नागरिक को नजर अंदाज करने का हुनर
- शैलेन्द्र चौहान
फ्रेंच लेखक अल्बेयर कामू ने एक बार लिखा था, “मैं अपने देश को इतना प्यार करता हूँ कि मैं राष्ट्रवादी नहीं हो सकता|” कामू के ये शब्द भारत के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक मालूम पड़ते हैं| यह स्वाभाविक है कि बहुत नहीं तो कुछ भारतीय बुद्धिजीवी कामू के इस शानदार विचार के साथ ज़रूर खड़े ना चाहेंगे| इन्हीं भावनाओं को भारतीय संविधान निर्माताओं ने अपनाया था| यह कहना भी बिल्कुल बेईमानी होगी कि सिर्फ़ इसी सरकार ने अपने से असहमति रखने वाले विचार के प्रति ऐसी बेरुखी दिखाई है| कांग्रेस सरकार ने मशहूर चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन के अधिकारों की रक्षा के लिए क्या किया? या फिर बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तसलीमा नसरीन के निर्वासन के मामले में क्या किया गया? रूढ़िवादी मुस्लिम समूहों के दबाव में वे दयनीय बने रहे क्योंकि कुछ लोगों को तसलीमा के लिखे हुए पर आपत्ति थी| ये विफलताएं पहले ही भारत के उदारवादी-लोकतांत्रिक चरित्र को नुक़सान पहुँचा चुकी हैं| इस बात में कोई दो राय नहीं कि 20वीं सदी के आख़िरी दशक में भारत अपने उन उद्देश्यों से बहुत भटक गया, जिसकी परिकल्पना भारत और संविधान निर्माताओं ने की थी| मौजूदा वक़्त में देश एक गहरे अनुदारवादी और अति-राष्ट्रवादी दौर से गुज़र रहा है| वैचारिक मतभेदों की परवाह किए बिना हर राजनीतिक दल भारत में मूढ़ता को बढ़ावा दे रहा है| राष्ट्रवाद की जो परिभाषा सरकार दे रही है वह संकुचित और रूढ़िवादी है| जाहिर है यह सिर्फ़ बहुसंख्यक धार्मिक समूहों को तुष्ट करने के लिए और असहमति के स्वर दबाने वाली कवायद है| अफ़सोस की बात है, राष्ट्रवाद की इतनी संकीर्ण दृष्टि सत्तारूढ़ पार्टी की है| यह भारतीय समाज की समरसता के लिए खतरनाक है| आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रवाद की उसकी अवधारणा भारतीय संविधान में निहित उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती देती है| जिन्होंने भारतीय संविधान कभी सम्मान की नजर से नहीं देखा उनके लिए यह राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रही एक पेचीदा बहस के लिए मुश्किल समय है क्योंकि वे सत्ता में हैं और संविधान को नकार नहीं पा रहे हैं|
आज ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रवाद की परिभाषा को तय करने पर अपना एकाधिकार मान लिया है| उनसे अलग सोच रखने वाले बुद्धिजीवी, छात्र और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनका कोपभाजन होना पड़ रहा है |यह विडंबना है कि बीजेपी के शोर-शराबा वाले राष्ट्रवाद की निंदा करने वाले संगठित नहीं हैं| नतीजतन बीजेपी का विरोध करने की उनकी रणनीति उतनी सफल नहीं है लेकिन उसे अलक्ष्य भी नहीं किया जा सकता|
बीजेपी जिसने संविधान में उल्लिखित बहुलतावाद और धर्मनिरपेक्षता के प्रति कभी भी बहुत आस्था नहीं दिखाई अब अपनी विचारधारा के ख़िलाफ़ सवाल उठाने वालों को आंखें दिखा रही है| इसका ताज़ा उदाहरण शाहीन बाग और उससे पीछे जामिया मिल्लिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और आसाम के एन आर सी, सीएबी और सीएए विरोधी प्रदर्शन, आंदोलन से उसकी झल्लाहट है| जिसका एक उदाहरण जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के कुछ छात्रों को प्रताड़ित करने के रूप में हमारे सामने है| दशकों से जेएनयू अपने वाम रुझानों के लिए जानी जाती रही है| इसीलिए बीजेपी उसकी स्वायत्तता नष्ट करने में ही अपनी भलाई देख रही है|
विगत में छात्रों पर 2001 में संसद पर हमला करने के मामले में दोषी अफज़ल गुरु की फांसी की बरसी मनाने का आरोप लगाए गये| इस मौके पर छात्रों के कथित रूप से ‘भारत-विरोधी नारे’ लगाने के आरोप में मुकदमे दर्ज हुए| भयानक मीडिया ट्रायल होते रहे| अब भी हो रहे हैं| ये बिल्कुल बेतुकी बात है कि इस तरह की बचकाना बातें भारतीय गणराज्य या भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देती हैं. अफज़ल गुरु को राष्ट्रपति के दया याचिका ख़ारिज करने के बाद 2013 में फांसी दी गई थी. फिर उनकी मौत की बरसी मनाना शायद ही कोई अच्छा फ़ैसला होगा. यह न समझ पाना छात्रों की भूल थी. लेकिन वर्तमान सरकार इस आयोजन की सिर्फ़ निंदा करके मामले को रफ़ा-दफ़ा कर सकती थी. परंतु सरकार ने इसके बदले यूनिवर्सिटी कैंपस में पुलिस भेजी और छात्र संघ अध्यक्ष समेत दूसरे छात्रों को गिरफ़्तार किया| अब भी फीस बढ़ाने के खिलाफ़ विद्यार्थियों के प्रदर्शन पर वही पुराना रुख अपनाया गया| अगर यूनिवर्सिटी प्रशासन और वी सी की दलील मान लें कि छात्रों को नियंत्रित करना मुश्किल रहा हो| छात्र संघ अध्यक्ष को सार्वजनिक रूप से पुलिस की दमनात्मक कार्यवाही का सामना पड़ा| उसे चोट आई| उसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया| सरकार ने असहमति के स्वर दबाने के लिए औपनिवेशिक काल के राजद्रोह क़ानून का सहारा लिया| और हद यह कि अब किसी पर भी बिना जाँच पड़ताल के इसे लगाया जा रहा है| उत्तर प्रदेश इसकी बहुत बड़ी मिसाल है|
पूरे देश में राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह की आक्रामक और भावनात्मक बहस छेड़कर सत्तारूढ़ पार्टी ने बहुसंख्यक संप्रदाय में देशप्रेम का लम्पट जूनून और उन्माद पैदा करने में सफलता हासिल कर ली है|भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसमें अपना बेहद अविवेकी, बेईमान और कपटपूर्ण रुख अपनाया है|
बहुत चालाकी से सत्तारूढ़ पार्टी ने आम आदमी का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी, गिरती हुई अर्थव्यवस्था, बैंकों के एनपीए, भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था, किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों की जगह राष्ट्रद्रोह की ओर मोड़ दिया है| इससे भाजपा और संघ के समर्थक पूरी तरह बेकाबू होने लगे हैं| मंत्री खुलेआम गरियाने और धमकाने लगे हैं| असहिष्णुता की जो बात पहले चली थी वह अब वास्तविक रूप में हमारे सामने है| सोशल मीडिया पर जुनूनी लोग हर उस शख्स की ऐसी तैसी कर रहे हैं जो सत्तारूढ़ पार्टी से असहमति दिखा रहा है| यह बहुत निम्नस्तरीय सोच है| यह जो माहौल है यह अंततः बीजेपी के लिए भस्मासुर का ही काम करेगा| चाहे बीजेपी आज कितनी ही बलवान क्यों न दिख रही हो|
लेखक साहित्यिक पत्रिका ‘धरती’ के सम्पादक, कवि-आलोचक एवं स्वतन्त्र पत्रकार हैं|
सम्पर्क- +917727936225, shailendrachauhan@hotmail.com