एक उपेक्षित वर्ग की अपेक्षा
पिछले कुछ वर्षों से किन्नर विमर्श एक ऐसे विमर्श के रूप में उभरा है जो सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। किन्नरों की बात करते ही तथाकथित सभ्य समाज अथवा मुख्य धारा की समाज के मन में उनके प्रति एक उपेक्षा का भाव जागृत होने लगता है। किन्नर अपनी कला को रोजगार का माध्यम बनाकर अपना जीवन यापन करने को बाध्य हैं। अक्सर हम “शुभ कार्यों में किन्नरों के नाच-गानों से ही कार्यक्रम का सफल समापन मानते हैं। यह सिर्फ वास्तविकता का धरातल पर ही नहीं है, बल्कि फिल्मों तथा धारावाहिकों में तो यह दृश्य आम है, जब किसी शुभ कार्य के दौरान आपको किन्नरों के घुंघरूओं की आवाज और तालियों की गड़गड़ाहट देखने-सुनने को मिल जाती है। या फिर हरम में रानियों की सेवा करते हुए इन्हें दिखाया जाता है।
किन्नर समाज को बस इतने ही सीमा में बाँधकर अक्सर हमारे सामने पेश किया गया है। किन्तु इससे परे भी एक यथार्थ की दुनिया है जो कुछ और ही बयां करती है। आधुनिक दौर में उपजे विमर्श और अस्मिताओं के आन्दोलन का प्रभाव किन्नरों की स्थिति पर थोड़ी-बहुत जरूर पड़ी है। किन्तु इनके जीवन स्तर में कोई व्यापक बदलाव नहीं देखा जा रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी॰एन॰ शेषन ने 1994 में किन्नरों को मताधिकार दे दिया था, इसके बाद 15 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रुप में कानूनी पहचान दी। पिछले कुछ समय से उन्हें उनके हक दिलाने की लगातार मुहिम चल रही है।
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संसद में पेश हुए विधेयक के जरिये किन्नरों के अधिकारों के संरक्षण के लिए केन्द्रीय कैबिनेट ने ‘ट्रांसजेंडर पर्सन’ बिल 2016 को मंजूरी दी। सर्वोच्च न्यायालय का एक और फैसला आया कि उन्हें शिक्षा व रोजगार के अवसर मुहैया करवाये जाने चाहिए। लिंगानुगत समस्याओं का निराकरण करते हुए चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध की जानी चाहिए, इन्हें बच्चा गोद लेने का भी अधिकार होगा। सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। चिकित्सा द्वारा स्त्री-पुरुष किसी भी लिंग के रूप में स्वयं को परिवर्तित करवा सकते हैं। इन सभी सुविधाओं को देने के उपरान्त क्या समाज में किन्नरों के प्रति लोगों का नजरिया बदला है?
अगर हम यथार्थ की धरातल पर कदम रखें तो हम पाते हैं कि इनमें से अधिकांश बातें खोखले हैं, जो सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। आज भी किन्नर समुदाय एक उपेक्षित जिंदगी जीने को बाध्य हैं। कभी उन्हें अलग शौचालय के लिए मांग करते देखा जाता है, तो कभी स्कूल काॅलेज अथवा विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए संघर्ष करते देखा जा सकता है, तो कभी रोजगार के लिए गुहार लगाते। किन्तु आज तक उनकी स्थिति यथावत बनी हुयी है। आज भी शायद ही कोई ऐसा रोजगार, शिक्षा या कोई अन्य आवेदन हो, जिसमें किन्नरों के लिए काॅलम दिखता हो। उनके साथ मुख्यधारा का समाज हमेशा से दोयम दर्जे का व्यवहार करता रहा है।
’अग्निपथ’ फिल्म का वह दृश्य सबको याद होगा जब ऋत्विक रोशन की बहन के साथ कुछ गंुडे अभद्र व्यवहार करते हैं, तब अपने-आप को मर्द कहने वाला तथाकथित समाज उस बच्ची की मदद करने से पीछे हट जाते हैं और तमाशबिन बने रहते हैं।
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ऐसी स्थिति में किन्नर समाज के लोग जिसे नामर्द, छक्का, मौगा आदि शब्दों से हमारा सभ्य समाज संबोधित करता है, वह आकर उस बच्ची की रक्षा करते हैं। फिल्मों की दुनिया के शुरूआती दौर को छोड़ दें तो बाद के दौर में ऐसी कई फिल्में बनी जिसमें किन्नरों को मां और पालनकर्ता तथा एक सशक्त नागरिक के रूप में फिल्माया गया। रवि किशन फिल्म बुलेट राजा, परेश रावल फिल्म तमन्ना, रज्जों में महेश मांजरेकर, सड़क में सदाशिव राव, शबनम मौसी में आशुतोष राणा, क्वीन्स डेसटिनी आॅफ डांस में सीमा विश्वास, अतुल कुलकर्णी फिल्म राजा हिन्दुस्तानी आदि हो या पाकिस्तानी फिल्म बोल हो, सभी ने किन्नर समुदाय को एक नये रूप में पेश किया।
अभी हाल ही में स्टार प्लस पर प्रसारित टीवी धारावाहिक ’सर्वगुण संपन्न एक भ्रम’ में एक किन्नर को एक शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में पेश किया गया है। यह किन्नर दो अनाथ बच्चियों की परवरिश करता है, साथ ही उन बच्चियों को पिता के कातिल से बदला लेने में मदद करता है। इस धारावाहिक में जो ममता, शालीनता एक किन्नर के भीतर दिखायी गयी है, वे काबिले तारीफ है। यह बहुत हद तक सत्य भी है क्योंकि किन्नर समाज देश के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभा ही रहे हैं, साथ ही वे व्यक्तित्व के भी धनी होते हैं। लेकिन हमारा सभ्य समाज इस यथार्थ को अपने जीवन में शायद ही स्वीकार कर पायेगा।
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कुछ महीने पहले वर्णिका कुंडु की गाड़ी का पीछा बीजेपी के एक नेता के बेटे के द्वारा किया गया था तथा अभद्रता अपनायी गयी थी, जिसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के द्वारा ’मेरी रातें मेरी सड़कें’ चलाया गया था। इस अभियान के तहत देश के विभिन्न हिस्सों में रात को महिला समुदाय सड़कों पर नाचने, गाने और चहलकदमी करने की मुहिम छेड़ रखी थी। इस मुहिम के तहत बिलासपुर(छ.ग.) में भी मुहिम चलायी गयी, जिसमें मैं भी शामिल हुयी थी। इसमें खास बात यह थी कि बड़े तबके में किन्नरों का समुदाय भी इस मुहिम के सहयोग में उतरा था। इस कार्यक्रम के दौरान हम सब अपनी-अपनी बातों में मशगूल थें, तभी एक सुरीली सी आवाज में पुराने गानों के बोल सुनाई दिये।
जब हमने उस ओर देखा, जिस ओर से यह आवाज आ रही थी, तब हम स्तब्ध रह गये, यह देखकर कि यह आवाज एक किन्नर की थी। खैर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच गाना समाप्त हुआ। तभी उनमें से एक किन्नर ने कहा कि- “ मैं भी अपनी बात आप सब के समक्ष रखना चाहता हूँ। महिला और पुरूष किसी के साथ कोई हिंसा होती है, तब उनके लिये तो तमाम कानून बने हैं, उनके साथ पूरी भीड़ इकट्ठी हो जाती है, लेकिन हमारा क्या? हमारा ना तो कानून साथ देता है और ना कोई हमारे साथ खड़ा होता है। हमारे साथ आये दिन दुष्कर्म किये जाते हैं। हम हर रोज हिंसा के शिकार होते हैं, तरह-तरह के यातनाओं से गुजरते हैं, लेकिन हमारे साथ कोई भी इंसानी संवेदना नहीं बरती जाती।
इसलिए आप सब प्लीज हमारे लिए भी सोचिए और ऐसी संवेदना हमारे लिए भी रखिए।” यह सब बातें सुनने के बाद वहां सन्नाटा पसर चुका था। हम सब खामोश थें, क्योंकि हमारे पास कोई उत्तर नहीं था।
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इस वर्ष मैंने लगभग 4-5 यात्रायें की। इन यात्राओं के दौरान मैंने ट्रेन में चढ़ने वाले किन्नरों पर लगातार गौर किया। मैंने पाया कि ये किन्नर पहले की तरह लोगों से जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहे थें, ना ही मारपीट कर रहें थें, जिसने जो दिया उसे लेकर वे खुशी-खुशी चलते बने। कुछ तो देखने में ऐसे प्रतीत हो रहे थें कि किन्नर नहीं बल्कि किन्नर के वेश में कोई और हों, जो किन्नर समुदाय की आड़ में उन्हें बदनाम तो कर ही रहे हैं, साथ ही अपनी रोजी-रोटी का जरिया इसी वेश-भूषा को बना रखे हैं।
एक बात और गौर करने वाली है कि सरकार और समाज के साथ-साथ मीडिया ने भी इस वर्ग को प्रारंभ से ही उपेक्षित कर रखा है। इनसे जुड़ी खबरें कभी-कभी सुर्खियां अथवा वोट बैंक बटोरने के लिए हेडलाइन तो बन जाती हैं, पर कभी इसे मीडिया ट्रायल का हिस्सा नहीं बनाया जाता। जिस तरीके से मीडिया में इनकी खबरें गैर मौजूद रहती है, उससे कभी प्रतीत नहीं होता कि महिला-पुरूष के अलावा कोई तीसरा लिंग भी हमारे बीच विद्यमान है, या फिर उनके साथ कोई हिंसा या दुव्र्यवहार समाज में किया जाता है।
किन्नरों की दृष्टि से छत्तीसगढ़ इतिहास में उस समय दर्ज हो गया, जब पहली बार रायपुर में 30 मार्च 2019 को किन्नरों का सामूहिक विवाह पूरे रीति-रिवाज से संपन्न कराया गया। अगर ऐसे पहल होते रहें तो निश्चित ही इनके जीवन में सुधार हो सकता है और कागजों से निकल कर यथार्थ की धरातल पर चीजों को अमल किया जायेगा। जब सुधार होगा, तो उपेक्षायें खुद-ब-खुद कम हो जायेगी और यह लिंग भी हमारे समाज के मुख्यधारा का हिस्सा बन जायेंगे। साथ ही मां-बाप भी ऐसे बच्चों को अपनाने में संकोच नहीं करेंगे।
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