अंतरराष्ट्रीय

भारत की विदेश-नीति और पड़ोसी देश

 

विदेश नीति सदैव राष्ट्रीय हित में होती है। राष्ट्रीय हित के साथ विदेश नीति का गहरा सम्बन्ध है। इस नीति से देश के हितों की रक्षा के अतिरिक्त अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपने लक्ष्यों को हासिल करने के प्रयत्न किये जाते हैं, विदेश नीति का सम्बन्ध देश के विकास, सुरक्षा, आर्थिक लाभ, मानवीय सहायता आदि से है। कोई भी देश अपने पड़ोसी देशों से अपना सुदूर देशों से भी सदैव कट कट मुँह फेर कर नहीं रह सकता। अब किसी भी देश को विदेश नीति में सुरक्षा और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का अधिक महत्त्व है। समय के अनुसार एक देश के दूसरे देशों से सम्बन्ध बदलते और विकसित होते रहते हैं, पहले जिस तरह दुनिया के देश एक दूसरे से अलग-थलग रहते, रह सकते थे, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद वह सम्भव नहीं रहा।

संयुक्त राष्ट्र कुल 195 देशों को मान्यता देता है, जिसमें 193 देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं और दो – वेटिकन सिटी और फिलिस्तीन को उसने मान्यता नहीं दी है, ये दोनों गैर सदस्य पर्यवेक्षक राज्य हैं। कई प्रदेश और इलाके अब भी दूसरे देशों द्वारा शासित हैं। प्यूर्टो रिको को अब थोड़ी स्थानीय स्वायत्तता प्राप्त है, पर अमेरिकी संविधान के अनुसार द्वीप का अन्तिम शासन अमेरिकी काँग्रेस और अमेरिकी राष्ट्रपति के पास है। ग्रीनलैंड स्वतन्त्र न होकर डेनमार्क राजशाही के अधीन एक स्वायत्त घटक देश है, जिसकी अपनी कोई स्वतन्त्र विदेश नीति नहीं है। यूरोप में 43, एशिया में 47, अफ्रीका महाद्वीप में 54, ऑस्ट्रेलिया में 14, उत्तरी अमेरिका में 23 और दक्षिण अमेरिका में कुल 12 देश हैं। ये सभी देश एक दूसरे से अनेक अर्थों में भिन्न है।

इन देशों में विकसित देशों की संख्या संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मात्र 11 है। नार्वे, ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, इटली, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड और अमेरिका केवल आर्थिक दृष्टि से ही विकसित देश नहीं है। केवल आर्थिक समृद्धि के आधार पर ही किसी भी देश को विकसित नहीं कहा जा सकता, और भी कई पैमाने हैं। विकसनशील या विकासशील देशों की संख्या सर्वाधिक है। ऐसे देश 126 हैं, जिनमें भारत, चीन, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, ब्राजील, मैक्सिको, दक्षिण कोरिया, तुर्की, थाइलैंड आदि देश हैं। अविकसित देशों की संख्या 46 है, जो विश्व जनसंख्या का 14 प्रतिशत है। यहाँ 1 अरब 10 करोड़ की आबादी है, इन देशों में 45 प्रतिशत से अधिक लोगों का जीवन निर्धनता में बीतता है। अफगानिस्तान, हैती और यमन ऐसे ही देश हैं। जाहिर है, इन देशों की जो विदेश नीति होगी, वह विकासशील देशों की नहीं होगी और विकसित देशों की विदेश नीति इन देशों से एकदम भिन्न होगी।

भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू (14.11.1889 – 27.5.1964) ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध में तटस्थता बनाये रखने के लिए गुट निरपेक्ष आन्दोलन के गठन में मुख्य भूमिका का निर्वाह किया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में दो शक्ति केन्द्र (पावर ब्लॉक) बने- संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस। दुनिया के देशों की और नव स्वाधीन देशों की यह मजबूरी थी कि वे इनमें से किसी एक के साथ सम्बन्ध स्थापित करें। गुट निरपेक्ष आन्दोलन का का आरम्भ बांडुंग सम्मेलन से हुआ अप्रैल 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में एशियाई और अफ्रीकी देशों की 29 सरकारों के प्रतिनिधि शांति और शीतयुद्ध, आर्थिक विकास और विउपनिवेशी राज में तीसरी दुनिया की भूमिका पर विचार करने के लिए इकट्ठे हुए थे।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का आरम्भ भारत के प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर (15.1.1918 – 28.9.1990) और युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज टीटो (7.5.1892 – 4.5.1980) ने मिल कर किया था। एक ऐसे अन्तरराष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता महसूस की गयी जो किसी भी पावर ब्लॉक से न अड़ा हो और स्वतन्त्र हो। एशिया और अफ्रीका के नव स्वाधीन देशों को अपना भविष्य-मार्ग स्वयं निर्मित करना था। 1961 में बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में इसका औपचारिक रूप से गठन हुआ। इसके प्रमुख उद्देश्यों में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध, सैन्य गठबन्धनों से दूरी, रंग-भेद-नीति का विरोध, शीतयुद्ध की राजनीति का त्याग, स्वतन्त्र अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अनुसरण, मानवाधिकारों की रक्षा सब शामिल थे। 1 सितम्बर 1961 को स्थापित इस संगठन में 2012 तक कुल 120 देश शामिल थे, जो सभी विकासशील देश थे। इस वर्ष जनवरी में युगांडा के कंपाला में गुट निरपेक्ष आन्दोलन का 19वाँ शिखर सम्मेलन हुआ था, जिसमें 120 सदस्यों में से 90 देशों ने भाग लिया था। गुट निरपेक्ष आन्दोलन में शामिल 121 देश संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्य देशों का साठ प्रतिशत है।

विगत दस वर्ष के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारत की गृह-नीति, अर्थनीति, विदेश नीति सब लड़खड़ायी हुई है। शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत रूस के विघटन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय बन गयी। नव उदारवादी अवस्था ने सभी क्षेत्रों में क्रमश: परिवर्तन लाना आरम्भ किया। भूमंडलीकरण को किसिंजर ने अमेरिकीकरण कहा है। एक ध्रुवीय विश्व का अर्थ है, पूरी दुनिया में अमेरिका का वर्चस्व इस दौर में अमेरिका से पूर्णतः अलग-थलग रहना किसी भी विकसनशील देश के लिए सम्भव नहीं था। भारत की विदेश नीति पर बात करते हुए संक्षेप में ही सही, देश की गृह-नीति और अर्थनीति को जानना आवश्यक है, क्योंकि भारत आज जहाँ खड़ा है, उसके आगे कोई सीधी राह दिखाई नहीं देती।

भारत कर्जदार देशों की सूची में आठवें स्थान पर है। पिछले वर्ष 2023 तक इस पर 3 हजार 57 अरब डॉलर का कर्ज था। भारत में जितना विदेशी मुद्रा भण्डार है – 4.54 मिलियन अमेरिकी डॉलर, उससे कहीं अधिक देश ऋण-ग्रस्त है। भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर 1 हजार 967 अमेरिकी डॉलर का कर्ज है, जो रुपये में 1 लाख 65 हजार 114 रुपये से कुछ अधिक है। आज जैसी आर्थिक असमानता और बरोजगारी देश में कभी नहीं थी। ऐसा नहीं होता है कि हम किसी एकाध नीति में सफल हो, शेष में असफल, विभिन्न प्रकार की नीतियों में भी एक आन्तरिक सम्बन्ध होता है। 16 महीने से मणिपुर जल रहा है, पर प्रधानमन्त्री एक बार भी वहाँ नहीं गये। वे गणेश चतुर्थी के दिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के आवास पर जाकर आरती कर सकते हैं पर मणिपुर जाकर वहाँ के लोगों के दुःख-दर्द पर मलहम नहीं लगा सकते हैं। उनके कार्यकाल में भारत में पहली बार एक राज्य को तोड़ा गया। जम्मू-कश्मीर क्या अब एक शान्त राज्य है?

नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह (26 मई 2014) में पड़ोसी देश की सरकार के प्रमुखों, राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था। उनके शपथ ग्रहण समारोह में सात देशों के प्रमुख और बांग्लादेश से वहाँ के प्रतिनिधि उपस्थित थे। अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई, भूटान के प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे, मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन, नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराण, पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ, श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे, मॉरीशस के प्रधानमन्त्री नवीन एमगुलाम की उस पर उपस्थिति थी, बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना जापान यात्रा पर थीं और उन्होंने संसदीय अभ्यास शर्मिन चौधरी को भेजा था।

नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण कार्यक्रम को ‘प्रमुख कूटनीतिक कार्यक्रम’ के रूप में देखा गया था। सभी सार्क सरकार प्रमुखों ने उनके शपथ ग्रहण समारोह में भाग लिया था। उनमें से आज एक भी उस समय के पद पर नहीं हैं, नरेन्द्र मोदी उस समय से अब तक लगातार प्रधानमन्त्री हैं। प्रधानमन्त्री बनने के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा भूटान की थी (14-16 जून 2014) और वे इसी वर्ष सार्क सम्मेलन में नेपाल गये थे (25-27 नवम्बर 2014), नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद उस वर्ष के सार्क सम्मेलन को छोड़‌कर आज तक कोई सार्क सम्मेलन नहीं हुआ है। यह 18वाँ सार्क शिखर सम्मेलन था, जिसमें बांगलादेश, भूटान, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री एवं अफगानिस्तान, मालदीव और श्रीलंका के राष्ट्रपति उपस्थित थे। बांग्लादेश के पूर्व राष्ट्रपति जिया उर रहमान (19.1. 1936 – 30.5.1981) सार्क (साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) के जनक थे।

भारत सहित दक्षिण एशियाई देश 9 हैं- अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, ईरान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका। इनमें से ईरान को छोड़कर सभी देश भारत के पड़ोसी देश हैं। इनके अतिरिक्त केवल एक देश चीन भी भारत का पड़ोसी देश है। बांग्लादेश के पूर्व राष्ट्रपति जिया उर रहमान ने सार्क की नीव रखी थी। मई 1980 में उन्होंने दक्षिण एशियाई देशों के बीच क्षेत्रीय सहयोग के लिए एक आधिकारिक ढाँचा स्थापित करने का विचार क्षेत्र की अन्य सरकारों को भेजे गये पत्र में साझा किया था। इसके बाद सात संस्थापक देशों के विदेश सचिवों ने कोलम्बो में पहली बार अप्रैल 1981 में एक दूसरे से भेंट और बातें कीं। 8 दिसम्बर 1985 को ढाका में सार्क चार्टर पर हस्ताक्षर के साथ इसकी स्थापना हुई। एक को छोड़कर ‘सार्क’ के सभी देश भारत के पडोसी देश हैं: यह इसमें शामिल देशों का आर्थिक राजनीतिक संगठन है। दूसरे चौदहवें सम्मेलन (अप्रैल 2007) में अफगानिस्तान आठवाँ सदस्य देश बना। 2014 के अठारहवें सम्मेलन के बाद पाकिस्तान को 19वाँ सार्क शिखर सम्मेलन इस्लामाबाद में 2016 में करना था, पर उरी में हुए आतंकी हमलों के बाद भारत ने इस हमले में पाकिस्तान की संलिपत्ता का आरोप लगा कर अपनी भागीदारी रद्द कर दी थी। भारत के बहिष्कार के फैसले के बाद बांग्लादेश, अफगानिस्तान, भूटान, मालदीव और श्रीलंका ने भी सम्मेलन का बहिष्कार किया।

सार्क के प्रथम शिखर सम्मेलन (ढाका, 1985) में भारतीय प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने सार्क की स्थापना को ‘विश्वास का कार्य’ बताया था – ‘एक महान दूरदर्शिता और राजनीतिक कौशल का कार्य’। उस समय उन्होंने गिलास आधा भरे होने और आधा खाली होने की बात कही थी- “हमें यह स्वीकार करके खुद को चुनौती देनी चाहिए कि क्षेत्रीय सहयोग, क्षेत्रीय विकास और क्षेत्रीय एकीकरण का गिलास आधा खाली है।” 2014 के बाद आज तक सार्क का कोई शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है, जबकि सार्क के सभी देश, पड़ोसी देश हैं। सार्क के 16वें शिखर सम्मेलन में, जो सार्क का रजत जयन्ती वर्ष भी था, (28-29 अप्रैल 2010, भूटान), भारतीय प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने स्वयं से यह पूछने को कहा था कि हम अपनी वर्तमान और भावी पीढ़ि‌यों के लिए किस तरह का दक्षिण एशिया बनाना चाहते हैं। 21वीं सदी एशियाई सदी नहीं बन सकती, जब तक कि दक्षिण एशिया एक साथ आगे नहीं बढ़ता। उन्होंने तब दक्षिण एशिया में ‘समावेशी विकास के एक दृष्टिकोण’ की बात कही थी।

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अब तक जितनी विदेश यात्राएँ की हैं, उनमें यह देखना चाहिए कि अपने पड़ोसी देशों की उन्होंने कितनी यात्राएँ की है। क्यों प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारत का पड़ोसी देशों से मैत्रीपूर्ण संघ पहले की तरह नहीं रहा है। 2014 के म्यामार सम्मेलन (11-13 नवम्बर, ईस्ट एशिया सम्मेलन) में मोदी ने ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ की शुरुआत की। इसके तेईस वर्ष पहले 1991 में प्रधानमन्त्री नरसिंह राव ने ‘लुक ईस्ट पालिसी’ की शुरूआत की थी। 2014 में शपथ-ग्रहण के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ‘पड़ोसी देश पहले’ (‘नेबरहूड फर्स्ट’) की नीति प्रतिपादित की थी, पर उन्होंने पड़ोस को अधिक तरजीह नहीं दी। विगत दस वर्ष में भारत का अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध कहीं अधिक बिगड़ा है।

भारत के कुल 9 पड़ोसी देश हैं- उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान और पाकिस्तान, उत्तर में चीन, भूटान और नेपाल, पूर्व में बांग्लादेश, सुदूर पूर्व में म्यांमार (बर्मा), दक्षिण पूर्व में श्रीलंका और दक्षिण पश्चिम में मालदीव। भारत का कई पड़ोसी देशों से सम्बन्ध द्विपक्षीय तौर के अलावा सार्क के जरिये रहा है और सार्क की स्थिति यह है कि विगत दस वर्ष से उसका कोई शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सार्क’ को सक्रिय करने की कोई विशेष पहल भी नहीं की है उनके लिए पड़ोसी देशों से अधिक महत्त्वपूर्ण खाड़ी के देश और अन्य यूरोपीय-गैर यूरोपीय देश हैं। पड़ोसी देशों में से भारत की स्थल सीमा 7 देशों- चीन, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार से मिलती है। ये सभी देश भूमि सीमा साझा करने वाले देश हैं और दो-देश, दक्षिण-पूर्व में श्रीलंका और दक्षिण पश्चिम में मालदीव जल सीमा वाले देश हैं ये सभी निकटतम पड़ोसी देश हैं।

प्रधानमन्त्री को जब अपने एक राज्य मणिपुर की ही 16 महीनों से कोई चिंता न हो, तो पड़ोसी देशों के प्रति क्या उनकी चिंता सम्भव है? भौगोलिक सीमाएँ नयी नहीं है। उनकी वजह के साथ अन्य वजहों से भी, पड़ोसी देशों से भारत के सम्बन्ध में तिक्तता आ गयी है। पड़ोसी देशों में से सबसे भारत उनकी क्षेत्रीय अखंडता तथा सम्प्रभुता का निर्वाह करता रहा है, पर चीन ने लद्दाख अरुणाचल प्रदेश में इसका उल्लंघन किया है। चीन को छोड़कर भारत अपने अन्य सभी पड़ोसी देशों से कहीं अधिक विशाल और क्षमतावान है। भारत की स्थल सीमा जिन सात पड़ोसी देशों से मिलती है, उसकी लम्बाई 15 हजार 200 किलोमीटर है और दो पड़ोसी देशों से समुद्र तट की कुल लम्बाई 7 हजार 516 किलोमीटर से कुछ अधिक है।

नरेन्द्र मोदी ने चीन की यात्रा अब तक कुल 5 बार की है- 2015 (14-16 मई), 2016 (4-5 सितम्बर), 2017 (3-5 सितम्बर) और 2018 के बाद में दो बार (27-28 अप्रैल और 9-10 जून) 2019 से उन्होंने चीन की यात्रा नहीं की है। चीन भारत को इस महाद्वीप में सीमित रखना चाहता है। उसकी विस्तारवादी नीति को समझने में शायद चूक हुई है- 1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन ने अक्साई चीन में लगभग 14 हजार 700 वर्ग मील (38 हजार वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र पर कब्जा किया, जो दोनों देशों के बीच विवाद का प्रमुख कारण रहा है, दक्षिण एशिया के देशों में चीन के प्रवेश और उसके मंसूबों को समझने में या तो देर हुई या उसका कोई कूटनीतिक हल नहीं निकाला गया। भारत और चीन के बीच की प्रतिस्पर्धा भूमि-सीमा के कारण ही नहीं, हिन्द महासागर क्षेत्र के कारण भी है। दोनों देशों के बीच का तनाव भूमि-सीमा के अलावा हिन्द महासागर तक फैला हुआ है।

भारत और चीन के बीच 2 हजार 100 मील की लम्बी विवादित सीमा है, जिसे लेकर झड़‌पें और तनातनी होती रहती है। भारत-चीन सीमा पर गतिरोध कई वर्षों से कायम है- हिन्द महासागर चीन के लिए व्यापार मार्गों के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण है। दक्षिण एशियाई देशों में चीन का प्रभाव बढ़ा है और भारत का घटा है। अभी अनीता सेन गुप्ता और प्रिया सिंह द्वारा जो सम्पादित पुस्तक ‘चाइना इन इंडियाज नेबरहुड शिफ्टिंग रीजनल नरेटिव्स’ (रूटलेज, 2024) प्रकाशित हुई है, उससे भारत के पड़ोसी देशों में चीन के प्रभाव, उसके हस्तक्षेप आदि के सम्बन्ध में विस्तार से जाना जा सकता है। वस्तुतः दक्षिण एशिया एक भू-राजनीतिक स्थान/क्षेत्र है। इस इलाके में चीन के प्रवेश और उसकी घुसपैठ को लेकर अमेरिका की अपनी नीतियाँ हैं, जो भारत के पक्ष से कहीं अधिक चीन को रोकने के लिए है।

भारत-चीन के इस सम्बन्ध के बाद भी चीन का भारत से व्यापार बढ़ता ही गया है। जून 2024 में भारत ने चीन में 1.19 बिलियन का सामान निर्यात किया और चीन से 9.29 मिलियन का आयात किया। चीन में भारत का निर्यात घटा है और आयात बढ़ा है। बार-बार सुब्रमण्यम स्वामी यह कह रहे हैं कि चीन ने लद्दाख की 4 हजार 64 वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प ली है। मोदी सरकार लद्दाख में चीन के कब्जे को लेकर सच नहीं बताती है। भारत के पड़ोसी देशों में चीन की दखल के बाद, अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न भारत के लिए कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है।

भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों से मैत्री प्रमुख रही है, पर विगत एक दशक में पड़ोसी देशों से सम्बन्ध शिथिल पड़ा है, एक प्रकार की कटुता भी बढ़ी है। अब मालदीव जैसा छोटा देश भी भारत से दूरी बरत रहा है- मालदीव की मोदी ने अब तक दो बार यात्रा की है- 17 नवम्बर 2018 और 8 जून 2019 को। मालदीव हिन्द महासागर में स्थित एक द्वीप देश है, जो भूमि-क्षेत्र के हिसाब से सबसे छोटा मुस्लिम देश है। 2022 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 5 लाख 15 हजार से कुछ अधिक थी। भारत के साथ मालदीव का राजनयिक और राजनीतिक सम्बन्ध विगत 60 वर्ष से है। इसका क्षेत्र मात्र 300 वर्ग किलोमीटर है। दिल्ली इसकी तुलना में पाँच गुना बड़ा शहर है। यह 1200 छोटे द्वीपों का एक देश है, जो भौगोलिक दृष्टि से दुनिया के देशों में सर्वाधिक तितर-बितर, छितराया हुआ है। अब मालदीव में भारत की उपस्थिति को मालदीव की सम्प्रभुता के लिए खतरा बताया जा रहा है और वहाँ ‘इंडिया आउट’ मंच भी बना है।

मालदीव भारत के लिए सांस्कृतिक दृष्टि से कहीं अधिक राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ से भारत समुद्री यातायात की निगरानी रखता है और क्षेत्रीय सुरक्षा बढ़ाता है। 17 नवम्बर 2023 से मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू ने 15 वर्ष से वहाँ भारत की सैन्य उपस्थिति को हटा दिया है। पहले मालदीव के राष्ट्रपति सबसे पहले अपनी विदेश यात्रा में भारत आते थे, पर वर्तमान राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू ने राष्ट्रपति बनने के बाद तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात और चीन की यात्रा की। अब मालदीव भारत से अधिक चीन को महत्त्व दे रहा है। मोइज्जू की चीन यात्रा पाँच दिनों की थी।

चीन और मालदीव ने अपने सम्बन्धों को ‘व्यापक रणनीतिक सहकारी साझेदारी’ तक विस्तारित करने की घोषणा की है। मालदीव के मंत्रियों ने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पर आपत्तिजनक बयान दिये थे। मालदीव की सरकार चीन समर्थित है। साभाविक है भारत से मालदीव के संबंधों में दूरी, जबकि मालदीव भारत पर चावल, आटा, अंडा आदि पर अधिक निर्भर है। प्रधानमन्त्री की लक्षद्वीप- यात्रा के बाद सम्बन्ध और कटु हुए हैं। दूसरी ओर जून 2024 में भारत ने 32.8 मिलियन डॉलर का सामान निर्यात किया और 1.14 मिलियन का आयात किया।

नरेन्द्र मोदी का आरम्भ से यह स्थान रहा है कि वे अपने पड़ोसी देशों को भारत की विदेश-नीति में अधिक महत्त्व देंगे। इसे उन्होंने सरकार की विदेश नीति का बुनियादी आधार कहा था, पर उनकी विदेश-नीति का और एक-एक देश से व्यापार आदि सम्बन्ध को देखा जाय, तो यह स्पष्ट होगा कि उन्होंने पड़ोसी देशों से भारत के सम्बन्ध पर अधिक ध्यान नहीं दिया है। उत्तर पूर्व के कई राज्यों की सीमा, कई पड़ोसी देशों से मिलती है। भारत की बांग्लादेश से सीमा 4096.7 किलोमीटर की है, जो उत्तर पूर्व के 5 राज्यों- पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम से मिलती है। म्यांमार से भारत की सीमा की लम्बाई लगभग 1463 किलोमीटर की है, जो चार राज्यों सिक्किम, पश्चिम बंगाल, असम और अरुणाचल प्रदेश से लगती है।

भूटान से भारत की सीमा की लम्बाई लगभग 699 किलोमीटर की है, जो चार राज्यों – सिकिम, पश्चिम बंगाल, असम और अरुणाचल प्रदेश से जुड़ती है, नेपाल से भारत की सीमा 1751 किलोमीटर की है, जो तीन हिन्दी भाषी राज्यों उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और बिहार तथा पश्चिम बंगाल की सीमा से लगती है। पाकिस्तान और भारत दोनों देश परमाणु देश हैं। पाकिस्तान से भारत की सीमा की लम्बाई 3323 किलोमीटर के लगभग है, जो जम्मू कश्मीर, लद्दाख, पंजाब, राजस्थान और गुजरात से लगती है। अफगानिस्तान से भारत की सीमा की लम्बाई लगभग 106 किलोमीटर है, जो जम्मू-कश्मीर तथा पीओके से जुड़ी है। भारत के पड़ोसी देश भारत के लिए किसी भी अर्थ में खतरा नहीं हैं, पर इन देशों में भारत विरोधी लहर उठना देश के लिए किसी भी अर्थ में शुभ लक्षण नहीं है। भारत के पड़ोसी देशों में भारत विरोधी माहौल बनना यह सिद्ध करता है कि भारत की विदेश नीति में कुछ गम्भीर कमियाँ हैं।

नेपाल-भारत सम्बन्ध बहुत पुराना है। इन दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है। 14 जुलाई 2024 से वहाँ के प्रधानमन्त्री के. पी. शर्मा ओली हैं। उन्होंने भारत और चीन दोनों के साथ सम्बन्ध बना रखा है। नेपाल की बीस-पच्चीस प्रतिशत आबादी भारत पर निर्भर है। नयी विश्व अर्थव्यवस्था में अब कोई देश पहले की तरह किसी भी देश पर निर्भर नहीं रह सकता। अभी सभी देशों के साथ व्यापार महत्त्वपूर्ण है। प्रधानमन्त्री ने फ्रांस, बांग्लादेश में भारत के चंद कॉरपोरेटों के लिए जो भी किया है, वह किसी से छुपा नहीं है। विदेश नीति अब पहले से कहीं अधिक देशों के बीच संतुलन स्थापित को महत्त्व देती है।

क्वाड का गठन 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत से मिलकर हुआ था, जो चीन के सैन्यीकरण और नियंत्रण के प्रयासों का मूक विरोधी और इंडो-पेसिफिक के समर्थन के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरी ओर 2006 में गठित ब्रिक्स’ (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संक्षिप्त रूप) में अब पहले की तरह पाँच देश नहीं, कुल दस देश हैं। पाँच अन्य देश हैं मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात। अब किसी भी देश के साथ न तो स्थायी मैत्री सम्भव है, न दुश्मनी। सभी देशों के अपने-अपने हित हैं, जिनमें व्यापारिक हित प्रमुख है। रूस-यूक्रेन और इजरायल-फिलिस्तीन का युद्ध हम देख रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र तक शान्ति स्थापित करने में असमर्थ है, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद भारत, अमेरिका और इजरायल का जो त्रिक बना, वह आज भी कायम है। समय-समय पर जो क्षेत्रीय संगठन बनते हैं, वे विशेष प्रभावशाली भूमिका में नहीं रह पाते।

बंगाल की खाड़ी से तटवर्ती देशों के एक अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग संगठन का गठन 27 वर्ष पहले 6 जून 1997 को हुआ था, जो बिम्सटेक नाम से प्रसिद्ध है। (बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक को ऑपरेशन- बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल) पहले बिम्सटेक बिस्ट-ईसी (बांग्लादेश,भारत, श्रीलंका, थाईलैण्ड आर्थिक सहयोग) था, जिसमें 22 दिसम्बर 1997 को म्यांमार और फरवरी 2004 में भूटान और नेपाल शामिल हुए। अब इसके सात सदस्य देश हैं। पाकिस्तान इसका सदस्य देश नहीं है। इस संगठन का उद्देश्य तीव्र आर्थिक विकास सामाजिक प्रगति में वृद्धि और साझा हितों के मुद्दों पर समन्वय स्थापित करना था। इन सात देशों में से पाँच दक्षिण एशियाई देश हैं और म्यांमार तथा थाईलैंज दक्षिण पूर्व एशियाई देश हैं। समय-समय पर आपसी सद्‌भाव के लिए, आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति के लिए कई संगठन बनते हैं, पर वे अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल नहीं हो पाते।

प्रधानमन्त्री ने खाड़ी के देशों में (फारस की खाड़ी से सटे सात देश- बहरीन, कुवैत, इराक, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) सबसे अधिक यात्रा संयुक्त अरब अमीरात की की है, कुल सात बार। 16-17 अगस्त 2015, 10-11 फरवरी 2018, 23-24 अगस्त 2019, 28 जून 2022, 15 जुलाई और 30 नवम्बर-2 दिसम्बर 2023 और 13-14 फरवरी 2024। इतनी अधिक यात्रा उन्होंने किसी भी पड़ोसी देश से नहीं की। एक समय चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उनके मित्र थे और वहाँ वे 5 बार गये थे। 2019 से उन्होंने चीन की यात्रा नहीं की है। पड़ोसी देशों में वे नेपाल 5 बार, बांग्लादेश 2 बार, भूटान 3 बार पाकिस्तान1 बार, श्रीलंका 3 बार, मालदीव 2 बार, म्यांमार 2 बार और अफ़गानिस्तान 1 बार गये हैं। क्या विदेश नीति से विदेश यात्राओं का कोई सम्बन्ध नहीं है। 2014 से अब तक प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जितनी बार जिन देशों की यात्राएँ की हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए पड़ोसी देशों की तुलना में बाहर के देश कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे।

पड़ोसी देशों से व्यापार में अधिक गिरावट नहीं आयी है। पाकिस्तान को भारत ने जून 2024 में 54.2 मिलियन डॉलर का सामान निर्यात किया और 6.57 करोड़ का आयात किया। जून 2023 से जून 2024 तक भारत का निर्यात यहाँ 36.2 प्रतिशत बढ़ा है। भारत श्रीलंका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। इन दोनों देशों के बीच दो प्रमुख मुद्दे हैं- पाक जल डमरू मध्य तथा मन्नार की खाड़ी में मत्स्यन का अधिकार और तमिल-सिंहली लड़ाई। श्रीलंका तथा अन्य कुछ दक्षिण एशिया के देशों को चीन ने ऋण दिया है, आर्थिक सहायता दी है और वहाँ अपना प्रभाव क्षेत्र भी बनाया है। चीन और श्रीलंका के बीच सैन्य-सम्बन्ध भी है। चीन वहाँ अपने आधुनिक हथियार बेचता है। समाथा मलेम्पटी की सम्पादित पुस्तक- इंडिया-श्रीलंका रिलेशंस इज इट टाइम फॉर रिओरिएन्टेशन ऑफ पॉलिसी।

निकट भविष्य में भारत-पाक सम्बन्ध बदलने के आसार कम हैं। भारत की विदेश नीति में चीन, अमेरिका और रूस का विशेष महत्त्व है। प्रवासी भारतीयों की संख्या साढ़े तीन करोड़ के लगभग है। प्रत्येक वर्ष भारतीय विदेश जाते हैं। पुराने रिश्ते जितने कभी मजबूत रहे हों, सांस्कृतिक स्तर पर कई देश आपस में जितने भी जुड़े रहे हों, पर इस समय अतीत-गान का अधिक महत्त्व नहीं है। देश अशान्त हो और पड़ोस शान्त रहें, ऐसा नहीं होता। धौंसपट्टी से देश के भीतर और देश के बाहर काम नहीं चलेगा। किसी भी खेमें में जाने के बजाय आज भी गुट निरपेक्ष नीति का महत्त्व है और यह नेहरू की देन है

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रविभूषण

लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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