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एक फिल्मकार का हलफ़नामा : भाग 6
गतांक से आगे…
ढाई महीनों की मशक्क़त के बाद जब स्क्रिप्ट मुकम्मल हो चला तो एक्टर-एक्ट्रेस के चयन के लिए यहाँ के नाट्यकर्मियों और संस्थाओं से बात की। सुनिश्चित तिथि को जुब्बा सहनी पार्क के सामने बृजभूषण पाण्डेय के कोचिंग इंस्टिट्यूट में बैठक रखी, जिसमें फिल्म बनाये जाने के बारे में सूचना देते हुए पधारे सभी लोगों को अपना परिचय देने को कहा। फिल्म में काम करने के जिज्ञासुओं ने एक-एक कर अपना परिचय देना शुरू किया। अंत में चतर्भुज स्थान से आई लड़की ने जब अपना परिचय देते हुए कहा कि मेरा नाम नसीमा है और मैं सेक्स वर्कर हूँ तो वहाँ बैठे सभी व्यक्ति को जैसे सांप सूंघ गया। सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। उसके साथ आयी दो और लड़कियों ने भी निर्भीकता से अपना यही परिचय दोहराया। नसीमा ‘परचम’ नाम की एक संस्था चलाती है। बता दूँ कि ये वही नसीमा है जो आगे चलकर सीतामढ़ी के बोहा टोला के वेश्यालय में जब छापा मारकर उसे जला दिया गया था तब नीतीश कुमार के जनता दरबार पहुँच गई थी और इस घटना का विरोध करते हुए मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपते हुए बात कर रही थी तो किसी अधिकारी ने कहा कि ऐसा काम करिएगा तो….। उसकी बात काटते हुए तब नसीमा चीख उठी- ‘तो क्या आप मुझे जला दीजिएगा’? नसीमा आज ह्यूमैन राइट एक्टिविस्ट के रूप में जानी जाती है। खैर…।
बैठक में शामिल लोग जब फिल्म में काम करने की सहमति दी तो उन सभी के साथ एक डमी शूटिंग की व्यवस्था अपने घर के छत पर की। सभी जुटे, लोगों को दृश्य समझाए गए और संवाद बोलने को दिया लेकिन मेरी यह कोशिश व्यर्थ गई। सभी कच्ची मिट्टी के लोग थे। उन्हें तरासने में महीनों लगने थे और वह भी मुकम्मल हो पायेगा कि नहीं, संदेह था। तब इस आइडिया को मुलतवी किया।
नाट्य मंडलियों से इंटरव्यू देने आया छोटी कल्याणी का एक लड़का निराश हो बोला कि सुधीर सर हमलोगों से पच्चीस-पच्चीस रुपये लिए थे, यहाँ ऑडिशन देने के लिए। कारण पूछने पर बोला कि सुधीर सर ने कहा था कि आपके यहाँ ऑडिशन देने के लिए फार्म भरना होगा जिसमें पच्चीस रुपये लगेंगे। मैं और स्वाधीन दास सुनकर अवाक! उसे बताया कि हमलोग न तो किसी से एक रुपये लेने की बात की या कही है और न ही कोई फॉर्म भरने के लिए दिया/कहा। तुमलोग उससे रुपये वापस मांगो। स्वाधीन दास को कहा- “हद हो गई यहाँ के रंगकर्मी की।” ज्ञात हो कि सुधीर कुमार ‘संरचना’ नामक नाट्यसंस्था चलाता है तो उसे भी अपनी टीम से लड़कों को भेजने को कहा था। मुझे क्या मालूम कि वह ऐसी टुच्ची हरकत करेगा। बाद में तो जगजाहिर हुआ भी कि उस जालसाज नाट्यकर्मी सुधीर कुमार का यहाँ के जालसाज ठग प्रकाशक और बालिका गृह काण्ड में जेल काट रहे सरगना का साथ रहा है। वर्षों बाद यह भी पता चला कि सुधीर ने अयोध्या प्रसाद खत्री के नामपर भी यहाँ की एक कवियित्री को पुरस्कार दे ठगा! और उस कवियत्री ने अपने प्रोफाइल में ‘अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान’ टाँके थी।
एक पत्रिका में उनकी कविता के साथ लगे बॉयोडाटा में यह अंकित दिखा, जिसे वह अपने फेसबुक वॉल पर चिपकायी थी! देख मैं चकित! जबकि हमारे द्वारा आयोजित खत्री सम्मान समारोह में वे शरीक भी होती रही थी। फेसबुक पर मैंने एक पोस्ट डाल लोगों से पूछा कि ” क्या और किसी संस्था द्वारा ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान’ दिया जाना आरम्भ हुआ है? यदि ऐसा है तो हमलोग इस सम्मान को स्थगित करना चाहेंगे।” यह पोस्ट डालते ही कवियत्री ने मेरे वाट्सअप पर मैसेज भेजा कि मुझसे क्या गलती हुई है? कवियत्री से जब बात की तो उन्होंने सुधीर को गालियां देती कहती रही कि मैं कभी सम्मान पाने के लिए किसी के आगे-पीछे नहीं करती। मैं यहाँ के लोगों को जानती भी नहीं। उसने आदर के साथ बुलाया तो मैं चली गई। तब मैंने कहा कि किसी से भी पुरस्कार ग्रहण करते समय उस व्यक्ति या संस्था के बारे में जरूर जानकारी हासिल करनी चाहिए। वह सम्मान-पत्र देखना चाहा तो उन्होंने मेरे वाट्सअप पर भेज दिया।
वह सम्मान ‘अयोध्या प्रसाद खत्री संस्थान’ के द्वारा दिया गया था, न कि खत्री सम्मान! (यहां यह बताता चलूँ कि हमारे द्वारा “अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति – समिति” बनाने और 2008 से खत्रीजी के नाम पर सम्मान की शुरुआत करने के पश्चात यहाँ के कुछ स्थानीय शातिर लोगों ने भी उक्त नाम से एक संस्था बना ली।) यह बात जब उन्हें बतायी तो अपनी झेंप मिटाते बोली – उस पत्रिका ने मेरे बॉयोडाटा में गलती से छाप दिया है। अब उन्हें क्या कहता कि बिना आपके भेजे कोई पत्रिका आपका बॉयोडाटा कैसे छाप सकता है। वो अच्छी कविताएं और गजल लिखतीं हैं इसलिए उन्हें और लज्जित करना नहीं चाहता था, सो यहीं विराम लगाना उचित था। उनका नाम… तभी अंतर्मन टोका– ‘अब छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? विषयांतर होने लगे।’
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स्वाधीन दास से कहा कि दादा, बिना प्रोफेशनल आर्टिस्ट के फिल्म बनाना संभव नहीं। खत्री जी की भूमिका के लिए दरभंगा के डीआईजी रवीन्द्र कुमार सिंह से बात की। वे प्रकाश झा की टेलीफिल्म ‘विद्रोह’ में काम कर चुके थे। उन्होंने हामी भरी। बाकी आर्टिस्ट के लिए पटना के ईटीवी वाले से बात की और बताया कि अपनी फिल्म के लिए आपके यहाँ काम करने वाले प्रोफेशनल आर्टिस्टों की मुझे जरूरत है। उसने मिलवाने का वायदा किया। उनके बताए तिथि पर स्वाधीन दास के साथ आर्टिस्ट के चयन हेतु पटना चल पड़ा। ईटीवी अपने पटना के एक्सिबिशन रोड वाले दफ़्तर में साक्षात्कार के लिए जगह मुहैय्या करायी। हमलोग दिनभर अभिनेता/अभिनेत्रियों के इंटरव्यू लेते रहे और अपनी जरूरत के लोगों का चयन करते रहे। चयन पश्चात उन सबको बताया कि इस फिल्म के लिए हमलोग बहुत पैसा नहीं दे पाएंगे। प्रति दिन के हिसाब से पाँच सौ रुपये, आने-जाने-रहने और खाने-पीने का अलग। सभी ने सहमति दी तब उन लोगों को ‘शूटिंग की तिथि की जानकारी सूचित की जाएगी’, कहकर लौट आये।
अब उस काल का कॉस्टयूम तैयार करवाने की समस्या थी। ऐतिहासिक फिल्म बनाने में यह सब अलग परेशानी का विषय होता है। बजट कुछ था ही नहीं, तो हर काम के लिए ख़ुद ही हक्कर पेलना पड़ रहा था। सौ डेढ़ सौ वर्ष पहले के पहनावे के बारे में खोजबीन शुरू की। पुरानी तस्वीरों में लोगों के पहनावे देखता। नेट पर पुराने अखबारों में छपी तस्वीर ढूँढता। खत्रीजी की कोई मुकम्मल तस्वीर कहीं नहीं मिली थी। स्मारक ग्रंथ में छपी उनकी तस्वीर रेखाचित्र थी। उस ग्रंथ में गुलेरी जी के लेख का ध्यान आया। खत्री जी जब बनारस गए थे तो उनके पहनावे का भी वर्णन उन्होंने अपने लेख में किया था कि वे चपकन, चोला, पजामा और बादामी बूट पहने थे, सिर पर बंगाली शमला था। उस समय अचकन भी पहनावा था। 1857 के गदर के समय की तस्वीरें जुटायी।
पता चला कि उस काल में लोग महीन चारखाने की पूरे और आधे बांह की कमीज भी पहनते थे। मगर ज्यादातर लोग सफेद वस्त्र ही पहनते थे। आधे बांह वाली कमीज की बांह नीचे की ओर से कटा होता था। सीने पर एक और बगल की दोनों ओर जेबें हुआ करती थी। चारखाने वाला कपड़ा खोज हार कर भी नहीं मिला तो चारखाने की लुंगी खरीदी, कमीज बनवाने के लिए। उस समय महिलाएं चौरे पार की प्लेन साड़ियाँ पहनती थी। बहुत मशक्कत के बाद मैं और स्वाधीन दास मिलती-जुलती वैसी साड़ी कल्याणी की एक दुकान में ढूंढ पायें। पुरुष मोटे कपड़े का सिला हुआ गंजी पहनते थे, जिनमें सामने और अंदर की ओर जेब हुआ करती थी। इसके लिए खादी की तरह का मोटा कपड़ा खरीदा। लोग धोती भी पहनते थे और मुजफ्फरपुर इलाके में यह पहना भी जाता था। इसलिए मोटे कोर की कुछ धोतियाँ खरीदी। साफा लिया।
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उस समय पहने जाने वाले सभी तरह के वस्त्र का आकलन कर उन सब का स्केच तैयार किया और पुरानी बाजार मुहल्ला स्थित एक दर्जी से मिला। उसे स्केच देते सब बात बताई कि इस तरह शमला, अचकन, चोला, मिरजई, मोहरीदार पजामा, झुल्ला आदि बनवाना है। पहले तो उसने बहुत ना-नुकुर की लेकिन जब उसे फिल्म हेतु कहा तो फूले नहीं समाया। खरीदे गए कपड़ों के साथ उसे आर्टिस्टों के नाप सौंपकर लौट आया। पंद्रह दिनों में सिल-सिलाकर कर उसने मुझे सौंप दिया! जेब तो उसने कस-हंस के कतरी, मगर उसका आभार तो प्रकट करना ही था क्योंकि कयियेक के रिफ्युजल के बाद उसने बेड़ा पार कराया था।
अब लोकेशन की जरूरत थी….
( जारी…..)