‘TWO’ Parable Of Two’ सत्यजीत रे
बाँसुरी की जीत
‘यूट्यूब’ की शोर्ट फ़िल्में मुझे हमेशा आकर्षित और प्रभावित करतीं रहीं है और मैं यहाँ बेहतरीन फ़िल्में खोजती रहती हूँ, इसी प्रक्रिया में मुझे सत्यजीत रे की एक शोर्ट फ़िल्म ‘Two’ देखने को मिली।
डिस्क्रिपशन से पता चला कि यह फ़िल्म उन्होंने अमेरिकन तेल कम्पनी ESSO वर्ल्ड थिएटर के लिए 1964 में बनाई थी। उनसे कहा गया कि वे अंग्रेजीं में फ़िल्म बनाएं लेकिन उन्होंने ‘मूक फ़िल्म’ के रूप में ‘TWO’ बनाकर देशकाल के सभी दायरे तोड़ दिये तथा एक ऐसी मार्मिक कहानी उभरकर आई जो ‘दो’ बालकों के माध्यम से दो लोगों, व्यक्ति, देश, वर्ग आदि के विभिन्न संघर्षों अथवा प्रतिद्वंद्वों को अत्यंत मार्मिकता से प्रस्तुत करती है, यह संघर्ष देशकालातीत बन जाता है। दो बच्चों का ‘शीत युद्ध’ कैमरा और संगीत के माध्यम से आपको अद्भुत तरीके से रोमांचित करता है। बाँसुरी की धुन श्रीकृष्ण के प्रेम का प्रतीक है, हम जानते हैं उन्होंने ‘महाभारत-युद्ध’ रोकने के अथक प्रयास किये और अंत में वे माधुर्यपूर्ण बाँसुरी को ही थामते हैं।
1992 में जब सत्यजीत रे को अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो उनकी फिल्मों को संरक्षित करने का कार्य आरम्भ हुआ इसके अंतर्गत 18 फ़ीचर फ़िल्में शामिल हैं उसी में उनका यह गुप्त अनमोल रत्न ‘TWO’ Parable Of Two’ हमारे सामने आता है। जिसे 3 मई 2016 को यूट्यूब पर अपलोड किया गया जो सिनेमा प्रेमियों के लिए बहुत सुखद है 2, 259, 912 लोग देख चुकें हैं, 101K लाइक मिले हैं तथा 5, 525कमेन्ट भी हैं जो फिल्म की लोकप्रियता से ज्यादा उसके महत्व को भी प्रतिपादित कर रहे हैं।
अति साधारण सी नज़र आने वाली कोई 12 मिनट की इस लघु फिल्म में आपको गजब का गुरुत्वाकर्षण मिलेगा जो दर्शकों की गहन चेतना में उतरकर ‘वर्ग विभाजन’ के एक-एक पक्ष का सूक्ष्म चित्रांकन करती है, और हमारी चेतना को झकझोरती हैं, संवेदनाओं को कुरेदती और आंदोलित करती हैं। ‘TWO’ Parable Of Two’यानी ‘दो का दृष्टांत’! आप हैरान हो सकते हैं कि बिना किसी भाषा के मात्र छोटे-छोटे दृश्यों में यह फ़िल्म पूरा विश्व समेटे हैं। सामाजिक विषमताओं, वैश्विक युद्धों की अनूगूँजों, मानवीय संवेदनाओं आदि के संघर्ष के विविध आयामों को विविध स्थितियों, घटनाओं को मात्र दो चरित्रों (वे भी बालक) के माध्यम से फ़िल्म सूक्ष्म विश्लेषण करतीं हैं। रे को संगीत की बहुत गहन समझ थी वे अपनी फिल्मों में संगीत दिया करते थे यहाँ भी विविध वाद्ययंत्रों की लय-धुन, संगीत विविध उतार चढ़ाव हमारे मन को आंदोलित करती हैं, तो कैमरा की पैनी नज़रें घर के भीतर और नीचे घास में खड़े बालक के विविध परतों के भीतर वैश्विक समाज के हर वर्ग, जाति, धर्म, आयु को आत्मसात कर, हमें सहज ही संवेदनशील बनाने का प्रयास कर रहीं हैं, युद्ध के ख़िलाफ़ सन्देश देती है।
फिल्म का आरम्भ एक सफेद बिल्डिंग जिसके खंबे वाइट हाउस जैसे हैं, छत पर खड़ा बालक माता पिता को हाथ हिलाकर बाय-बाय करता है उसके हाथ में कोका कोला है सिर पर मिकी माउस की टोपी पहनी हुई है, बड़े घर से जा चुके हैं इसका मतलब वो बालक सर्वेसर्वा है! यह अमेरिका है! जिसे कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है… यह उच्च वर्ग का रईस बालक है जिसके पास तमाम सुख सुविधाएं हैं… यह वह इंसान भी है जो अब मशीनों पर निर्भर है…और यह सत्ता, पूंजी और शक्ति में डूबा, सोफ़े यानी सिंहासन पर विराजमान वह देश है जो किसी से नहीं डरता जो सभी को खिलौना समझता है सिर्फ खेलना जानता है, विध्वंस करना जिसकी फितरत है।
एक गेंद को जिस तरह से वह ठोकर मारते हुए आगे बढ़ जाता है वह गेंद और कोई नहीं पूरी पृथ्वी है, जिसे उसने गेंद समझा हुआ है जब चाहे आते जाते ठोकर मार सकता है। सुख-समृद्धि और शक्ति से परिपूर्ण तलवार बगल में लटकाए, हाथ में कोका कोला पीते हुए वह एक सोफे पर पसर जाता है, बहुत प्रसन्न मुद्रा, एक एक हाव-भाव उसके बेख़ौफ़ चरित्र को बयां कर रहा है जबकि 11-12 वर्ष का बालक आज भी शायद अकेले इतने बड़े घर में न रह पाए। उसकी नज़र माचिस की डिब्बी पर जाती है तो वह एक तीली जलाता है, आग को, उसकी खुशबू को एंजॉय करता है पर फूंक मारकर बुझा देता है, उसको शरारत सूझती है कि उस शक्ति का प्रयोग कहाँ और कैसे करें और एक गुब्बारा फोड़ता है और उसके बाद दूसरा गुब्बारा फोड़ता है। शायद आप जानते हैं कि 6 अगस्त 1947 जब अमेरिकी वायु सेना ने जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया था तो उसका नाम ‘लिटिल बॉय’ और नागासाकी शहर पर जो बम गिराया था उसका नाम था फैट मैन!
तो क्यों ना यह मान लिया जाए कि यह ‘लिटिल बॉय’ इस परमाणु की अग्नि से खेल रहा है। जब आप गूगल में जाकर उन परमाणु बमों तस्वीरें देखेंगे तो वह बलून के शेप के से हीं हैं। पहली बार उसने जब परमाणु परीक्षण करने के लिए जापान को धमकी दी, लेकिन दूसरी बार उसने उस गुब्बारे को आग लगा दी, यह ‘लिटिल बॉय’ का विध्वंसक कारनामा था, एक खेल की तरह। फ़िल्म आगे बढ़ती जिसमें वह पिरामिड खिलौने को हाथ से और ऊंचा करता है। उसके पास असंख्य खिलौने हैं, एक बंदर खिलौना जो फूहड़ता से कानफोडू आवाज में गिटार बजा रहा है कि तभी उसे गिटार की बेसुरी ध्वनि के आगे बाँसुरी की मधुर ध्वनि उसे आकर्षित करती है।
यहाँ पर भी जो मुझे समझ आया कि गिटार के साथ 1960 से 1970 में अमेरिका के बीटल्स का रॉक बैंड सक्रिय और सबसे ज्यादा बिकने वाला रहा था, आधुनिक संगीत और संगीत का व्यापारीकरण करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। लेकिन सत्यजीत रे बताना चाहते हैं कि लोकधुन, लोक संगीत व लोक संस्कृति लोक यानी आम जनता से जुड़ी है, बांसुरी जो बाँस से बनी प्रकृति के भीतर से उत्पन्न हुई है उसका महत्व प्रेम से सम्पृक्त है। बांसुरी की आवाज सुनकर अमीर बालक पहले तो अजीब से हाव-भाव बनाता हैं फिर घमंड से भीतर जाता है, प्लास्टिक की एक बांसुरी जैसा कुछ लेकर बजाता है जिसमें धुन या संगीत कम बेसुरापन, शोर अधिक है और यही आधुनिक संगीत की विशेषता भी है।
गरीब बालक शोर से घबराकर उदास हो भाग जाता है पर गले में एक ढोलक टाँगें बजाता हुआ वापस आता है, घूम-घूम कर नाचता है तो प्रतिस्पर्द्धा में अमीर बालक एक बंदर लेकर आता है जो कांगो बजा रहा है लेकिन उसमें भी संगीत नहीं शोर ही है। कानफोडू आधुनिक संगीत जिसमें सुर, लय, ताल कुछ नहीं है लेकिन शक्तिशाली बालक उसी संगीत को श्रेष्ठ बताने की मुद्रा में गर्दन को अकड़ा रहा है। तब वह गरीब बालक चेहरे पर शेर का मास्क लगाए और तीर कमान लेकर आता है पीछे लोक संगीत बज रहा है वह लोक नृत्य-सा करने लगता है अमीर बालक बर्दाश्त नहीं कर पाता उसके पास एक से एक खतरनाक मास्क है वो उन्हें लगाकर बालक को डराने का प्रयास करता बंदूक चलाता है यहाँ मधुर ध्वनियों यानी शान्ति के खिलाफ युद्ध यानी गोलियों से विश्व को जीतने का उपक्रम नजर आता है, लगता है वह समस्त लोक व लोक संस्कृति को वह खत्म कर देना चाहता है।
गरीब कमज़ोर बालक निराश, हतोत्साहित हो वहां से चला जाता है क्योंकि अब उसे प्रतीत हो रहा है कि शायद अब कुछ नहीं हो सकता दूसरी और अमीर बालक खुशी से मूंह की चिंगम को खिलौने रोबोट के माथे पर लगा देता है, ‘मशीनों पर अपना कब्जा’, फुल साइज के फ्रिज से सेब निकालकर खाते हुए अपनी जीत का मानव जश्न मना रहा है तभी क्या देखता है एक पतंग उड़ रही है गरीब बालक को हतोत्साहित मान वह प्रसन्न था लेकिन आकाश में उड़ने वाली पतंग उसे चुनौती दे रही है, स्पष्ट है, गरीब बालक का उत्साह बाकी है उसमें जीतने की क्षमता है, कुछ कर गुजरने की, ऊंचाइयों को हासिल करने की महत्वाकांक्षा है और इसी महत्वाकांक्षा और जीत को अमीर बालक कुचल देना चाहता है वह गुलेल से उसके पतंग को निशाना बनाता है, लेकिन कुछ कर नहीं पाता और फिर बंदूक से उसकी पतंग में छेद कर देता है, जो कमज़ोर की महत्वाकांक्षाओं को, उसकी ऊंचाइयों पर चढ़ने की तमाम सीढ़ियों को तोड़ने का, कुचलने का परिचायक है।
यानी जिसके पास शक्ति होती है वह कमजोर को कुचल कर अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करता है। यहाँ आप ध्यान देंगे कि जहां बंदूक रखी है साथ में फूलों का गुलदस्ता भी है लेकिन वो नकली फूल है, वह बालक छर्रे वाली बंदूक उठाता है और उसमें गोली डालता है जो पतंग को फाड़ देती है अब बालक पूरी तरह से निराश हो चुका होता है, अब उसे लगता है कि अब इन ऊंचाइयों को शायद ही छू पाऊं, हमेशा जमीन पर रहूंगा, कभी आकाश को, मंजिलों को नहीं पा सकूंगा। उसके चेहरे की मायूसी, दर्दनाक संगीत से और भी मार्मिक हो उठती है, यह दृश्य बता रहा है कि जितनी बार एक कमजोर अपने तमाम शक्तियां समेटकर उड़ना चाहेगा शक्तिशाली उसे कुचल देगा। अमीर की आँखों में हिकारत, घमंड और जोश है तो गरीब की शारीरिक हाव-भाव निराशा और मायूसी में डूबे हुए हैं।
अमीर बालक अपनी जीत का जश्न मना रहा है, खुश है कि उसने एक कमजोर को हरा दिया तीनों खिलौने बंदर-भालू के संगीत के नाम पर शोरगुल चालू कर देता है कि तभी इतने में फिर से बांसुरी की आशावादी मधुर ध्वनि उसके कानों में पड़ती है, अब वह समझ नहीं पाता कि इस बांसुरी की धुन को वह कैसे खत्म करें जो प्रेम और शांति का प्रतीक है जिसे एक शक्तिशाली सत्ता झुका नहीं पाई है। इसी बीच वह रोबोट धीरे धीरे उस पिरामिड बिल्डिंग की ओर अंधाधुंध बढ़ता हुआ उसे गिरा देता है।यह दृश्य क्या यह इस बात का प्रतीक नहीं कि मशीनी युग ने कहीं ना कहीं सभ्यता को ध्वस्त कर दिया है लेकिन प्रकृति से बनी बाँसुरी, उसका कर्णप्रिय संगीत अभी भी बज रहा है ‘प्रेम’ अभी भी विद्यमान है जिसने ‘युद्ध-भाव’ को ध्वस्त कर दिया।
एकबार को फिल्म देखने पर, हो सकता है कि आपको फिल्म ‘दो’ बालकों की प्रतिद्वंद्वता का खेल-सा लगे, जिसमें दोनों बालक बिना किसी संवाद के अपने-अपने खिलौनों की श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु फिल्म अकारण ही संवादहीन नहीं है, उच्च वर्ग व निम्न वर्ग में आज भी संवाद की स्थितियाँ कहाँ बन पाई है? एक अमीर बालक जो एक ऊँची इमारत पर खिड़की से देख रहा है जबकि ग़रीब बालक बहुत नीचे घास के बीच खड़ा है घास जो ज़मीन और जड़ो से जुड़ी है जिसकी मज़बूत पकड़ किसी भी परमाणु बम से ज्यादा शक्तिशाली है।सत्यजीत रे ने अपने महान निर्देशन से चित्रित किया है कि वर्ग संघर्ष बचपन से ही हमारे भीतर रोंप दिए जाते हैं जो ताउम्र चलतें हैं लेकिन दृढ़ निश्चय और संकल्प किसी भी शक्तिशाली सत्ता को झुका सकती है।बाँसूरी, ढोलक, मुखौटा पतंग के साथ बार-बार संघर्ष के लिए डटकर तैयार खड़े रहना, उसके हौसलों की मज़बूती दर्शाता है, जिसके आगे तमाम शक्तियां व्यर्थ हो जाती हैं।
खिलौने अमेरिका के समृद्ध संसाधन ही तो हैं जिनका वह दुरुपयोग करता रहा है, कर रहा है। विकासशील देशों के संसाधनों पर अपना कब्जा जताकर खुद को विकसित बनाता जा रहा है लेकिन जब उसके ही बनाएं हथियारों से वर्डट्रेड सेंटर पर हमला हुआ तो वह बेबस लाचार कुछ न कर सका। एक और तथ्य कि यह फिल्म वियतनाम युद्ध के दौरान बनी है बाद में हमने देखा कि वियतनाम की बाँसुरी ने अमेरिका को युद्ध में हरा दिया यह रे की ही दूरदर्शिता है जो फिल्म में नजर आ रही है।आज जबकि विश्व तृतीय विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रहा है इस फिल्म की प्रासंगिकता और महत्व असंदिग्ध है। सत्यजीत रे जिन्होंने फिल्म बनाने और देखने की समझ विकसित की, विश्व प्रसिद्ध महान कलाकार जिसे सिनेमा का सबसे बड़ा ऑस्कर पुरस्कार मिला, आज उनका जन्मदिन है, उन्हें नमन!
इस फिल्म को आप यहाँ देख सकते हैं–