व्यंग्य

जब घर पर रहता है कवि

 

कई बार अब मुझे लगने लगा है कि इस असार संसार में हमारा जन्म फेसबुक पर फुदकने के लिए हुआ है। संतों के लिए जो संसार कभी कागज की पुड़िया थी, बूंद पड़े घुल जाना था, कोरोना काल में वह संसार मोबाइल फोन पर आकर बैठ गया है। जब तक बैटरी है, और अंगुलियों में जोर है…संसार चल रहा है। नजरें हैं कि हटती ही नहीं। कोई दिल्ली में स्क्रीन को घूर रहा है, कोई देहरादून में। कोई गोड्डा में घूर रहा है और कोई गोंडा में। कोई मोतिया में तो कोई मोतिहारी में। आँखों ही आँखों में राष्ट्रीय एकता स्थापित हो रही है। घर में लगे सॉकेट लगातार बिजी हैं। बैटरी चार्ज हो रही है। सही रंग की बिंदियों की तलाश, गुड मार्निंग काल के लिए सही फोटो की खोज पर आकर अटक गया है।

मेरा एक मित्र है। फटे में पाँव डालने की आदत बचपन से थी। जवानी में किताब शुरू से अन्त तक पढ़ने की आदत डालना चाहता था। कोशिश नाकाम रही। आलोचक नहीं बन पाया। अब उम्र के उस पड़ाव पर है, जहाँ लोग थोड़ी बहुत इज्जत से बात कर लेते हैं। आलोचना को भूल, वह कवि हो गया है। कोरोना काल शुरू हुआ तो कविता के लिए एक मधुर काल भी आरम्भ हुआ। मेरा मित्र बिजी हो गया। अब वह कागज को हाथ नहीं लगाता। डाइरेक्ट टाइप करता है और फेसबुक के मुँह पर दे मारता है।

वैसे एक आम मध्यमवर्गीय शहर में जन्म लेने और बचपन गुजारने के कारण, उनकी जिन्दगी में भी पहली बार, कागज ने परचून की पुड़िया के रूप में ही प्रवेश किया था। जबकि जमाना दंतमंजन का था, लेकिन दतुवन वाले परिवार की परंपरा में, छोटा बच्चा होने की वजह से कागज परचून की पुड़िया के रूप में ही सामने आ पाया। कागज के टुकड़े पर दंतमंजन का सर्वाधिकार बड़ों के लिए सुरक्षित था और जब तक वह बड़ा हुआ, परिवार दंतमंजन से पेस्ट पर आ चुका था। मुस्कान सबकी चौड़ी हो गयी थी। तभी मेरे मित्र ने तय किया था कि वह आलोचक बनेंगा।

लेकिन साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक के खेद सहित पत्रों ने मन को इतना ज्यादा दुखी और व्यथित किया कि सारे कोरे कागजों को समेटकर अपने छोटे भाई को दे दिया। उन्हीं कागजों पर गणित का सवाल हल कर छोटा भाई इंजीनियर बनने शहर चला गया। और बड़े भाई के सामने रह गया एक लाख टके की बात। लेखक अपने अलिखित कागज को किसी दूसरे को दे दे तो घर, समाज और देश का ज्यादा भला होता है!

वक्त के साथ लाख टके की बात ‘खुदरा’ हो-हो के खत्म हो गयी। मेरा मित्र कृषि विभाग की सरकारी नौकरी में लग गया। जिन्दगी को खाद-पानी मिलनी शुरू हो गयी। कभी-कभार मन लहलहाने लगा। और अचानक एक दिन लहलहाते मन ने कहा, “कविता लिखो।”

उसने मन की सुनी। मौका मुनासिब देखकर वह हो गया कवि। वह लिख रहा है। मजे हैं। कोरोना काल में भी एक खुशनुमा माहौल एक शॉल की तरह लपेटे रहता है अपने आस-पास। कविताओं पर टिप्पणियों का बोनस उसे छाया देता है, जिसके तले वह गुजार रहा है मुसीबत की घड़ी। फेसबुक पर वह सीना ताने इधर-से-उधर टहल रहा है। फेसबुक उसका अपना जंगल है। बरसों से शहर में रहते हुए उस जंगल में कविता के सहारे वह अपने गाँव को लाकर, गाँव के ही एक पेड़ पर खड़ा हो गया है। किसी कविता में वह आत्मा के इंजीनियर जैसा लगता है। किसी कविता में वह कोरोना का काल लगता है।

कवि होना निरन्तर कुछ होते रहना है। उसे कुछ-कुछ हो रहा है। फेसबुक पर तारीफों के बीहड़ में उसे क्रांति की उम्मीद है। मौका मुनासिब देखकर वह कवि हुआ था… उसे लगता है, मौका मुनासिब देखकर क्रांति भी होगी। लोग घरों से निकलेंगे। कारें सड़कों से गुजरेंगी। शिक्षा विभाग का बाबू दफ्तर आएगा। बंदर के उछलने से डिश एंटीना जो खराब हो गया था, उसे भी कोई ठीक करने आएगा। मेरा मित्र कवि घर में है। फेसबुक पर वह इतना ज्यादा पहले कभी नहीं था। उसे लगता है कि घर में और साहित्य में अब तक जो उसे गलत समझा गया, वे झूठ साबित होंगे। हालांकि मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको?

.

Show More

देव प्रकाश चौधरी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, व्यंग्यकार एवं कलाकार हैं। सम्पर्क choudharydeoprakash@gmail.com
3 2 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x