- विजय कुमार
फिर लगभग 30 साल का कोर्स पूरा हुआ कि पूरा भारतीय समाज खास कर युवा वर्ग आरक्षण समर्थन और आरक्षण विरोध की चक्की में पिसता रहा| हालात यह हो गई की समर्थन और विरोध करने वाले आपस में दुश्मनी की सीमा तक भी कहीं-कहीं गए| समग्र समाज पर भी इसका प्रभाव पड़ा| ऐसा नहीं है कि इन 30सालो में कुछ अच्छा नही हुआ, बहुत कुछ बदला, समाज के कमजोर तबके खासकर पिछड़े वर्ग से आने वाले युवाओं के आत्मविश्वास बढ़े, आत्महीनता टूटी। दूसरी तरफ अहंकार भी कमजोर पड़ा, कुछ बुरी बातें भी हुईं| वह इस रूप में हुआ कि युवा और छात्र शक्ति खण्डित हो गई और बदलाव के समग्र स्वर नही उभर पाए| इस दौर में हमारी लड़कियाँ भी चौखटे से बाहर निकली हैं| जिंदगी की चुनोतियों से दो हाथ हो रहें है, पर खतरे को रेखांकित करने में सामुहिक चेतना नही बन पा रही है। इन 30 सालों में व्यवस्था में समाज के समर्थ लोगों ने बहुत ही चालाकी से जाति और सम्प्रयदाय के, लिंग के, सवालों पर अलग अलग और एकाकी प्रयास तथा अभ्यास को जन्म दिया। आरक्षण का प्रश्न जो विशेष अवसर था वह एक मात्र समाधान के रूप में पेश किया गया और युवा शक्ति ने इसे लिया भी इसी रूप में| ऐसा प्रचारित किया गया जैसे आरक्षण मिल गया तो नौकरी और रोजगार की गारंटी हो गयी| समता का तत्त्व पीछे छूट गया, अहँकार उत्तेजना और दूसरे अन्य गैर जरूरी सवालो में उलझा दिया गया।
आज जब लोकसभा और राज्यसभा से 10% का आर्थिक आरक्षण बिल पास हो गया तब एक अवसर और चुनौती युवा के सामने आया है| इन 30सालों में बाजार मजबूत हुए हैं, सरकार और बाजार के बीच समझौता हुआ है, थोड़े से लोगों की अमीरी बढ़ी है, 90 %लोगों की कठिनाई बढ़ी है, आधुनिकीकरण के बहाने सरकारी क्षेत्र सहित निजी क्षेत्रों में भी नौकरी और रोजगारों के अवसर घटे हैं। जीवन स्तर के हिसाब से आम आदमी आभाव का शिकार हुआ है| शिक्षा, स्वास्थ और ग्रामीण रोजगार के क्षेत्र में एक प्रकार की उदासी, अराजकता, और कुव्यवस्था का आलम है। कभी युवा देश बदलने का सपना देखते थे अब स्वयं को बदलने और टिकाये रखने में परेशान हैं ।
अनजाने में ही सही 10% आर्थिक आरक्षण के बाद आरक्षण का दायरा कम से कम 90% लोगों को समेट चुका है| नौकरी है नहीं। रोजगार है नहीं। तब यह अवसर आया है कि जाति, धर्म और लिंग में बाँट दिए गए युवा और छात्र शक्ति मिलकर रोजगार के सवाल पर बात करें| सत्ता, सम्पत्ति, विषमता के खेल को समझें और बेनकाब करें| इसमें बौद्धिक वर्ग खास कर शिक्षक वर्ग की बड़ी भूमिका बनती है, जिन्हें विभिन्न वेतन आयोगों के माध्यम से दलाल बनाने की पूंजीवादी कोशिश की गई है। यहाँ हम यह कहना चाहेंगे कि सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास का सवाल हो या सबका साथ सबका विकास का सवाल हो उसे सबका विकास सब प्रकार का विकास और सबके द्वारा विकास अर्थात भागीदारी और हिस्सेदारी वाला विकास की चुनौती स्वीकार करनी होगी| जाति, सम्प्रदाय,लिंग के स्तर पर जो विभाजन है उसका सुनहरा पक्ष है कि लोग अब वैचारिक या दैविक या शात्रीय मान्यताओं को इनकार कर चुके हैं| बहुत सारी दूरियां मिटी भी हैं, जो लोग उच्चवर्गी कहे जाते थे, उनका अहंकार टूटा है| उनके पास लड़ने-भिड़ने का हुनर और सामर्थ्य भी है परंतु वे अपने को विगत 30 सालो में उपेक्षित महसूस कर रहे थे। दूसरी तरफ जो निम्नवर्गी कहे जाते थे, उनकी आत्महीनता टूटी है परंतु उनके अंदर भी नकली जलन ठुसा गया है| सवर्ण और अवर्ण में बटे युवा और छात्र शक्ति के सामने चुनौती है कि उपेक्षा से उपजी कुंठा और जलन के जहर से दोनों बाहर कैसे आएंगे| अगर समता और न्याय का, प्रेम और करुणा का भारत बनाना है, तो वक्त आया है कि अब 90%आरक्षित घेरे के छात्र, युवा, लड़के,लड़कियाँ,
यहाँ यह समझना जरुरी है कि सभी स्तर के आरक्षण के अंदर आर्थिक रूप से मजबूत लोग ही फायदा नहीं ले जाएं,इसका इंतजाम करना सही होगा। इस आलोक में ओ.बी.सी. के लिए कोटे का विभाजन जरुरी है। क्रीमीलेयर का मापदंड ठीक-ठाक करना चाहिए| इसके लिए ग्राम पंचायत और नगर पंचायत को ताकतवर करना चाहिए। निजी और न्यायपालिका में आरक्षण का मसला भी हल होता जायगा। आरक्षण के लेकिन-किंतु-परंतु से आगे की चुनौती है कि नौकरी किधर है? रोजगार किधर है? इसमें खेती,किसानी आधारित उद्योग, ग्रामीण उद्योग, कुटीर उद्योग ज्यादा मदद करेगा।ये सारे मसले अगली लड़ाई के मसले भी होंगे।
लेखक गांधीवादी चिन्तक हैं|
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