में, बेधड़क ढंग से मिलाकर, प्रसारण करने का काम रेडियो-मिर्ची ने किया। वैसे, यह एम.एफ. टेक्नोलॉजी की अघोषित नीति थी। क्योंकि, इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश था- और उसकी एक अघोषित शर्त ही होती है, आपको वहाँ की देशज-भाषा का ‘विस्थापन’-‘ लैंग्विज़-शिफ्ट’ करना है। और, याद होगा आपको कि किसी भी ‘संस्कृति और समाज को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी भाषा को नष्ट करो। उसे ‘विचार की भाषा’ के स्थान से हटाओ। केवल बोल-चाल की बना कर रख दो। वह ‘डायलैक्ट’ बन जाये। यह लार्ड मैकाले के समय की नीति थी। लेकिन आज के नव साम्राज्यवाद का तो अब अघोषित रूप से कहना ही यही है We don’t enter a country with gunboats rather with language and culture. बाद इसके तो हम पाते हैं कि वे तो खुद ही हमारे गुलाम बनने के लिए बेताब हैं। और सत्ताओं को अपनी मुट्ठी में करना तो और भी आसान है। यह सच आप से अधिक और कौन जानता होगा।
इसलिए माननीय प्रधानमन्त्रीजी, अब वे अपनी ‘संस्कृति’ और ‘भाषा’ के अचूक हथियारों से किसी देश मे घुसते हैं और भारत जैसे बरसों तक गुलाम रहे देश में तो उनके द्वारा, ‘सांस्कृतिक विनिमय’ की आड़ में, ‘सांस्कृतिक-अपहरण’ हो चुका है। ‘भाषा और भूषा’, संस्कृति के आधार हैं-निश्चय ही उसमें ‘भोजन’ भी शामिल है, और ये तीनों ही घटक अब लगभग विदा कर दिये जाने के कगार पर हैं। भाषा, भूषा और भोजन की बिदाई के बाद तो आप नाम-मात्र को भारतीय रह जायेंगें। हमारे मध्य-प्रदेश में तो प्राथमिक कक्षा से अँग्रेज़ी शुरू कर दी है। और अब विद्यालयों में बच्चियों के लिये भी दुपट्टा और सलवार-कमीज़ के हटाकर, उसकी जगह, लैगिंग्स जैसा ‘हॉट-वीयर’ पहनना अनिवार्य कर दिया गया है।
बहरहाल, प्रधामन्त्री जी, मैं आपसे ‘भाषा के विस्थापन’ के संदर्भमें ‘ग्रेजुअल क्रियोलाइजेशन’ जैसे सामासिक पद का उल्लेख कर रहा था। हकी़क़तन, इस कूटनीति के अंतरगत होता यह है कि धीरे-धीरे स्थानीय भाषाओं में अँग्रेजी की शब्दावली को बढ़ाते हुए उसे ‘सत प्रतिशत’ कर दीजिये। कोई आपत्ति उठाये तो कहो- ‘भाई ये तो महज ‘शेयर्ड वक्युब्लरी’ है। शामिल शब्दावली। यह ‘बोलचाल’ की आसानी के लिए है।’ इस तरह एक सुनियोजित रूप से भाषा, ‘बोली’ में बदल दी जाती है।
व्याकरण, भाषा की मांस-पेशियाँ और अस्थियों के समान होती है। नतीज़तन, सबसे पहले उस भाषा की व्याकरण के हाथ-पैर तोड़ दो। इसके बाद उनका उस भाषा के खात्मे का अन्तिम चरण कहा जाता है, जिसे वे अँग्रेज़ी में कहते हैं- ‘फाइनल असाल्ट ऑन लैंग्विज’। यानी कि उस देश की भाषा पर ‘अन्तिम प्रहार’, जो उसका हमेशा के लिए ख़ात्मा कर देगा।
यह चरण है, सत प्रतिशत अँग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर बना दी गयी वह भाषा, जिसे हम ‘हिंग्लिश’ कह-बोल रहे है। उस हिंग्लिश भाषा की लिपि बदल देना। इसे रोमन-लिपि में लिखना शुरू कर दीजिये- वह भाषा मर जायेगी। गेल ओमवत जैसी अमेरिकी प्रोफ़ेसर, उस कूटनीति के भारत में प्रचार में सबसे पहले आगे आयीं। उन्होंने ही हमारे यहाँ के कुछ दलित विचारकों को इतना प्रभावित कर दिया कि वे ये कहने लगे कि दलित भाइयो, जब आपके घर में बच्चा जन्म ले तो उसके कानों में हिन्दी नहीं, ‘अँग्रेजी माता’ के शब्द फूंकों। अँग्रेजी बोलने वाले से झाड़ू लगाने को नहीं बोल सकते।’
आज दलित विचारकों द्वारा यह प्रचार जारी है कि हिन्दी सीखना हमें सवर्णों का गुलाम बनाये रखेगा, इसलिए अँग्रेजी सीखो। एक गुलाम देश में ही यह मूर्ख-मन्त्र सम्भव है। क्योंकि ब्रिटेन में तो अंग्रेज़ी बोलने वाला भी झाड़ू लगाता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रधानमन्त्रीजी आप अपने सार्वजानिक वक्तव्यों और ‘मन की बात’ नामक कार्यक्रम से पूरे देश को यह सूचना और संकेत दे रहे हैं कि भारतीय भाषाएँ असमर्थ और अपर्याप्त भाषाएँ है, इनकी बिदाई ज़रूरी है। क्योंकि आप हिन्दी के बजाय ‘हिंग्लिश’ बोल रहे हैं। एक स्वयभूं ‘राष्ट्र राज्य’ के शिखर पुरूष के द्वारा ‘हिंग्लिश को’ प्रामाणिक और बहुत भरोसे की भाषा की तरह उपयोग करना, एक राष्ट्र के लिए, एक बड़े ऐतिहासिक अनिष्ट की सूचना है।
माननीय प्रधानमन्त्री जी, आपको यह स्मरण करा दूँ कि डेविड क्रिस्टल, एक चर्चित भाषाविद् और लेखक हैं, जिनकी पुस्तक है, ‘डेथ ऑफ़ लैंग्विज़’ है। वे पिछले वर्षों में भारत आये थे, उन्होंने ‘हिंग्लिश’ के बारे में, जो टिप्पणी की वह आँख खोलने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने बार-बार हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाये जाने की बात पर लोगों का लगभग लताड़ कर कहा- ‘ जिसे आप ‘हिंग्लिश-हिंग्लिश’ कह रहे हैं, वह आपकी भाषा है नहीं हैं, वह हमारी भाषा है, क्योंकि इसे अँग्रेजी ने पैदा किया है। वह अँग्रेजी की एक नई ‘डायलेक्ट’ है। इस पर निश्चय ही अँग्रेज़ी की मिल्कियत है। हिन्दी की नहीं। फिर उसमें सत्तर प्रतिशत हैं, हमारी अँग्रेज़ी के शब्द।
इसलिए, उनके इस वक्तव्य की रौशनी में देखा जाये तो आप हिन्दी में प्रसारण नहीं कर रहे हैं-बल्कि अँग्रेजी की एक ‘डायलेक्ट’ में देश को संबोधित कर रहे हैं और आप उस पर अपनी हिन्दी होने का भ्रम न पालें, और ना ही यह भ्रम फैलायें कि ‘आप हिन्दी में देश से सम्वाद कर रहे है।’ हाँ यह भी बता दूं कि साथ ही इस कार्यक्रम के अन्त में एक उद्घोषणा आती है कि प्रधानमन्त्रीजी का यह प्रसारण अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रसारित होगा। इसका अर्थ यह कि आपने, जो भी अँग्रेजी के शब्द इस्तेमाल किये हैं, वे ‘जस के तस’ बांग्ला या तमिल अनुवाद में जायेंगे।
इस तरह आप बांग्ला को ‘बंग्लिश’ और तमिल को ‘तमलिश’ बनाने में मदद कर रहे हैं। आकाशवाणी में ‘नौकरशाह’ तो इस प्रसारण में कोई व्यवधान न आ जाये, इससे वे इतने डरे रहते हैं कि अँग्रेज़ी का शब्द हटा नहीं पायेंगे। वे ‘तमलिश’ और ‘बंग्लिश’ बना कर रहेगें।
माननीय प्रधानमन्त्रीजी, अँग्रेजी की, सामाज्यवादी कूटनीति का कहना है कि अगर, किसी देश कीभाषा का विस्थापन करना है तो केवल इसे एक ही ‘युवा पीढ़ी’ के जीवन में ही बदल दीजिए। इसलिए, यह प्रचार सारे भारतीय (!) मीडिया में होता है कि आज के भारतीय और, इस भ्रम को सत्य की तरह उन्हें स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है। और वे सफल हो गये हैं आज जो ‘युवा’ आधुनिक होना चाहता है, वह हिन्दी बोलने-लिखने से सख़्त एतराज करता है। ‘युवा’ की भाषा अँग्रेजी और जीवन शैली पश्चिम की हो तो ही वह ‘युवा’ है।
इसलिए अभी तक देश हिन्दू-मुसलमान में बंटा हुआ था, अँग्रेजी मीडिया, उसे ‘मुस्लिम इंडिया’ कहते हैं। सांसद शहाबुद्दीन एक पत्रिका निकालते थे, ‘मुस्लिम इण्डिया’। मैंने उनसे कहा, ‘आप पत्रिका का नाम ‘इण्डियन मुस्लिम’ क्यों नहीं रखते। यह विभाजनकारी सामासिक पद है। जैसे सारे भारत से अलग कोई एक और इण्डिया है।’
अब उपनिवेश बनाता बाजार, भाषा के छल से भारतीय समाज को बांट रहा है। अब ‘यंग इंडिया’ कहते हुए समझाता है – जैसे, इण्डिया में एक दूसरा इंडिया है- ‘यंग इंडिया’। इस ‘यंग इंडिया’ के धोखादेह निर्माण में, हिन्दी के अखबारों में ‘लाइफ स्टाइल जर्नलिज्म’ के चार रंगीन पन्ने निकाले जाते हैं, जिसकी भाषा के बारे में मालिकों का स्पष्ट आदेश होता है कि इसमें सत प्रतिशत अँग्रेजी के शब्दों की मिलावट की जाये। और अगर, ऐसा करने में किसी कर्मचारी को एतराज हो तो वह यह तय कर ले कि उसे हिन्दी प्यारी है या अपनी नौकरी।
दरअसल जबसे हिन्दी के अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शुरू हुआ है, वे हिन्दी के अखबार होकर हिन्दी को विदा करने की सुपारी ले चुके हैं। हिन्दी ने अपना ‘जीवन’ हिन्दी पत्रकारिता से पाया था, आज दुर्भाग्यवश सबसे बड़ा धोखा भी वह इसी हिन्दी पत्रकारिता से ही खा रही है। आपको, उदाहरण दे रहा हूं-
‘यूनिवर्सिटी कैम्पस में माक्र्सशीट के डिले होने पर, स्टूडेण्ट्स ने, वाइस चान्सलर के आफिस के सामने प्रोटेस्ट किया, वाइस-चान्सलर ने उन्हें एश्योर किया है कि इस वीक के लास्ट तक प्राब्लम साल्व हो जायेगी।’
अब अखबारों में, माता-पिता, छात्र-छात्रा, विश्वविद्यालय, चैराहा, कार्यालय, सोमवार, मंगलवार, बाज़ार, भाई-बहन कहे कि हर शब्द, अँग्रेज़ी का ही छापा जाता है।
ये भाषा, अख़बार के युवा के लिये लिखी-छापी जा रही है। और आप भी युवाओं को ऐसी ही भाषा में बात करने की दिशा मे ही बढ़ रहे हैं।
माननीय प्रधानमन्त्रीजी, आप जब इसरायल की यात्रा पर गये थे तो मुझे लगा था कि आप जब वहाँ से लौटेंगे तो इस देश के लिए जन-जन के लिये एक बड़ी सच्ची, ज्ञान और ‘राष्ट्र-गौरव’ की बात लेकर लौटेंगे कि इसरायल जिसकी भाषा ढाई हज़ार साल पहले मृत हो चुकी, उस हिब्रू भाषा को उन्होंने पुनर्जीवित कर के, उसे राजकाज और शिक्षा की भाषा बना दिया और आज इसरायल के पास सत्रह नोबेल पुरस्कार है। वह इसलिए कि बीसवीं सदी का सारा ज्ञान-विज्ञान, उसने अपनी उसी दो हज़ार साल पहले मृत हो चुकी भाषा में ही विकसित कर लिया।
जापान के बारे में तो आपको यह पता है कि वह हमारे छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले के भूगोल के बराबर ही है। प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक थामस फ्रीडमेन ने लिखा था, ‘लिंच पिन ऑफ़ इकोनॉमी एण्ड टेक्नॉलाजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान।’ जब जापान और उसके पड़ोसी वाहन बनाने के उद्योग – ऑटोमोबाइल्स – में उतरे तो दुनिया भर के देशों की सड़कों पर जो कारें दौड़ती हैं, इन्हीं देशों की है-क्योंकि, उनके यहाँ शिक्षा की भाषा, वही अपनी भाषा है। जिसमें लगभग दो हजार चिन्ह हैं। जब हिन्दी की बारहखड़ी में तो ‘अ से क्षत्रज्ञ’ तक केवल इतने ही अक्षर है और इन अक्षरों में संसार की सभी भाषाओं की ध्वनियाँ, उच्चरित हो सकती हैं।
दुर्भाग्यवश, जाने किस मूढ़ता में भारतीय भाषा को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर ही खत्म कर दिया जा रहा है।
मेरे बेटे ने पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ाई की और नैनो-टेक्नोलॉजी में पी.एच.डी की डिग्री हासिल की। वह कहता है अमेरिका में, जब जापान का युवक पढ़ाई के लिए आता है, तो वह सौ प्रतिशत जापानी हो जाता है, जबकि चीनी छात्र पढ़ने आता है तो वह एक सौ दस प्रतिशत चीनी हो जाता है- जबकि, भारत का युवा अमेरिका आता है तो वह अस्सी प्रतिशत अमेरिकी हो जाता है। दरअसल, भारत, अब इस एक ध्रुवीय संसार में अमेरिकाना हो रहा है। निश्चय ही वह उसकी नकल करेगा तो भी वह एक घटिया दर्जे की अनुकृति ही बनेगा और बन ही रहा है।
प्रधानमन्त्रीजी आप से निवेदन है कि आप भाषा के साथ, केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर की तरह व्यवहार न करें। चूंकि भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन-प्रक्रिया का भी आधार है। वह हमारी जैव-सामाजिक शक्ति है। इस भाषा में दुनिया के गहनतम विषय पर भी विचार व्यक्त किया जा सकता है और चिन्तन सम्भव है। गाँधी से लेकर जयप्रकाश तक इसमें सोचते विचारते थे और आप भी हिन्दी ही में सोचते और बोलते हैं। लेकिन, अब तो टेलिविज़न विज्ञापन आता है, जिसमें कहा जाता है, हिन्दी नहीं, अँग्रेज़ी ही सोचने की भाषा है।
प्रधानमन्त्री महोदय, मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ज्ञान आयोग के श्री सैम पित्रौदा हुआ करते थे, जिन्होंने प्रधानमन्त्री कार्यालय को एक पत्र लिखकर कहा था कि भारत के केवल एक प्रतिशत लोग ही अँग्रेज़ी लिख-बोल सकते हैं, अतः हमें निन्यानवे प्रतिशत आबादी को अँग्रेज़ी सिखाना है, जिसके लिए, प्राथमिक कक्षाओं से ही अँग्रेज़ी सीखने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि उनके इस कथन पर किसी सांसद और हिन्दी के पत्रकार, लेखक या भाषा-भाषी ने उनसे ये नहीं पूछा कि पैसठ वर्षों में आप उस ‘एक प्रतिशत’ भारतीय को हिन्दी नहीं सिखा पाये तो निन्यानवे प्रतिशत भारतीयों को अँग्रेजी कितने वर्षों में सिखा पायेंगे और उस भाषा प्रचार-प्रसार और सिखाने-पढाने के धंधे- ‘लैंग्विज इकोनोमिक्स-’ का आकार क्या होगा।
आज अँग्रेजी का सिखाने पढ़ाने का व्यवसाय अरबों में कमाई कर रहा है। जब भारत में एक अरब बीस करोड़ को अँग्रेजी सिखाई जाने का कारोबार चलेगा तो अँग्रेज़ी-भाषा कितना धन कमायेगी।
अन्त में माननीय प्रधानमन्त्रीजी आप से मेरा यही कहना है कि हम अहिन्दी-भाषी पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति शिकायत रखते थे कि वे देश के लोगों से हिन्दी में नहीं बात कर रहे हैं। यह हिन्दी का नुकसान है लेकिन उन्होंने हिन्दी का उतना अहित नहीं किया, जितना अहित हिंग्लिश बोलकर तो आप कर रहे हैं। आप पूरे देश को ‘भाषा-विस्थापन’ का संकेत कर रहे हैं।
आप का दल और आप तो ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ की बात करते रहते हैं। क्या ये भाषा को नष्ट करने के बाद, बचा रहेगा। एक विज्ञापन आता था, सिमें कुर्ते पाजा़में में तलघर में चाभी से अपनी कार का दरवाजा खोलता है, तो उस इमारत का चैकीदार उसे एक घूंसा मारता है। यानी भरतीय पहनावे पहनने का अर्थ चोर या उच्क्का दिखना है। फिर विलपन की पंच लाइन आती है, ‘ देश बदल रहा है, भेष कब बदलोगे…?’ हो सकता है, अगला विज्ञापन आये। जिसमें हिन्दी बोलने वाले को मुंह पर घूंसा मार कर कहा जाये, ‘ देश की आशा बदल रही है, देश की भाषा कब बदलोगे…? न कहो, आपका उदाहरण दिया जाये, ‘ जब प्रधानमन्त्री जी हिंग्लिश बोल रहे हैं, फिर तुम क्यों साफ हिन्दी बोल रहे हो…? प्रधान मंत्री जी, जब हमारे देश के सैनिकों के दुश्मनों ने सिर काट लिये थे, तो सारे राष्टभक्त विरोध में उठ खड़े हुए थे। आज पूरे देश के युवाओं की खोपड़ी में घुस कर, उनके भीतर से उनके मस्तिष्क से भारतीयता को निकाल कर, उनमें पश्चिम को ठूंस कर भरा जा रहा है, और आप खुश हैं।
राम मन्दिर के बहाने धर्म का हो-हल्ला मचता रहे लेकिन आपके-हमारे उस धर्म की किताबें, एक दिन ‘अपाठ्य-लिपि’ में लिखी-छपी मानी जायेगी। क्योंकि हिन्दी के रोमन लिपि में लिखे जाने के बाद, करोड़ों किताबें कचरे में बदल जायेगी। आप से निवेदन है कि जब आपने अच्छी हिन्दी में देश के कोने-कोने में जाकर अपने दल को विजय दिलाई है। लेकिन आप दल और राजनीतिक से ऊपर उठकर, भाषा के बारे में चिन्तन करें और देश में हिन्दी को विदाई करने के अभियान को स्थगित करें।
आपकी सरकार का राज-भाषा विभाग इस समय अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा है। लोग उस विभाग की इरादतन भत्र्सना करते हैं, लेकिन उस विभाग के कारण सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी थोड़ी-थोड़ी बची हुई थी।
याद कीजिए और संदर्भ दिखवा लीजिए, जब हिन्दी को सरल बनाने के बहाने उसको ‘विस्थापित’ करने के षडयन्त्र का एक चरण, भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय के राज-भाषा विभाग द्वारा एक परिपत्र जारी करके किया गया था- तब हिन्दी की ‘धोखा देह’ पत्रकारिता ने खुशी में झूमकर खबरें, छापी थी- ‘अब हिन्दी बोलने-समझने लायक भाषा बन जायेगी। उस परिपत्र में बताया गया था कि ‘भोजन’ शब्द कठिन है, इसलिये उसकी जगह ‘लंच’ शब्द प्रयोग मे लाया जाये।
लेकिन, अँग्रेज़ जानते हैं कि इन गुलामों को कभी अक़्ल नहीं आयेगी। वहाँ के अख़बारों ने हिन्दी में अँग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट के, इस सरकारी ‘परिपत्र’ के संकेत पढ़ लिये थे। वहाँ के अख़बारों की ‘हेडलाइन्स’ यानि कि सुर्खियाँ थीं- ‘क्वीन्स लैंग्विज विंन्स इंडिया’। क्योंकि, यह परिपत्र, संविधान में सेंध का काम कर रहा था और उन्हें ये भरोसा है कि अगर दरार भी बन गयी, वे उसे दरवाज़ा बना देगें। क्योंकि, जो केवल व्यवसाय के लिये आये उन्होंने पूरा देश हड़प लिया था।
दरअसल, अँग्रेज़ी को भारत की अन्य किसी भाषा से भय नहीं हैं। वे केवल हिन्दी से डरते हैं। क्योंकि, यह दुनिया की दूसरी सबसे वड़ी बोली जाने वाली भाषा है। और वे इसकी मृत्यु का पुख़्ता इंतज़ाम कर चुके हैं। क्योंकि, उन्होंने भारत में, हिन्दी की ‘बोलियों’ को ही हिन्दी के खिलाफ़ भिड़ा दिया है। यह रणनीति ब्रिटिश कौंसिल के जोशुआ फिशमैन की बुध्दि की उपज थी कि ‘ लैंग्विज़ वर्सेस डायलैक्ट’ का द्वन्द्व खड़ा कर के ही हिन्दी को कमज़ोर किया जा सकता है। दूसरी बात ये कि वे हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाकर रहेंगे और इस पर एतराज उठाने वाले को मुँह तोड़ जवाब देंगे-‘मूर्खो..! तुम्हारे देश का प्रधानमन्त्री स्वयम् हमारी अँग्रेज़ी की ही ‘डायलेक्ट’ , हिंग्लिश ’ बोल रहा बोल रहा है। इस सच को न तो दांत निपोरने की शैली में कह रहा हूं और न ही दांत पीस कर की रहा हूं। बस आप को याद भर दिला रहा हूं।
उम्मीद है, मेरा यह पत्र पढ़ने का आप समय निकालेंगे। वर्ना तो आपकी नौकरशाही, जब इस पत्र का सारांश तैयार कर के आप को बतायेंगे तो निश्चय ही यह पूरा पत्र उनकी निगाह में एक बकवास होगा। लेकिन, यह बकवास नहीं, हिन्दी की आख़िरी हिचकी है। आप के कान इस हिचकी को, भारतीय महाद्वीप के प्रधानमन्त्री की तरह सुन पा रहे हैं कि नहीं…..?
आपका,
प्रभु जोशी
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