समाज

महिला के जलने के उत्सव में महिला दिवस

 

इस बार बहुत ही संयोग की बात है कि महिला दिवस और होली दोनों एक ही दिन मनाया जा रहा है। यह कुछ लोगों के लिए सौभाग्‍य है, तो कुछ के लिए दुर्भाग्‍य। एक तरफ किसी महिला के आग में जलकर मर जाने की मिथक व्याप्त है, जिसे भगवान नरसिंह के अवतार से जोड़कर देखा जाता है और कहा जाता है कि भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए तथाकथित एक बुरी महिला अर्थात् होलिका को जला दिया गया और लोग उसे जलते देखकर तमाशबीन बने रहें। तब से लेकर आज तक महिलाएं किसी-न-किसी रूप से आग में जलाई ही जा रही हैं और लोग तशबीन बने रहते हैं। वे महिला अच्छी हैं या बुरी इससे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य को एक विवेकशील प्राणी कहा जाता है और जब विवेक की बात होती है तो उसमे धैर्य, अहिंसा खुद-ब-खुद जुड़ जाता है। फिर कोई विवेकशील प्राणी ऐसी हिंसा का परिचायक कैसे हो सकता है? हिंसक इतिहास की पुनरावृत्ति समाज में निरंतर हो रही है, जहां भीड़ खुद ही फैसला ले‍ने लगी है या खुद ही सजा देने लगी है। होली को लेकर पिछड़े, दलित, नारीवादी सभी के अपने-अपने मत हैं और लोग इस संदर्भ में कई गुटों में बंटे हैं। कोई इसे अच्छाई पर बुराई का प्रतीक बताते हैं, तो कोई इसे महिला हिंसा और पुरुषवादी मानसिकता का द्योतक।

एक तरफ होली, महिला के जलने का उत्सव है तो महिला दिवस, महिलाओं को सदियों से वंचित अधिकार और सम्मान और न्‍याय दिलाने का उत्सव। महिला दिवस महिलाओं को उनकी शक्ति का एहसास कराने का भी दिन है। अगर ये कहा जाये कि इतिहास से लेकर वर्तमान तक महिलाएं जिस आग में जल रही हैं, वे किसी अभिशाप से कम नहीं है तो वह अतिश्‍योक्ति नहीं होगी। कभी पति की चिता के आग के हवाले महिलाओं को किया गया, तो कभी बाल विवाह और अनमेल विवाह आदि के। कभी उन्‍हें विधवा जीवन के आग में जलने के लिए बाध्य किया गया तो कभी, वेश्‍या का जीवन। सिर्फ इतना ही नहीं कभी वे दहेज़ की आग में जली, तो कभी घरेलू हिंसा की आग में। यहाँ तक कि होली के रंगों अथवा त्योहारों में भी हवस और अश्लीलता की आग को साफ-साफ देखा जा सकता है, जिसमें न जाने कितनी ही महिलाएं बर्बाद हो जाती हैं।

एक महिला जिस तरीके से घर-बाहर हिंसा और शोषण के आग में जल रही हैं, वह सदियों से चली आ रहे पुरुषवादी मानसिकता का ही परिचायक है। इस समाज में जब भी महिलाओं ने पुरुषों की बराबरी करनी चाही अथवा कदम-से -कदम मिलाकर चलना चाहा, तब-तब उन्हें किसी-न-किसी आग के हवाले कर ही दिया गया। आज भी उन्हें उन अधिकारों से वंचित ही रखा गया है, जिसकी वे वास्‍तविक अधिकारी हैं। कभी उन्हें जम्मेदारियों के हवाले कर दिया जाता है, तो कभी महिला होने के एह्साह के। लेकिन उन्‍हें कभी अपनी जिंदगी जीने की छूट नहीं दी जाती है। उन्‍हें हमेशा एक रिंग मास्‍टर के माध्‍यम से नचाया जाता है। 

इस समाज में औरत को हमेशा उन्हीं अपराधों की सजा दी गई है जिनकी जिम्मेदार वह खुद रही ही नहीं है। राजेंद्र यादव ने लिखा था कि “आदमी हमेशा से औरत की स्व़तंत्र सत्ता से डरता रहा है और उसे ही उसने बाकायदा अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है। आदमी ने लगातार और हर तरह की कोशिश की है कि उसे परतन्त्र और निष्क्रिय बनाया जा सके। पुरुष समाज हमेशा औरत को चार दीवारी के अंदर बंद करके रखने की वकालत करता रहा है ताकि औरत बाहर की दुनिया को देख न सके और पुरुषों का वर्चस्व बना रहे। जिस किसी ने पुरुषों की इस सोच से ऊपर उठने की कोशिश की, तब-तब मर्दवादी सोच ने उसे आग के लपटों में धकेल दिया । राजेन्‍द्र यादव कहते हैं कि “आदमी ने यह मान लिया है कि औरत शरीर है, सेक्स है, वहीं से उसकी स्वतंत्रता की चेतना और स्वच्छन्द व्यवहार पैदा होते हैं। इसलिए वह हर तरफ से उसके सेक्स को नियन्त्रित करना चाहता है। सामाजिक आचार-संहिताओं, यानी मनु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों से लेकर व्यक्तिगत कामसूत्र तक औरत को बांधने और जीतने की कलाएं हैं।” शायद यही वजह है कि जब भी किसी पुरुष के मन में बदले की आग जल रही होती है तो वह उसे बलत्कार की आग में ही धकेल देता है। देवी की मान्यता प्राप्त महिलाओं को उस समय सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने की वास्तु के रूप में ही देखा जाता है। इतिहास गवाह है कि देश दुनिया में जब भी कोई दंगा या आक्रमण हुआ है तो उस आग में सबसे पहले महिलाएं ही जली है और आज भी यह घटना निरंतर जारी है। अनवरत जलते इस आग से महिलायें कब अपने आप को सुरक्षित कर पाएंगी अथवा ये आग कब बुझेगी यह आज भी किसी पहेली से कम नहीं है।

इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का थीम #EmbraceEquity है। इसका अर्थ है समानता को अपनाना। इसके जरिए संयुक्त राष्ट्र चाहता है कि महिलाओं को कार्यस्थल और समाज में पुरुषों के जितना ही सम्मान और अधिकार दिया जाए। आज भी जेंडर असमानता और रूढि़वादी तथा मर्दवादी मानसिकता के कारण महिलाओं को कार्यस्थल में पुरुषों के मुकाबले कम प्राथमिकता दी जाती है और उनके कार्य करने की क्षमता को भी कम आंका जाता है। उन्‍हें पुरूषों के पिछड़पन अथवा बेरोजगारी का भी जिम्‍मेदार माना जाता है। उन्‍हें उनके हक देने से रोकने के लिए तमाम सा‍जिशें की जाती है। यही वजह है कि आधी आबादी का प्रतिनिधित्‍व आज तक आधा भी नहीं हो पाया है। अधिकांश जगहों पर उनका प्रतिनिधित्‍व नाम मात्र है। आज भी पुरुषों का वर्चस्‍व समाज में सर्वव्‍याप्‍त है। इसे विभिन्‍न जेंडर गैप के रिपोर्टों के माध्‍यम से स्‍पष्‍ट रूप से समझा जा सकता है। अत: महिला के आग में जल कर मरने के उत्‍सव को मनाने वाले लोगों को यह समझना होगा कि वे अब इस आग में महिलाओं को ज्‍यादा दिन तक नहीं जला पायेंगे।  जिस दिन वास्‍तव में वह अपनी शक्ति को पहचचान लेंगी, उसी दिन पुरुषवादी सोच और समाज दोनों ही आग में जल कर खाख  हो जायेगा। उस दिन ही सही मायने में महिला दिवस होगा। अन्‍यथा महिला दिवस खोखला ही साबित होता रहेगा

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

अमिता

लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं शिक्षाविद हैं। सम्पर्क +919406009605, amitamasscom@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x