महिला जननांग कर्तन
‘उन्होंने मुझसे कहा था वह सिनेमा दिखाएंगी या घुमाने ले जाएंगी। इसी वादे पर नानी ने मुझे कस कर पलंग पर पकड़ लिया और खाला ने मेरे गुप्तांगों पर गरम चाकू लगाया और जाते हुए कुछ काला पाउडर लगा कर चली गयी। मुझे ऐसा बुरा दर्द हुआ कि मैं आज भी उस दिन को याद कर के डर जाती हूँ’। बत्तीस साल की अनन्या जब यह बताती हैं तो हमें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि आखिर क्यों हर बार हमारे समाज में महिला को ही प्रताड़ित किया जाता है। उसे भोग्या मात्र मानने वाला पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को असहनीय दर्द सहने वाली कैसे मान लेता है? ‘महिला जननांग कर्तन (खतना) या खफ़्ज़’ समाज की एक ऐसी अमानवीय कुप्रथा है जो आज भी हमारे देश के कई हिस्सों में बोहरा मुस्लिम समुदाय द्वारा अपनाई जाती है।
क्या है ये प्रथा?
इस कुप्रथा में 7 वर्ष से लेकर मासिक धर्म आने से पूर्व तककी लड़की की योनि के कुछ बाहरी अंगों को, जिसे अँग्रेजी में ‘क्लाइटोरिस’ कहते हैं, चाकू अथवा ब्लेड से पूरी तरह या आंशिक रूप से काट कर निकाल दिया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा लड़की को एक असहनीय दर्द दिया जाता है। विरोध करने पर उससे कहा जाता है कि यह जरूरी है। उस समुदाय के लोग जननांग के इस हिस्से को ‘हराम की बोटी’ कहते हैं। अनुपात की बात करें तो यह ज्यादातर 7 से 8 वर्ष की लड़कियों में किया जाता है। इसका एक संजीदा पहलू यह भी है कि इस प्रक्रिया को एक सामान्य दाई या समुदाय की पुरानी औरतों से कराया जाता है, जिन्हें ‘मुल्लानी’ कहा जाता है।
उसे इसके दुष्प्रभाव के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। वह केवल प्रथा का पालन करना जानती है। इस कार्य के लिए उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं मिला होता। अनुभव के आधार पर अंजाम देती हैं। इसका तात्कालिक दुष्प्रभाव तो यह है कि वैज्ञानिक तरीके और विशेष सावधानी से नहीं किये जाने के कारण लड़की का जीवन खतरे में डाल दिया जाता है। रक्तस्राव ज्यादा होने से लड़की की मृत्यु तक हो जाती है। महिलाओं को संभोग, प्रजनन, नित्य क्रिया इत्यादि में जीवन भर परेशानी होती है। इससे आगामी जीवन में महिलाओं को कईं तरह की परेशानियों का समान करना पड़ता है।
बोहरा समुदाय-
बोहरा मुस्लिम समुदाय की ही एक जाति है, जिसका सम्बन्ध ‘शिया सम्प्रदाय’ से है। इस समुदाय के लोग ज्यादातर व्यापार आदि में संलग्न रहते हैं। भारत में बोहरा समुदाय की आबादी 20 लाख से ज्यादा बताई जाती है। इनमें 15 लाख दाऊदी बोहरा हैं। बोहरा मुस्लिम समुदाय शियाओं में समानता रखता है। बोहरा भले ही सार्वजनिक तौर पर समुदाय से बाहर के लोगों से मिलते-जुलते हों, लेकिन उनके समुदाय की आन्तरिक संरचना में ऐसे कड़े नियम बनाये गए हैं कि उनके निजी और धार्मिक दुनिया में किसी बाहरी का प्रवेश न हो सके। असगर अली इंजीनियर कहते हैं, ‘यहाँ धार्मिक ही नहीं बल्कि निजी मामलों में भी सैयदना (सामाजिक व्यवस्था को संचालित करने वाली संस्था) का नियंत्रण है। शादी से लेकर दफ़न तक के लिए मुझे उनकी अनुमति चाहिए’।
धर्म या परम्परा के नाम पर यह प्रथा भारत सहित दुनिया के कई देशों में ‘दाउदी बोहरा’ (शिया मुस्लिम) समुदाय द्वारा अपनाई जाती है। उनके समाज में मान्यता है कि यदि यह नहीं होता है तो शरीर का वह हिस्सा समुदाय के ऊपर महिला द्वारा दी गई शर्मनाक चीज़ होगी। इसलिए वे इसे जरूरी कहते हैं। मगर असलियत यह है कि यह महिला को केवल मानसिक और शारिरिक रूप से पीड़ा देता है। यदि कोई महिला जान जाए कि इस प्रक्रिया से भविष्य में उसे किस तरह की प्रताड़ना मिलेगी तो वह यह कभी नहीं होने देगी। यह सब सिर्फ उसे आंतरिक तौर पर डराने के लिए है। इस कुप्रथा से यौन सुख का आनन्द केवल पुरुष ले पाता है। इतना दर्द सहने के बाद स्त्री वहां केवल एक लाश के जैसी रह जाती है। उसका कार्य केवल प्रजनन करना होता है।
इसकी असल कहानी यह है कि इसके माध्यम से स्त्री के शरीर पर पुरुष के वर्चस्व को कायम रखने का प्रयास किया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि यह पुरूष की अक्षमता को छुपाने का एक तरीका है। स्त्री की उत्तेजना पुरुष को चुनौती न दे, इसलिये महिला के उस उत्तेजित करने वाले हिस्से को ही निकाल दिया जाता है। खतने के इस दर्द से गुजरने के बाद स्त्री सहम जाती है और सम्भोग उसके लिए आनंद की जगह डर का रूप ले लेता है। व्यवहारिक रूप से देखें तो इससे पुरुष का अहम तो संतुष्ट होता है लेकिन उसमें स्त्री के लिए कोई आकर्षण नहीं होता। बोहरा समुदाय अब भी इस परम्परा का पालन करता है। इस प्रथा का चलन केवल बोहरा मुस्लिम समुदाय में है।
व्यावहारिक रूप से तो माना जाता है कि भारत का यह समुदाय इतने खुले विचारों का होता है कि वह अपने घर की महिलाओं को बाहर पढ़ने-लिखने या घूमने भेज देता है। पर इसका असल कारण यह है कि उन्हें डर नहीं, क्योंकि महिला को उत्तेजना पैदा करने वाले अंग से महरूम कर दिया गया है। वे इसे अपनी मान्यता के अनुसार जरूरी मानते हैं। मगर असलियत है कि यह महिला को केवल मानसिक और शारिरिक रूप से पीड़ा देता है। जब सामाजिक बुद्धिजीवियों ने इस प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाई तो मामला संयुक्तराष्ट्र संघ तक पहुंचा। पड़ताल में इसकी जड़ तक जाया गया।
इस दौरान संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन ने महिलाओं के चार तरह के खतनों को परिभाषित किया है।
पहला- इसे ‘क्लाइटॉरिडेक्टॉमी’ कहते हैं। इसमें महिलाओं के क्लाइटॉरिस को आंशिक या पूरी तरह निकाल दिया जाता है।
दूसरा- इसे ‘एक्सीजन’ कहते हैं। इसमें क्लाइटॉरिस और लेबिआ माइनोरा (योनि की अंदरूनी त्वचा) को आंशिक या पूरी तरह हटा दिया जाता है, लेकिन इसमें लेबिआ मेजोरा नहीं हटायी जाती।
तीसरा- इसे इनफिबुलेशन कहते हैं। इसमें योनिमुख को संकरा बनाया जाता है। इनफिबुलेशन में क्लाइटॉरिडेक्टॉमी नहीं होती।
चौथा- गैर-चिकत्सकीय कारणों से महिलाओं के जननांग को अन्य प्रकार से विकृत करने को चौथे प्रकार में रखा जाता है।
इनमें से भारत में पहले और चौथे प्रकार का खतना किया जाता है। यूनिसेफ के आँकड़ों के अनुसार एशिया के करीब 30 देशों में जिन 20 करोड़ से ज्यादा महिलाओं का खतना हो चुका है, उनकी उम्र 14 वर्ष से ज्यादा की नहीं है। इसका सर्वाधिक प्रचलन अफ्रीकी देशों में है। जिसमें कि मिस्र, इंडोनेशिया, में सबसे अधिक लडकियों का खतना हुआ है। भारत में यह गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में और मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू तथा हैदराबाद जैसे महानगरों में होता है, जहां बोहरा समाज के लोग रहते हैं। समाज से अलग रहने के कारण उनके मुहल्ले अलग होते हैं।
इस कुरीति के खिलाफ लोग सर्वोच्च न्यायलय गए।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए इसे महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव कहा था। 2017 में भारत सरकार ने इसके रोकथाम के लिए पहल की थी, मगर अभी तक किसी तरह की रोक इस पर नहीं लगाई गई है। कानून है मगर पालन नहीं। हाल के आंकड़ों के अनुसार आज भी बोहरा समाज की पूर्ण जनसँख्या की 14 प्रतिशत महिलाएं इस पीड़ा से हर रोज़ गुजरती हैं। कम होने की बजाय यह समस्या धीरे -धीरे गति पकड़ रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय में नाबालिग लड़कियों के खतना की कुप्रथा पर सवाल उठाते हुए कहा कि ये महिलाओं के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव पर रोक) समेत मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया और कहा कि किसी व्यक्ति को अपने शरीर पर नियंत्रण का अधिकार है। पीठ ने कहा, ‘अगर हम महिला अधिकारों की दिशा में सकारात्मक रूप से आगे बढ़ रहे हैं तो ऐसी स्थिति में हम कैसे पीछे जा सकते हैं?’ चीफ जस्टिस ने कहा कि महिलाओं के और भी कई दायित्व होते हैं। उनसे ये उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे अपने पतियों को खुश करने का काम करें’।
भारत के बाहर ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस पर बकायदा कानून बनाया गया है। ऑस्ट्रेलिया में सरकार इस कुप्रथा को रोकने के लिए तुरंत जेल का प्रावधान लाई है। भारत में यह कार्य आज भी छुपे तौर पर किया जाता है। भारत में भी बाकायदा तीन साल की सजा का प्रावधान है। पितृसत्तात्मक समाज में यह स्त्री की आत्मा पर नियंत्रण करने का एक तरीका है। यह एक तरह का सामाजिक दंश है जिसे बोहरा समुदाय की महिलाओं ने लम्बे समय से झेला है और आज भी झेल रही हैं।
इतना जरुर है कि आज आवाज़ उठ रही है। मगर उतनी तेज नहीं, जितनी तेज़ ख़तना वाले चाकू की धार होती है। वक़्त आ गया है कि इस अमानवीय प्रथा पर आवाज़ उतनी तेज़ गति से उठे जितनी तेज़ गति से खतने के बाद रक्त स्राव होता है। नोमान और असगर अली इंजीनियर बोहरा समुदाय की विसंगतियों और धर्मसत्ता की क्रूरता को लेकर अपने साहित्यिक लेखन के माध्यम से लड़ाई लड़ रहे हैं। जरुरत है उस लड़ाई को न्याय की दहलीज तक ले जाने की।