आदिवासी राजनीति का अलग तेवर
झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में लोकसभा चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले आए हैं। भाजपा को राज्य की पांचों आदिवासी सीटों पर हार मिली है, जिनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की भी सीट शामिल है। सभी आदिवासी सीटों पर हार का अर्थ साफ है – झारखण्ड के आदिवासियों को अपनी तरफ खींच पाने में भाजपा की असफलता। प्रधानमंत्री मोदी सहित पूरा केंद्रीय नेतृत्व पिछले कई सालों से देश के आदिवासी वोटबैंक को अपने में शामिल करने के प्रयास में लगा हुआ है। इसके तहत कई तरह की योजनाओं, घोषणाओं, यात्राओं और चुनावी सभाओं का सहारा लिया गया है। मध्य प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा आदि कई आदिवासी बहुल राज्यों में इसका फल भी भाजपा को मिला है। छत्तीसगढ़ में तो विधानसभा के चुनाव तक में भाजपा को बड़ी सफलता मिली है, लेकिन धरती आबा बिरसा मुंडा की धरती पर सबसे अधिक प्रयास करने के बाद भी भाजपा का पांचों सीटों पर हार जाना बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम है, जिसका कई स्तर पर विश्लेषण किया जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी ने कुछ महीने पहले ही प्रदेश नेतृत्व की कमान उनके सबसे बड़े आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी के हाथों में दी थी। ऐसा करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास को उड़ीसा का राज्यपाल बनाया गया था, ताकि बाबूलाल को राज्य में एकाधिकार मिल सके। यह भी उल्लेखनीय है कि रघुवर दास ने 11,000 आदिवासियों पर पथलगढ़ी के संदर्भ में देशद्रोह का मुकदमा किया था और लैड बैंक (आदिवासी जमीनों को उद्योग आदि के इस्तेमाल) को लेकर भी वे विवादों में रहे थे। राज्य में बाबूलाल को नेतृत्व देकर भाजपा क्लीन स्वीप यानी 14 में से 14 सीटों जीतने की कोशिश में थी। 2019 के चुनाव में सिंहभूम की जिस सीट पर भाजपा हारी थी, 2024 में उस सीट पर वहां से काँग्रेस की सांसद गीता कोड़ा को अपनी टिकट पर खड़ा किया गया, लेकिन वे चुनाव हार गईं। इसी तरह मुश्किल सीट दुमका में भी सोरेन परिवार की बड़ी बहू सीता सोरेन को ही भाजपा ने फोड़ लिया और टिकट दे दिया। लेकिन वह सीट भी भाजपा हार गयी।
परिणामों के विश्लेषण से साफ पता चलता है कि झारखण्ड में झामुमो और मजबूत हुई है और भाजपा कमजोर। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल के नेतृत्व पर भी सवाल उठे हैं, क्योंकि 2019 में पार्टी में शामिल होने के बाद भाजपा 5 उपचुनाव हारी और लोकसभा में भी उनका प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा। बात यहाँ तक हो रही है कि भाजपा राज्य में अपना नेतृत्व बदलने पर विचार कर रही है। लेकिन समस्या है कि गैर-आदिवासी चेहरे के साथ झारखण्ड में राजनीति नहीं की जा सकती और आदिवासी चेहरे में भाजपा के पास बाबूलाल के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि झारखण्ड में भाजपा नेता विहीन नजर आ रही है।
अर्जुन मुंडा के चुनाव हारने के बाद इस बात की पूरी संभावना है कि वे विधानसभा का चुनाव लड़ेगे। क्योंकि पूर्व केंद्रीय मंत्री को भाजपा पाँच साल तक बिठा के नहीं रख सकती। लेकिन सवाल है कि बाबूलाल के होते हुए राज्य में अर्जुन मुंडा की भूमिका क्या होगी? क्या वे बाबूलाल के नेतृत्व में काम करना स्वीकारेंगे या क्या बाबूलाल उनका नेतृत्व स्वीकार करेंगे? दोनों में से किसी बात की संभावना कम नजर आती है।
इधर हेमंत सोरेन को जेल में डालना भाजपा की बहुत बड़ी गलती साबित हुई है। इसका दोहरा नुकसान हुआ है। पहला तो यह कि हेमंत के प्रति आदिवासियों और काफी हद तक गैर-आदिवासियों की सहानुभूति देखने को मिली। इसका असर भी हुआ और सभी आदिवासी सीटों पर भाजपा हारी। दूसरा नुकसान यह हुआ कि झामुमो ने एक नई और प्रभावशाली नेता कल्पना सोरेन का उदय हो गया। झारखण्ड में इतने कम समय में इतनी प्रभावशाली छवि का कोई और उदाहरण देखने को नहीं मिलता। कल्पना सोरेन ने सरकार, संगठन और चुनाव की पूरी प्रक्रिया को जिस तरह से व्यवस्थित रखा और जिस तरह से वे खुद को प्रस्तावित करती रहीं, वह वाकई तारीफ के काबिल है। इस बात में कोई शक नहीं है कि यदि झारखण्ड विधानसभा चुनाव के बाद झामुमो-काँग्रेस गठबंधन की सरकार की वापसी होती है, और तब तक हेमंत जेल से बाहर नहीं आते हैं, तो कल्पना सोरेन झारखण्ड की पहली महिला मुख्यमंत्री होंगी। संभव है कि चुनाव के पहले ही उन्हें कोई मंत्रालय दिया जा सकता है, ताकि वे सरकार में होने का अनुभव प्राप्त कर सकें। और अगर हेमंत जेल से बाहर आते हैं, तब भी कल्पना सरकार में अहम किरदार अदा करेंगी।
2024 के चुनावी परिणाम में सभी पार्टियों के लिए संदेश निहित है। झामुमो मजबूती के साथ उभरी है और आने वाले दिनों में यह मजबूती कायम रहेगी। गठबंधन की सीटें जो भी हों, लेकिन आगामी विधानसभा में झामुमो की सीटें जरूर बढ़ सकती हैं। भाजपा को झारखण्ड के संदर्भ में अपनी पूरी राजनीति को फिर से गढ़ने की जरूरत है। यहां फिर से गढ़ने का तात्पर्य है कि सांगठनिक तौर पर बड़े बदलाव करना और पार्टी की दिशा पर पुनर्विचार करना। उन तमाम मुद्दों की समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है, जो भाजपा पिछले पाँच साल तक उठाती रही है।
लेकिन इस बीच काँग्रेस के लिए चुनौती सबसे बड़ी है। हालांकि इसकी चर्चा नहीं हो रही है क्योंकि बाकी राज्यों में काँग्रेस ने अच्छा किया है और झारखण्ड में यह उस टीम का हिस्सा थी, जो टीम जीती है। लेकिन अगर हम पार्टियों की समीक्षा करें, तो पाएंगे कि झारखण्ड में काँग्रेस के लिए स्थितियां अनुकूल नहीं है। काँग्रेस ने 7 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ दो सीटें लेकर आई, यानी राज्य में सबसे कम स्ट्राइक रेट काँग्रेस का ही रहा है। इसके अलावा काँग्रेस यहां सांगठनिक तौर पर अभी भी बेहद कमजोर है। हो सकता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में इसकी सीटें कम हो जाएं। इस लिहाज से दोबारा सरकार में आने के लिए सिर्फ झामुमो की मजबूती काफी नहीं है, काँग्रेस को अधिक मेहनत करने की जरूरत है और यह मेहनत संगठन के स्तर पर करनी होगी।
हम अपने मूल सवाल पर लौटते हैं, कि जब पूरे देश के आदिवासी कमोबेश भाजपा की तरफ जा रहे हैं, तो झारखण्ड के आदिवासी भाजपा के साथ क्यों नहीं हैं? दरअसल झारखण्ड अन्य राज्यों से बेहद अलग है। जनसंख्या के आधार पर भले ही यहाँ आदिवासी मध्यप्रदेश से कम हों, लेकिन वास्तव में कहीं आदिवासी राजनीति है, तो वह है झारखण्ड। यहां के आदिवासी बाकी राज्यों के मुकाबले अधिक राजनीतिक समझ रखते हैं, राजनीति में भाग लेते हैं और अपने मुद्दों, समस्याओं को लेकर सजग हैं। सिंहभूम और संथाल में जिस तरह प्रधानमंत्री ‘हिंदू-मुस्लिम’ की राजनीति कर रहे थे, आदिवासियों को यह कभी गँवारा नहीं होगा।
दूसरी अहम बात है कि झारखण्ड के आदिवासियों के पास एक आदिवासी नामधारी पार्टी का विकल्प है, जो अन्य राज्यों में नहीं है। मसलन छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भाजपा की लड़ाई काँग्रेस से है। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में आदिवासी पार्टियां हैं भी तो वे प्रभावी नहीं हैं। लेकिन झारखण्ड इस लिहाज से अलग है। चूंकि आदिवासी समुदायिक व्यवस्था में जीते हैं, उनके लिए राजनीतिक पार्टियां भी समुदाय की तरह हैं। ऐसे में बहुत कम संभावना है कि वे किसी गैर-आदिवासी पार्टी के साथ जाएं, विशेषकर तब जब उनके पास आदिवासी नामधारी पार्टी का विकल्प मौजूद है। संथाल के क्षेत्र में शिबू सोरेन अपने आप में एक बड़ा फैक्टर हैं, जो बाकी राज्यों में नहीं है।
एक और अंतर यह है कि यहां आदिवासियों में भी मिश्नरियों का प्रभाव अधिक है। लगभग 12 प्रतिशत ईसाई आदिवासी हैं, जो भाजपा के खिलाफ वोट करते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ-साथ आदिवासी अधिकारों, विस्थापन आदि विषयों पर यहां एक्टिविज्म भी जबरदस्त रूप से देखने को मिलता है। इन तमाम कारणों से प्रयास के बाद भी भाजपा अब तक यहाँ के आदिवासी वोटरों को अपने साथ लाने में कामयाब नहीं हो सकी है । जो आदिवासी वोट भाजपा को मिलते हैं, वे आदिवासी नेताओँ के कारण मिलते हैं। भाजपा के आदिवासी वोटर भाजपा की विचारधारा से भी इत्तेफाक रखते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है।
लोकसभा परिणाम की देहरी पर खड़े होकर देखने से तो नजर आता है कि झारखण्ड में झामुमो-काँग्रेस की आसान वापसी होगी और अगले कुछ सालों के लिए भाजपा को यहां फिर से विपक्ष में बैठना होगा। हालांकि आने वाले पाँच महीनों में स्थितियां बदल सकती हैं। लेकिन इतना तो जरूर है कि राज्य की 27 प्रतिशत आदिवासी आबादी को नजरअंदाज कर यहां राजनीति नहीं की जा सकती। इस लिहाज से झारखण्ड संभवतः इकलौता राज्य है, जहां की राजनीति यहां की आदिवासी आबादी तय करती है। यही वजह है कि वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर आने वाला समुदाय लोकतंत्र के बिल्कुल केंद्र आ गया है।