कठिन रास्तों में सुकून तलाशती ‘राबिया एंड ओलिविया’
हिंदी सिनेमा में बच्चों को आधार बनाकर कई फिल्में बनी और अच्छी खासी चर्चा भी उनमें से कुछ ने बटोरी। आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ को कौन भूल सकता है भला। लेकिन इधर सीधा ओटीटी प्लेटफार्म डिज्नी प्लस हॉट स्टार पर इस शुक्रवार रिलीज होने वाली फिल्म ‘राबिया एंड ओलिविया’ अब तक की रिलीज फिल्मों से किस तरह अलग है तो चलिए बताते हैं।
एक हिंदुस्तानी लड़की काम के सिलसिले में कनाडा रुकी हुई है। स्थाई तौर से वहाँ की नागरिक नहीं बन पाई तो उसे कोई काम भी नहीं मिल रहा। कैसे हो गुजर बसर? इधर कनाडा में जैसे-तैसे एक छोटी लड़की की देखभाल का काम मिला तो वह उससे कुछ यूँ जुड़ गई जैसे रूह किसी की जुड़ी हो।
भावनाओं के ज्वारभाटे से बना यह सम्बन्ध किस करवट ऊँट की तरह बैठेगा वो तो आपको फिल्म देखने पर पता चल ही जाएगा। इससे ज्यादा कहानी बताकर मैं भी आपकी ऐसी अनजान सी फिल्मों के प्रति उत्सुकता बची हुई खत्म नही करना चाहता। हाँ इतना जरूर है कि उस छोटी लड़की की माँ उसे छोड़ चल बसी है दूसरी तरफ उसकी देखभाल करने आई उसने भी बचपन में अपने पिता को खो दिया।
इस तरह भावनाओं के स्तर पर एक दूसरे के लगभग बराबर खड़ी इन दोनों के सम्बन्ध आप कहेंगे की बनेंगे क्यों नहीं? जायज है लेकिन उन सम्बन्धों से रिजल्ट क्या रहा? वह भी आपको जानना चाहिए। इस तरह की फिल्में आपको भीतर भावनात्मक स्तर पर मांजती हैं और इन्हें देखने के बाद आपका दिल जैसे ही किसी ओर के लिए पसीजता है तो मानवीयता के धरातल पर आप कहीं ऊँचे स्तर तक उठ चुके होते हैं। साथ ही फिल्म आपको इंसानियत के धरातल पर मीडिया, राजनेता और आम लोग कैसे एक साथ मिलकर एक इंसानियत का रूप धारण कर लेते हैं या कैसे मुँह मोड़ लेते हैं यह दोनों पहलू भी आपको दिखाती है।
लगभग आधी से ज्यादा अंग्रेजी संवादों से भरी यह फिल्म शुरू में थोड़ा अखरती है। लेकिन जैसे ही आप इसे संयम से देखने चलते हैं तो यह अंग्रेजी भी किसी तरह बीच में रुकावट नहीं बनती। बल्कि आप इसकी कहानी को समझते ही नहीं उसे गहरे समझते भी चले जाते हैं। लेकिन अंग्रेजी की अतिश्यता के चलते यह फिल्म एक सीमित पढ़े लिखे वर्ग तक ही अपनी पहुँच बना पायेगी।
शीबा चड्डा अपने अभिनय को स्वाभाविक तरीके से करती हुई उस किरदार को जीती हैं। नायाब खान, हेलेना प्रीजन क्लाक मुस्तफा शेख, शादाब खान आदि सभी कहानी को जीते जरूर हैं। लेकिन इन सबमें हेलेना प्रीजन जो बच्ची के किरदार में नजर आई वह इन सबमें कहीं आगे का अभिनय करती नजर आती है। जिस तरह के उस समय मनोभाव उसे लाने चाहिए थे वह उन्हें अपने अभिनय से ला पाने में सक्षम रहीं।
सिंक्रॉन एंटरटेनमैंट के बैनर तले बनी यह फिल्म 24 फरवरी को डिज्नी प्लस हॉट स्टार पर रिलीज के लिए तैयार है। बिना किसी तरह की चर्चा में रही ऐसी फिल्में कब आकर चली जाती हैं आम दर्शकों को तो पता भी नही चलता। भला हो इन ओटीटी प्लेटफॉर्म का जिनकी वजह से आम दर्शकों तक ऐसी फिल्में पहुँचने लगीं। एक घण्टा पच्चीस मिनट लंबी और यू सर्टिफिकेट के साथ आई यह फिल्म थियेटर में रिलीज की जानी थी लेकिन फिर से कहना चाहिए ऐसी फिल्मों के तारनहार रिलीज के रूप में ये ओटीटी प्लेटफार्म ही हैं।
शादाब खान बतौर निर्देशक काम तो ठीक करते नजर आये लेकिन वे यदि इसे एक सीमित बौद्धिक वर्ग तक देखे जाने लायक न बनाकर थोड़ा हिंदी के संवाद ज्यादा रखते तो अवश्य ही यह फिल्म हिंदी जानने वाले बड़े तबके तक पहुँच बना पाती।
लेकिन खुद ही लिखी, खुद ही स्क्रीनप्ले करने वाले निर्देशक भी खुद बौद्धिक रूप से संपन्न नजर आये किसी भाषा विशेष में तो ऐसा होना लाजमी है।
रिपुल शर्मा का म्युजिक और गीत सुहाने हैं तथा फिल्म को गति प्रदान करते नजर आते हैं। लेनोड कोगन, पंकज कछुआ की सिनेमैटोग्राफ्री बहुत ज्यादा बेहतर तो नहीं लेकिन बहुत खराब भी नहीं लगती। औसत से कहीं थोड़ा उपर की सिनेमैटोग्राफी और लगभग प्रशांत पांडा की एडिटिंग से कसी जाने योग्य बन पड़ी यह फिल्म अपनी अलग कहानी और लीक से हटकर बैकग्राउंड से संभल कर चलती यह फिल्म एक बार अवश्य देखे जाने योग्य है।
मुंबई, टोरंटो, औरंगाबाद आदि की अच्छी लोकेशन वाली ऐसी फिल्में देखकर भावनात्मक स्तर पर आप अवश्य अपने आप को बदला हुआ पाते हैं।
अपनी रेटिंग –3 स्टार