लोक रचनात्मकता के प्रतिवादी स्वर
लोक रचनात्मकता सामाजिक आन्दोलन में अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। ऐसी लोक रचनात्मकतों में व्यष्टि और समष्टि की छवियाँ नारों, गीत-संगीत, नाटक और कविताओं के माध्यम से व्यक्त होती हैं। व्यष्टि के प्रतीकात्मक तत्व में समग्र चेतना के निर्माण के द्वारा समष्टि के असंतुलन में बदलाव लाना लोक रचनाताम्कता का प्रमुख कार्य है। व्यष्टि और समष्टि का यह अंतः संवाद सामाजिक आन्दोलनों के तत्वमिमंसीय स्वरुप में बदलाव लाकर सामाजिक आन्दोलनों की दिशा तय करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
जैसे पूँजीवादी व्यवस्था का व्यष्टि-समष्टि बोध इसके विरोधाभासी विचारधारा को मानने वाले लोगों/समूहों से भिन्न होता है। शक्ति-संतुलन से लेकर, भाषा , प्रतीक और विश्वदृष्टि के प्रति दोनों ही भिन्न समूहों की अभिव्यक्ति एक-दुसरे से भिन्न होती है। पूँजीवादी या अधिनायकवादी अगर शोषण, उत्पीडन को अपना हथियार बनाता है तो इसके प्रतिवाद में उठे हुए स्वर एकात्मकता के विभिन्न स्वरों में व्यक्त होकर अन्याय, शोषण के खिलाफ अपनी आवाज को बल देते हैं। बाद में यही एकात्मकता के प्रतिवादी स्वर गीत-संगीत, नाटक, नृत्य साहित्य और वक्तव्यों के माध्यम से अपना विस्तृत आकर लेता हैं।
हालाँकि भारत में प्रतिवाद के भिन्न स्वरों का अपना एक अलग ही सौंदर्यशास्त्र रहा हैं। जिसकी सर्वाधिक अभिव्यक्ति गीत-संगीत के रूपों में संजोई हुई है। गीत-संगीत में दर्शन के गूढ़ रहस्यों का संरक्षण बहुत आसानी से हो जाता है एवं इनके पीढ़ीगत प्रवाह की निरंतरता भी अक्षुण्ण रहती है। वस्तुतः लोक रचना संवाद का एक सकारात्मक माध्यम है जो कि उत्सव, पीड़ा, प्रणय, प्रेम और जनजागरण की भावना को मजबूत करता है। वैसे तो लोक रचनात्मकता परम्परा के तुष्टिकरण का ही माध्यम रहा है लेकिन युगानुकूल होने के कारण आजकल इसमें बड़े-बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं।
आज समाजिक फलक और वैश्विक फलक में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स्थापित हो गया है इनमे से कोई भी एकांत में घटने वाली घटना नहीं है। जिस कारण इसमें एक व्यापक चेतना का निर्माण हो रहा है। आज जब समाज के सामने नये-नये प्रश्न उभरकर सामने आ रहे हैं तो ऐसे में लोक रचनाकारों की जिम्मेदारी बढती जा रही है। आज के सामाजिक परिदृश्य में लोक रचनात्मकता में प्रतिवादी संवाद की भावना मुखर होकर सामने आई है और लोक रचनात्मकता के अन्य संस्करणों में व्यापक बदलाव आया है। अबतक जो परम्पराएँ चलन से बाहर होकर अपना दम तोड़ रही थी उसमें नवोन्मेषी रचनात्मकता ने तात्कालिक विषयों के सन्दर्भों को जोडकर उसमें जान फूंक दिया है।
वस्तुतः संस्कृति के प्रवाह में आमूल-चूल परिवर्तन क्रन्तिकारी विचारों के सामाजिक प्रयोगों से आता है। उदाहरण के तौर पर पर्यावरण के प्रति जागरूकता प्राचीन सभ्यताओं और सभी धर्मों के उपदेशों में ज्ञान के रूप में संरक्षित हैं। लेकिन ऐसे ज्ञान परम्पराओं का पीढ़ीगत प्रवाह के जड़त्व से बाहर निकल कर समकालीन सन्दर्भों के अनुसार आचरण करना बड़ा ही दुरूह होता है। दुनियां में इसके अलग-अलग उदाहरण उपलब्ध हैं जैसे आधुनिक पर्यावरण आन्दोलन जिसकी विधिवत शुरुवात वर्ष 1970 में अमेरिका में विस्कॉन्सिन के सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन के द्वारा शुरू किया गया था। 22 अप्रेल 1970 को आयोजित इस आन्दोलन में बड़े पैमाने पर विश्वविद्यालयों के छात्रों ने प्रतिभाग लिया था।
गेलोर्ड नेल्सन के अवाहन से प्रभावित होकर अमरीका में लाखों लोग पर्यावरण में हो रहे बदलावों को लेकर सडकों पर आये। गेलोर्ड नेल्सन के इन प्रयासों के कारण अमरीकी सरकार पर्यावरणीय न्याय और कानूनों के प्रति जागरूक हुई और इस सन्दर्भ में व्यापक सुधारों की ओर अग्रसर हुई। अब अगर इस आन्दोलन की तरफ देखा जाये तो इसमें पर्यावरण के लिए जागरूकता परम्परागत रूप से संजोये ज्ञान से ज्यादा वैज्ञानिक रूप से अर्जित ज्ञान के आधार पर किया गया था। लेकिन कमोबेश 1970 के दशक में हिमालय में टिम्बर माफियाओं के खिलाफ शुरू हुए चिपको आन्दोलन के जड़ में ग्रामीणों की हिमालय में गहरी धार्मिक आस्था और लाइवलीहुड के सवालों पर केन्द्रित था ना कि वैज्ञानिकता की वस्तुनिष्टता में ,प्राथमिक स्तर पर तो चिपको आन्दोलन में प्रतिवाद के स्वरों के लिए पहाड़ों में प्रचलित लोकगीतों का सहारा लिया गया और उसे रिश्ते-नातेदारी से लेकर ईश्वरीय आस्था पर लाकर खड़ा किया गया था। वैज्ञानिकता का रहस्य तो बाद में इस आन्दोलन के व्यापक विस्तार के बाद आया।
आम तौर पर सामाजिक आन्दोलनों का पॉपुलर विमर्श आन्दोलनों के प्रतनिधि मुद्दे और इनके अगुवा नेताओं पर ही केन्द्रित रहता है। इस विसंगति से भारत का कोई भी सामाजिक आन्दोलन अछूता नहीं रहा वो चाहे चिपको आन्दोलन रहा हो या फिर मुंडा विद्रोह यानि उलगुलान।
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इस आशय से मेरा तात्पर्य यह है कि भारत के सन्दर्भ में खासकर प्रत्येक आन्दोलनों के आंतरिक संरचना में धार्मिक विश्वास और मान्यताओं का एक गहरा आधार होता है। लेकिन मेनस्ट्रीम डिबेट में धार्मिक-सामाजिक तत्वों की अनदेखी एक सामान्य बात है। भारत में सामाजिक आन्दोलन एक खास बात यह है कि शुरू-शुरू में इसका विमर्श सांसरिक समस्या के इर्द-गिर्द खड़ा होता है लेकिन उसकी आगे की यात्रा एक अनुष्ठान की तरह हो जाती है। जैसे बिरसा मुंडा विद्रोह के अंतिम कालखंड में बिरसा मुंडा बिरसा भगवान के रूप में स्थापित हो गये। बाद में यह जा कर यही भगवत्ता बिरसा धर्म के रूप में स्थापित हुआ । इसका उदाहरण देते हुए कुवंर सुरेश सिंह ने एक मुंडा गीत का जिक्र किया है बिरसा के अवतारी चरित्र की आभा साफ़-साफ़ बयां होती है। यह गीत इस प्रकार है-
“स्वर्ग के राजा को परम गौरव मिले।
पृथ्वी के राजा उपाधिधारी (बिरसा) महिमामंडित हों !
हम मुंडा लोग प्रार्थना करते हैं कि हमारे तीरों की नोक पैनी हो
और हमारे कुल्हाडियों की धार तेज और चमचमाती रहे
हमारे शत्रुओं की गोली-बारूद, बंदूकें और तलवारें
टुकड़े-टुकड़े होकर नष्ट हो जाएँ।”
आगे बिरसा मुंडा और उनका धर्म (पृष्ठ संख्या २३८) नामक पुस्तक में कुवंर सुरेश सिंह लिखते हैं कि “बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में मुंडा-आन्दोलन भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के समानांतर चल रहा था। मुंडा-आन्दोलन ने उस उपेक्षाकृत बड़े,देशव्यापी आन्दोलन से कुछ तत्व लिए जैसे कि अतीत के पुनरुद्धार पर बल, सामाजिक सुधार और आंतरिक शुद्धिकरण।”
हालाँकि लोक रचनात्मकता और इसके विभिन्न प्रारूपों में जैसे नारे, कविता, नृत्य, नाटक इत्यादि सम्मलित हैं लेकिन इनमे सबसे आम समानता गीत-संगीत का संदर्भीकरण है। अधिकतर मामलों में यह संदर्भीकरण धार्मिक विचारों से प्रभावित रहता है। जैसे नर्मदा बचाओ आन्दोलन में भिलाला समुदायों के बारे में अमिता बाविस्कर (इन दा वेळी ऑफ़ दा रिवर, पृष्ट संख्या १६२) ने पर्यावरणीय संवेदनशीलता और क्रियाबोध को इंदल पूजा के रूप में दिखाया है। हालाँकि बाद के विश्लेषणों में उन्होंने इन अनुष्ठानों के दार्शनिक क्रियाबोध और इसके प्रभावों में भेद का जिक्र भी किया है लेकिन उन्होंने इन अनुष्ठानों के प्रभावों को सप्ष्ट रूप से नाकारा भी नहीं है। मानविकी के विश्लेष्ण में वस्तुनिष्टता से एक सम्मानजनक दूरी बनाना नैतिकता के रूप में देखा जाता है। चूँकि सामाजिक आन्दोलन का एक आयाम भिन्न तत्वों का समुच्चय भी है और कोई भी कृत्य वो चाहे आन्दोलन विरोधी ही क्यूँ ना हो आन्दोलन के स्पेस और प्लेस के समस्त आग्रहों को खुद में समाहित किया रहता है।
यानि भारत में सामाजिक आन्दोलन भले ही यादृच्छिक विश्वदृष्टि को लेकर चलता है सिवाय इसके कि आन्दोलन का मूल लक्ष्य सांसारिक उत्पीडन से मुक्ति हो लेकिन वक्त के साथ उसमें धर्म, लोकपरम्परा के सम्मिलन से नये आन्दोलनकारी प्रविधी का उदय होता है। और यह आंदोलनों के वृहद लक्ष्यों से आगे बढ़ कर नये प्रतिमानों को स्थापित भी करता है।
उपरोक्त विमर्शों के आलोक में अगर चिपको आन्दोलन पर दृष्टिपात किया जाये तो अकादमिक विश्लेषणों में जिसे सबसे कम शब्दों में समेट दिया गया वह गढ़वाली और कुमवानी लोकगीतों की आन्दोलन में भूमिका है। हिमालयी छेत्र में लोकगीतों का अपना एक विशेष चलन है। जौनसारी जनजाति भाषा के लोकगीतों और हिमालय गंधर्व प्रथा, गढ़वाल के पहाड़ों में महिलाओं के द्वारा श्रम के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाला घसियारी गीत इत्यादि।
चन्द्रशेखर तिवारी ने डाउन टू अर्थ (2020) में फूलदेई पर्व की व्याख्या करते हुए यह बताया है कि किस तरह बसन्त ऋतु में खिलने वाले पंय्या अथवा पदम के वृक्ष को गढ़वाल में अत्यंत शुभ माना जाता है और इसे देवताओं के वृक्ष की संज्ञा दी जाती है। वो आगे कहते हैं कि उत्तराखण्ड के जनमानस में यह लोक मान्यता व्याप्त है कि हिमालय में खिलने वाला रैमाशी का फूल भगवान शिव को अत्यंत प्रिय होता है। यही मान्यता कुंज, ब्रह्मकमल,बुंराश व अन्य फूलों के लिए भी है। फूलों के प्रति देवत्व की इसी उद्दात भावना के प्रतिफल में उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में फूलों का त्यौहार फूलदेई अथवा फुलसंग्राद बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। इसी तरह सावन महीने के आसपास हिराला पर्व, जिसमें वृहद् पैमाने पर वृक्षारोपण के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।
इसलिए वो चाहे सुन्दर लाल बहुगुणा हों या फिर चंडी प्रसाद भट्ट या फिर गौरा देवी इन सभी आन्दोलनकारियों ने चिपको आन्दोलन को धार देने के लिए लोकगायकी का खूब प्रयोग किया। अगर गढ़वाली, कुमाउनी संस्कृति को देखा जाये तो लोकगायकों का आन्दोलन में जुडाव किसी खास रणनीति के तरह नहीं हुआ जैसा कि आजकल के वैश्विक पर्यावरणीय आन्दोलन में किया जाता है। चिपको आन्दोलन में लोकगीतों का समायोजन नैसर्गिक ना होकर प्राकृतिक था। इसलिए तो जब भी इस आन्दोलन की बात होती है इसके नेपथ्य में ही सही लेकिन घनश्याम रतूड़ी “सैलानी” और नरेंद्र सिंह नेगी सहित अन्य कई लोक गायकों की भूमिका को नाकारा नहीं जाता है। सुन्दर लाल बहुगुणा जब चिपको आन्दोलन के अधिष्ठान को लेकर पदयात्रा करते थे तो नरेंद्र सिंह नेगी का गीत “ना काटा ताऊ डाल्युं ना काटा” टेप रिकार्डर पर बजा कर लोगों को सुनाया करते थे। मैं इस प्रसिद्ध गीत को पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ लिख रहा हूँ।
“ना काटाहाआहाआआआआहा तौ डालियोंयोंयों…
डालियों ना काटा चुचों डालियों ना काटा
तौ डालियों ना काटा दिदों डालियों ना काटा।
ना काटाहाआहाआआआआहा तौ डालियों….२
डालि कटेलि त माटी बगाली
डालि कटेलि त माटी बगाली
कुडी ना फुन्ग्डी ना डोखरी बचली
कुडी ना फुन्ग्डी ना डोखरी बचली
घास लखडा न खेती हि रलि
घास लखडा न खेती हि रलि
भोल तेरी आश औलाद क्या खाली….२
ना काटाआआआहाहाहाआआआआ तौ डालियों
डालियों ना काटा दीदीयों डालियों ना काटा
तौ डालियों ना काटा भूलियों डालियों ना काटा…२
धारा मन्ध्यरा पंन्धेरा सुकला
धारा मन्ध्यरा पन्धेरा सुकला ना नोला भरेला ना छुय्या फुटला
हरचलु गाड गदनियूं कु पाणि
हरचलु गाड गदनियूं कु पाणि
तीसल गोली ऊबाली क्या कल्या
ना काटाहाहाहाआआआआहा तौ डालियों
डालियों ना काटा दिदों डालियों ना काटा
तौ डालियों ना काटा भूलों डालियों ना काटा…..२
गोडी भेंसियों कु बाखरियों कु चारु
गोडी भेंसियों कु बाखरियों कु चारु
झपन्यालि डाली चखुल्यों कु सारु
झ्पन्यालि डाली चखुल्यों कु सारु
फूल खिलाला ना हेरियालि रली
फूल खिलाला ना हेरियालि रली
दुनियाँ यों पहाडों कु ठठाठा लगाली
दुनियाँ यों पहाडो कु ठठाठा लगाली
ना काटाहाहाहाहाआआआआहाहाहा तौ डालियों
डालियों ना काटा दिदों डालियों ना काटा
तौ डालियों भुलौं डालियों ना काटा
डालियों ना काटा चुचों डालियों ना काटा..,२
सेंता यों डालियों ते नौनियाल जाणि
सेंता यों डालियों ते नौनियाल जाणि
पाला यों डलियों ते औलाद माणि
औलाद भोलक रूठी भी जाली
औलाद भोलक रूठी भी जाली
नाजल पाणि या डाली हि ल्यालि
नाजल पाणि या डाली हि ल्यालि
ना काटाहाहाहाहाआआआआहाहाहाहा तौ डालियों
डालियों ना काटा दीदीयों डालियों ना काटा
तौ डालियों ना काटा भूलियों डालियों ना काटा
डालियों ना काटा चुचों डालियों ना काटा
तौ डालियों ना काटा चुचों डालियों ना काटा।“
(सन्दर्भ कविता कोष)
इस गीत का शाब्दिक अर्थ उत्तरकाशी के मेरे मित्र गब्बर बीरन जिनका बचपन हिमालय की गोदियों में चिपको आन्दोलनों के गीत-संगीत, दमाऊ, डफली और हुडकी के सुर-तालों के बीच बीता हैं। उनके अनुसार इस गीत में कहा गया है कि
“डालियों को मत काटो नहीं तो जल धारा का जल सूख जायेगा जिसके कारण नदी-नालों में पानी नहीं भरेगा। खड्ड (नाले) का पानी कहीं खो जायेगा, पानी ख़त्म हो जायेगा तो गला सूख जायेगा फिर क्या करोगे ? इसलिए डालियों को मत काटो। पेड़ सुख जायेंगे तो जानवरों को चारा कैसे मिलेगा। पेड़ों को अपनी औलाद समझकर पालो, अपनी औलाद अगर रूठ गयी तो ये पेड़-पौधे और अनाज उपजाने वाले खेतों को पानी कैसे देंगे? इसलिए इन झाड़दार (झपन्याली ) डालियों को मत काटो। इसलिए दीदी और चाचा डाल ना काटो पेड़ ना काटो। अगर आप इन डालियों को काट दोगे तो जंगल बीरान हो जायेगा और दुनियां पहाड़ों को ठहाका लगायेगी (मजाक के सन्दर्भ में) तब कहाँ मुंह दिखाओगे। इसलिए डालियों को मत काटो।”
चिपको आन्दोलन ही एक ऐसा आन्दोलन था जिसमें लोकगायकों को राष्ट्रिय स्तर पर काफी सम्मान मिला हालाँकि इसपर अकादमिक विमर्श कम होने के कारण आज इस विषय में लोग कम ही जानते हैं और आन्दोलन के उथले विमर्शों में खुद को उलझाये रखते हैं। चिपको आन्दोलन के सन्दर्भ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि विमर्शों के इसी उथलेपन से पीड़ित होकर शेखर पाठक ने इस आन्दोलन के बारे में वास्तविक चित्र उकेरने का प्रयास अपनी पुस्तक “हरी भरी दुनियाँ” में किया है। शेखर पाठक का जिक्र करते हुए रामचंद्र गुहा उन्हें इस आन्दोलन का एक विश्वसनीय लेखक की संज्ञा दी है।
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चिपको आन्दोलन भारतीय सामाजिक-पर्यावरणीय आन्दोलन के इतिहास में एक ऐसी आवाज है जिसकी अनुगूँज भारत के प्रत्येक आन्दोलनों में सुनाई देती है। इसलिए तो वर्ष 2019 में बम्बई मेट्रो के कार शेड के निर्माण के लिए 3,212 एकड़ में फैले वन को काटने का प्रावधान किया तो बम्बई शहर में प्रतिवाद की एक लहर दौड़ गयी। वहाँ चिपको आन्दोलन से प्रेरणा लेकर कई लोग इकट्ठे हुये, यह चुनावी मुद्दा बना और फिर महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन होते ही वृक्षों की कटाई का निर्णय वापस लिया गया। इस पूरे घटना क्रम में पीयूष मिश्र के गीत “चिपको रे” एक बार फिर से लोगों के जुबान चढ़ गया। तो एक तरह से अगर देखा जाए तो चिपको आन्दोलन के पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी पोपुलर कल्चर में इसका छवि अभी तक जिन्दा है।
इसलिए उपरोक्त उदाहरणों के आधार पर हमने देखा कि सामाजिक आन्दोलनों में लोक रचनात्मकता का अपना एक अलग ही प्रभाव होता है। आज के दौर में अगर नज़र दौड़ा कर देखें तो संगीत के माध्यम से व्यष्टि-समष्टी के उद्वेगों को लोक परम्परा के पुट में संजोकर उसे व्यक्त किया जा रहा है। भारत में प्रतिवादी स्वरों पर प्रोफ़ेसर सुमंगला दामोदरन ने IPTA (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के प्रतिवादी संगीत पर एक विस्तृत अध्ययन किया है। नम्रता जोशी ने हिंदी फिल्मो के संगीत में प्रतिवाद के स्वरों का खुबसूरत अध्ययन किया है। आजकल के ऐसे प्रतिवादी गीतों में लोकल और ग्लोबल का बहुत तेजी से फ्यूजन हो रहा है।
सामाजिक आन्दोलनों को धार देने के लिए नये नये गीतों का विकास किया जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा चलन कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित आन्दोलनों के सौंदर्यशास्त्र में दिखता हैं। गांधी जी ने भी राम के लोकजीवन में गहरे प्रभाव को समझते हुए, विमर्शों को विविध स्वरूपों में आजादी के आन्दोलन में समायोजित किया। लेखक डॉ अरुण प्रकाश पाण्डेय ने अपनी पुस्तक “गाँधी के राम” में इसका विस्तृत विश्लेष्ण किया है। इस तरह हमने देखा किस तरह व्यष्टि के प्रतीकात्मक तत्व, चेतना के निर्माण और उससे प्राप्त प्रेरणा से अभिभूत विचार; समष्टि के असंतुलन को व्यवस्थित करने के भाव से परिपूर्ण होकर संदर्भो के साथ अपना ताल-मेल बैठाता है।
आज चिपको आन्दोलन के बड़े-बड़े एक्टिविस्ट जीवन के अंतिम दौर से गुजर रहे हैं। कुछ लोगों ने अपनी जीवन यात्रा पूरी कर अनंत यात्रा को निकल गये अभी हाल ही सुन्दर लाल बहुगुणा जी का भी देहाँत हो गया। एक दिन ऐसा होगा कि शायद इनमें से कोई भी इस भौतिक दुनियां में ना रहें लेकिन चिपको आन्दोलन ने भारत के पर्यावरणीय आन्दोलन छेत्र में इतना गहरा छाप छोड़ दिया है कि आने वाली कई पीढियां इनसे प्रेरणा लेकर चिपको और चिपको के आन्दोलनकारी और उसकी लोक रचनात्मकता को याद करते रहेंगे।
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