परंपरा और प्रगति : गुनाहों का देवता के संदर्भ में
धर्मवीर भारती के जयंती पर विशेष
‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास का नाम लेते ही जहाँ एक पाठक वर्ग उसे अत्यंत भावुक रोमांटिक और लोकप्रियता की चरम छवि में संजो कर रखता हैं तो दूसरी ओर बौद्धिक, आलोचनात्मक प्रौढ़ विद्वान् इसे घोर व्यक्तिवादी उपन्यास मान सस्ता-लोकप्रिय /लुगदी साहित्य घोषित करते हैं। जबकि प्रगतिवादी आलोचकों ने तो मानो फतवा-सा ही जारी कर इसे साहित्य की श्रेणी से खारिज कर दिया। जबकि हम जानते है की आज यह दिल्ली विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल रहा है।
वास्तव में जिस समय गुनाहों का देवता लिखा गया तब ‘प्रगतिवादी आलोचना’ का बोलबाला था। प्रगतिवाद के रूढ़ नारेवादी परिप्रेक्ष्य के कारण धर्मवीर भारती इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखक संघ के पद से भी इस्तीफा दे चुके थे क्योंकि वे विचारों को किसी ‘वाद-विशेष’ के दायरे में कैद करने के पक्षधर नहीं थे। अपनी इसी स्वतंत्र सोच की कीमत इस उपन्यास को चुकानी पड़ी। अत: यह कहना गलत न होगा कि उनके सृजनात्मक साहित्य का आलोचनाकर्म अतिवादी पूर्वाग्रहों से युक्त रहा और उनकी प्रारंभिक रचनाओं को ही आधार मानकर उन्हें रोमांटिक भाव-बोध तक सीमित कर दिया गया।
वैचारिक स्वातंत्रता में निहित उनका वैयक्तिक स्वातंत्र्य ‘व्यक्ति’ की परिभाषा तक सीमित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने किसी ‘वाद’ के दायरे में न बंधकर अपने भावों और विचारों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति दी। “लोकप्रियता के शिखर को छूने वाली रचना को लांछित करने के उत्साह में कुछ वैयक्तिक राग-द्वेष का अभाव था ऐसा भी नहीं कहा जा सकता आश्चर्य तो यह है कि छायावादी कविता की सभी विशेषताओं की उत्साह से प्रतिष्ठा करने वाले शीर्षस्थ आलोचक भी गुनाहों का देवता के सम्बन्ध में किशोरवयीन भावुकता का आरोप लगाने लगे” (धर्मवीर भारती व्यक्तित्व और कृतित्व चंद्रकांत वांदिवाडेकर पेज 69)
साहित्य में परम्परा और प्रगति दोनों के महत्व को अनिवार्य मानते हुए प्रगतिवाद एक समीक्षा की भूमिका में भारती लिखते हैं कि “अपनी आत्मा से मैं जिस सत्य को साक्षात्कार करता हूँ उसे निर्भीकता से आगे रखना मेरा कर्तव्य है जहाँ तक कम्युनिस्ट प्रगतिवाद का सम्बन्ध है उसके अंदर जो कुछ संकीर्णताएं है, जहाँ वह आपने में सिमटा हुआ भारत की सांस्कृतिक परम्परा से दूर, मानव जीवन के विशाल कैनवास से अनजान एक कट्टर राजनितिक रूप धारण कर लेता है, साहित्यिक के नाते मैं उसके खिलाफ आवाज़ उठाने को बाध्य हो जाता हूँ।” (प्रगतिवाद एक समीक्षा :भूमिका, ग्रंथावली खंड -5 वाणी प्रकाशन, )
प्रगतिवादी सिद्धांतों को भारतीय परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में समझे बिना मात्र राजनीति करना अपनी संस्कृति से कटना ही नहीं अपितु उसके विकास को सीमित करना भी है। भारती का कथा साहित्य दोनों में संतुलन या समन्वय बनाकर चलता है। जबकि“गुनाहों का देवता में निहित मनोविज्ञान, व्यक्ति और समाज के मनोविज्ञान को नजरअंदाज किया जाता रहा है, जिसके अनुसार यथार्थ और आदर्श, वास्तविकता और कल्पना, यथातथ्य और रोमान, व्यक्ति और समाज, व्यक्तिवाद और समष्टिवाद, समकालीनता और अतीत, समय बिद्धता और समयातीतता ये अवधारणा परस्पर सम्बद्ध हैं। असली शक्तिशाली सर्जक इन के बीच के तथाकथित द्वंद्व को दूर हटा कर ही रचनारत होता है गुनाहों का देवता में यही प्रक्रिया संपन्न हुई है” (धर्मवीर भारती ग्रंथावली भाग 2 माखनलाल चतुर्वेदी शुभास्ते पंथान)
प्रेमचंदोतर कथाकार सामाजिक यथार्थ और बिन्दुओं के साथ-साथ व्यक्ति मन को भी समझने का प्रयास हो रहे थे, सामाजिक यथार्थ को अगर यशपाल जैसे लेखक लिख रहे थे तो मन की गहराइयों में उतर कर जैनेंद्र इलाचंद्र, जोशी, अज्ञेय, मनोवैज्ञानिक रचनाएं कर रहे थे। परम्परा से हट कर हमारे सामाजिक परिवेश की समस्याएं परिस्थितियों और संस्कारों में फंसे मध्यवर्गीय मनुष्य की विवशता उसके व्यक्ति मन और उसके गुणों-दुर्गुणों को दिखाने में ये कथाकार अधिक रुचि लेते हैं, जिसमें अपेक्षाकृत नया संसार स्त्री-पुरुष के मुक्त सम्बन्धों की छानबीन करता है।
फिर भी आप इन उपन्यासों को समाज निरपेक्ष नहीं कह सकते क्योंकि ये व्यक्ति-प्रेम केंद्रित ज़रूर है किन्तु समाज की नैतिक अनैतिकता के द्वंद्व का सामना करते हुए मानवीय करुणा को उभारने का प्रयास करते हैं। रूढ़ नैतिकता और खोखले सामाजिक आदर्शों की खिल्ली उड़ाते हैं, इन उपन्यासों की मुख्य समस्या यही है कि उनका प्रेमी और पति एक व्यक्ति ना होकर अलग-अलग देखते हैं। जिस से प्रेम करती है उससे विवाह नहीं हो पाता और जिससे विवाह होता है उससे प्रेम नहीं कर पाती।
उनकी प्रेमिका सदियों से चली आती रूढ़ नैतिकताओं के जाल में जकड़ी पति से उदासीन और प्रेमी के प्रति आकृष्ट सामान्य नहीं हो पाती और इस तरह से अपने व्यक्तित्व का प्राणों का हनन करती है। सुधा की भांति एक धीमी मृत्यु को प्राप्त होती है। व्यक्ति मन अपनी समस्याओं में उलझा है। मन, जिसकी उपेक्षा करना व्यक्तित्व अवरुद्ध करना है समाज यदि व्यक्ति मन की उलझनों पर उसकी छोटी-छोटी बातों पर गौर करते रहें तो जीवन के बड़े महत्वपूर्ण समस्याएँ हल होती चली जाएँ।
प्रगतिवादी आलोचक साहित्य में प्रेम यानी ‘व्यक्ति प्रेम’ को नकारता है, प्रेम जैसे शाश्वत मूल्य की नगण्यता को देखकर भारती लिखते हैं -कि प्रेम एक सनातन भूख है जो न बुझ पाई है न बुझेगी। कोई युग, विचारधारा आए गुटबंदी आए, प्रचार-प्रोपेगैंडा आए, इस सत्य की हत्या नहीं कर सकते। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ अपनी कथा में प्रेम की शाश्वत परम्परा को ही आगे बढ़ाता है पर उसके साथ ही यह शिक्षित मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज के जीवन की करुणा गाथा को, उनकी वास्तविक स्थितियों का मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत करता है।
शिक्षित मध्यवर्गीय चंदर नए जीवन मूल्यों को वैचारिक धरातल पर अपनाने का प्रयास कर रहा है, लेकिन आत्मसात नहीं कर पा रहा। पुराने संस्कारों की जकड़बंदी ने उसे लाचार कर दिया है। यहीं पर भारती वैवाहिक संस्था पर प्रश्न चिह्न खड़ा करते हैं तभी सुधा के पिता को क्यों कहना पड़ा की विवाह की परम्पराएं सड़ गल चुकी हैं इन्हें काट फेंकना चाहिए। क्या स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का मूलाधार दांपत्य जीवन ही है? देह जनित प्रेम, प्रेम क्यों नहीं? पारिवारिक दाम्पत्य प्रेम ही वास्तविक सच्चा प्रेम की कसौटी कैसे हुआ?
विवाह पूर्व प्रेम को सामाजिक सहमति क्यों नहीं मिल सकती, वो भी तब जबकि युवा-युवती पढ़ लिख समझदार हो रहें हैं, युवा की उम्र भी कोई कम तो नहीं, सुधा के प्रेम में त्याग बलिदान, समर्पण, मर्यादाएं, मूल्य सभी विद्यमान हैं। उसका प्रेम अनन्य है उसे स्वीकार्यता क्यों न मिलेगी? फिर देह नहीं है तो प्रेम संभव ही कैसे होगा? यह कोई ईश्वरीय, सूक्ष्म, आध्यात्मिकता नहीं है क्योंकि हम देखकर ही किसी पर आकर्षित होतें है और प्रेम करते हैं, मन में भावनाएं जागृत होती हैं, तन-मन दोनों आंदोलित होते हैं। चंदर और सुधा का प्रेम आकर्षण से प्रारम्भ हुआ जो सहज ही था, चंचल सुधा चंदर को आँखों के संकेत जानकर शांत हो जाया करती थी।
गुनाहों का देवता शिक्षित मध्यवर्ग की युवा पीढ़ी के मानसिक अंतर्द्वंद्वों के अनेक आयाम प्रस्तुत करता है, जिसके मूल में स्त्री-पुरुष के बीच बनने वाले प्रेम सम्बन्धों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है और इसके परिप्रेक्ष्य में विवाह संस्था से जुड़ी खोखले मन्यताओं, जाति-पांति, आर्थिक विषमता की पोल खोलना भी है। सामाजिक संस्कार और मर्यादा की जो दुनिया मन में पैठी हुई हैं, समाज के विरुद्ध आचरण नहीं करने देती और सुधा के आपसी प्रेम और उससे उत्पन्न द्वंद्व के लिए समाज अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं?
जो मर्यादा और प्रेम की पवित्रता को बनाए रखने के झूठे प्रपंच में फंसकर अपने पति कैलाश का भी जीवन नर्क कर चुकी है। धर्मवीर भारती सामाजिक यथार्थ और मानसिक यथार्थ दोनों को गहराई से समझने परखने का प्रयास करतें हैं। गुनाहों का देवता एक प्रेम कहानी होकर भी मानव मन की गहराइयों में उतर कर समाज की पोल खोलती है, साहित्य में व्यक्ति के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं –“साहित्य का आधार व्यक्ति ही है, जीवन और मौत, दुःख और सुख, अँधेरा और उजाला, अतीत और वर्तमान सभी की अभिव्यक्ति साहित्य में व्यक्ति के माध्यम से ही होती है।” (प्रगतिवाद एक समीक्षा पृष्ठ 116)
उदाहरण देते हुए वे बताते हैं “किसी भी महल को गिराते समय चाहे सैकड़ों मजदूरों की कुदाल एक साथ उठे , लेकिन जब नींव पड़ चुकती है, दीवारें उठने लगती है तब हर राजगीर आहिस्ते से एक ईंट चुनता है, उस समय ‘ईंट के व्यक्तित्व’ का महत्व होता है और निर्माता को हर व्यक्तिव को समाज के निर्माण में उचित स्थान देना चाहता है”– (प्रगतिवाद एक समीक्षा पृष्ठ 117)
इसलिए साहित्यकार को ‘व्यक्ति-जीवन’ के भी उच्चतम सौन्दर्य, नैतिकता प्रेम व मूल्यों की प्रतिष्ठा करनी चाहियें, गुनाहों का देवता को एक घोर वैयक्तिवादी उपन्यास मानने वाले राजेंद्र यादव भी मानते हैं कि– “व्यक्ति-व्यक्ति मिलकर तो भीड़ बनती है ईंट मकान की इकाई जरूर है लेकिन ईंट मिलकर मकान नहीं ढेर बनता है, असल में मकान बनाता है ईंट-ईंट के बीच के सम्बन्ध से बनने वाला क्रम, इससे आप ने उन्हें परस्पर सम्बन्ध दिया तभी तो ईंट मिलकर कभी दीवार बनती है, कभी मीनार। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का सम्बन्ध समाज बनाता है वह सम्बन्धों की वह कड़ी है जो व्यक्ति और समाज के अस्तित्व को विकास और प्रगति को सार्थक कर आता है” (राजेंद्र यादव कहानी स्वरूप और संवेदना पेज 107)
इस उपन्यास की एक प्रमुख विशेषता है कि इसमें समाज और व्यक्ति को एक सिक्के के दो पहलू मानते हुए आगे बढ़ाया गया है क्योंकि व्यक्ति और समाज का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता न ही करना चाहिए। भारती ने शिक्षित मध्यवर्गीय समाज में निहित जाति-पांति, आदर्श, नैतिक मूल्यों आदि को पात्रों के मानसिक अंतर्द्वंद के माध्यम से उभारा है। नायक चंदर यदि सुधा से प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं कर पाया तो इसके पीछे उसके सामाजिक संस्कार हैं, डॉक्टर शुक्ला के प्रति कृतज्ञता और सुधा के प्रति सम्मान का भाव है, जो उसे समाज से ही से प्राप्त हुए हैं, यदि वह अपने प्रेम का इजहार करता भी तो समाज कहता कि जिस थाली में खाया उसी में छेद किया।
वास्तव में मध्यवर्गीय समाज में रूढ़ियां और संस्कार भीतर तक अवचेतन मन में हैं जिनसे तत्कालीन शिक्षित युवा वर्ग निकल नहीं पा रहा था।“स्त्री-पुरुष सम्बन्ध प्रेम और विवाह भारतीय मानस हिन्दू समाज विषयक रीति नीति आदि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाने वाली इस रचना ने डॉक्टर शुक्ला की भांति पाठक को भी अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया है।” (धर्मवीर भारती व्यक्तित्व कृतित्व चंद्रकांत वांदिवडेकर 88)
उपन्यास की भूमिका में भारती ने लिखा है “मेरी निगाह में तो समाज की वर्तमान मान्यताएं और व्यवस्था एक बहुत बड़ा गुनाह है क्योंकि वह आधुनिक तरुण के स्वस्थ विकास की हत्या कर डालती हैं और नतीजा यह होता है कि हमारे राष्ट्र के युवक कभी भी अपने व्यक्तिगत अधिकारों और उन जनों से उबर कर स्वस्थ सामाजिक धरातल पर नहीं आ पाते।” (धर्मवीर भारती ग्रंथावली भाग-1)
वास्तव में भारतीय समाज में परंपराओं और वैवाहिक मान्यताओं का ढांचा ऐसा बन चुका है कि प्रेम की परिकल्पना उस में आज भी फिट नहीं बैठती। परिणामस्वरूप तब नवयुवक अनैतिक आचरण करते हैं, जैसे पम्मी चंदर की तरह या सुधा की तरह, अपने प्रेम को सामाजिक मर्यादाओं होम कर देते हैं। आज भी नवयुवक अपने प्रेम की सामाजिक स्वीकृति चाहता है, स्वीकृति कहाँ मिली, तभी तो आज भी हमारे समाज में “ऑनर किलिंग” जैसे घटनाएं होती हैं।
जो कट्टर सोच को दर्शाती हैं, भारती के अनुसार ‘वैवाहिक संस्था एक अच्छा विकल्प है किन्तु अब वे परिष्कार की मांग कर रहीं हैं’ लेकिन रूढ़ियों के कारण उसमें विकृतियां आ गई हैं, प्रगतिशील समाज के लिए, स्वस्थ वैवाहिक विधान के लिए, विवाह पूर्व प्रेम को वैवाहिक संस्कार के समन्वय करने पर जोर देते हुए भारती इन रूढ़ियों को तोड़ देना चाहते हैं, इसके लिए नई पीढ़ी को ही संघर्ष करना होगा वे कहतें है “एक दूसरे को समझे, प्यार करे, तब ब्याह के कोई मायने हैं। समाज में वैचारिक स्वतंत्रता वैवाहिक जीवन में सुख-शांति ला सकता है जातिबंधन की रूढ़ परम्पराओं को तोड़कर प्रेम विवाह समाज को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है अगर दो विभिन्न जाति के लड़के लड़की जिनका अपनी मानसिक संतुलन ठीक हैं तो उन्हें क्यों ना प्रेम-विवाह को इजाजत दी जाए। समाज की कई कुरीतियाँ स्वयं समाप्त हो जाएगी’
रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं “गुनाहों का देवता यद्यपि समाजशास्त्र की पुस्तक नहीं है फिर भी इस भावात्मक कृति में एक ऐसी suggestiveness या व्यंग करने की क्षमता है जो उस दिशा की ओर संकेत करती है जिस दिशा में हम अपने जीवन और उनकी अनेक कठिनाइयों को सुलझा सकते हैं” (धर्मवीर भारती की साहित्य साधना लेखक रामस्वरूप चतुर्वेदी 188)
गुनाहों का देवता प्रेम का नया समाजशास्त्र प्रस्तुत करता है जिसमें प्रेम का स्वरूप शांत है लेकिन उसका अप्रत्यक्ष रूप समाज पर करारी चोट करता है, परम्परागत विवाह संस्था पर प्रश्न चिह्न खड़े करता है। मिस डीक्रिस के माध्यम से आरम्भ में ही मानों उपन्यास की वास्तविक समस्या की ओर इंगित किया है– “शादी अपने को दिया जाने वाला सबसे बड़ा धोखा है, इस धोखे की ओर कच्ची आयु के भोले भावुक मन, प्रेमी वासना रहित निर्मल प्रेम के लिए पूरे उल्लास के साथ बढ़ते तो हैं, परन्तु एक सीमा पर पहुँच कर जो चादुर्दिक विस्फोट होता है, वही यथार्थ का केन्द्रीय मर्म होता है”- (धर्मवीर भारती की साहित्य साधना, 198)
विवाह के बाद सुधा व्रत-उपवास के नाम पर अपने आप को मानो सजा ही दे रही है और प्रेम-रुग्णता का शिकार होती है। जिसका कारण प्रेम कम जबकि खोखले वैवाहिक संस्कार अधिक हैं और अंत में अपना जीवन मिटा देती है। चंदन जो कि एक होनहार रिसर्च स्कॉलर है समाज को बदलने के सपने देख रहा था वह स्वयं ही कुंठित हो जाता है। वैवाहिक संस्कारों में आई विकृति को डॉक्टर शुक्ला जैसे लोग पहले नहीं देख पाते “एक व्यक्ति के झुकाव के लिए हम समाज को क्यों नुकसान पहुंचाए” (गुनाहों का देवता पेज 54)
यानी समाज बना रहना चाहिए व्यक्ति चाहे कितने ही बलिदान दे दें। लेकिन अपनी बेटी सुधा के कष्टों को देखकर उनकी धारणा बदल जाती है और वे भी मानते हैं की वैवाहिक संस्था सड़ चुकी है इसे बदलना चाहिए। सूरज का सातवाँ घोड़ा में वे लिखतें हैं-“हमारी जिन्दगी में जरा-सा परत हटा कर देखो तो हर तरफ इतनी गन्दगी और कीचड़ छिपा हुआ है कि सचमुच उस पर रोना आता है और वह चाहते हैं कि इस कीचड़ रूपी विसंगतियों से बचने के लिए संघर्षशील बने अन्यथा कीचड़ की इस दलदल से बचना कठिन है। वह गाइड समझाते हैं कि जहाँ मौत है अंधेरा है कीचड़ है गन्दगी है या तो दूसरा रास्ता बनाओ नहीं तो डूब जाओगे और स्वस्थ समाज से गन्दगी की कीचड़ में भी वे सदा ईमानदारी का दामन थामे रहने के बाद करते हैं (धर्मवीर भारती ग्रंथावली भाग 2 पृष्ठ 345)
आज जब उत्तर आधुनिकता की कोख से जन्मे विविध अस्मितावादी विमर्शों में हाशिये की आवाज़ को हम सुन पा रहें है, मैं समझती हूँ कि भारती ने हमारे समाज में सदियों से युवा प्रेमियों की दबी हुई आवाज़ को वाणी देने का प्रयास किया है। वैयक्तिक स्वातंत्र्य को केंद्र में रखकर विमर्शकारी आन्दोलन, और गुनाहों के देवता में प्रेम की स्वतंत्रता की आवाज़ में कितना अंतर है इसे समझने के प्रयास होना चाहिए क्योंकि मानव मूल्य के रूप में प्रेम समस्त मानवता की पूँजी है जिसे दबाया नही जा सकता।