हमारे राम
राम न गये थे, न आएँगे। हजारों वर्ष पूर्व से लेकर विभिन्न युगों, भाषाओं, देशों और धर्मों से होते हुए भारतीय संस्कृति की तरह सतत प्रवहमान हैं राम आज तक। संस्कृत के वाल्मीकि से लेकर उत्तर और दक्षिण तक भारत भर की विभिन्न – प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक भाषाओं और बोलियों, यहाँ तक कि जैन आदि धर्मों तक में राम की कथा विभिन्न रूपों में बिखरी पड़ी है जो बताती है कि राम स्वतः ही भारतीय संस्कृति के अन्तर्निहित सूत्र के रूप में विद्यमान हैं, अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ, बल्कि उसके बावजूद। इस रूप में अपनी साकार प्रतिमूर्ति से बाहर उनकी उपस्थिति निराकार विराट सर्वव्यापी चेतना में परिणत हो जाती है। तभी तो मध्यकाल की भक्ति चेतना की अलग अलग धाराएँ उनमें आश्रय खोजती हैं और परिपूर्णता पाती हैं। तुलसी के रामराज्य के स्वप्न के वे वाहक बनते हैं तो कबीर आदि निर्गुण भक्तों की भक्ति के अवलम्ब भी।
राम को समझने के लिए भारतीय संस्कृति की उस अप्रतिहत धारा को अन्तरसात करना जरूरी है जो अहिंसा, परोपकार, त्याग, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों पर अवलम्बित है जिसके लिए अमर कवि दिनकर लिखते हैं – “जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है/देश देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है “… राम को देखना है तो उस लोकजीवन में झांकिए जहाँ राम जीवन पद्धति में शामिल हैं – लोकगीतों में, नाट्य रूपों में, कथाओं में – जहाँ राम और सीता के साथ लोकमानस हँसता, रोता , भजता, गुनगुनाता है। अन्त समय में मरणासन्न मुख से स्वतः उच्चरित होने वाले शब्द राम के प्रति लोकानुराग सहज संपुष्ट है। लोकगीतों में राम आम जन के साथ खड़े हो जाते हैं उसके सुख दुख के साझीदर बनकर। पुत्र जन्म पर गाए जाने वाले सोहर गीतों में हर बालक राम है, हर माता कौशल्या।
मिथिला के हर वैवाहिक अनुष्ठान के नायक राम ही हैं – राम और सीता वहाँ शाश्वत वर और वधू हैं। जय सियाराम की अभिवादन पद्धति में परिणत होकर वे स्वतः ही लोकहृदय के अघोषित सम्राट बन जाते हैं। ये वे राम हैं जो अपनी सिया बिना अधूरे हैं। भले ही राजधर्म के लिए उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया हो पर जनमानस जानता है कि वे सीता के प्रति ही एकनिष्ठ रहें। इसलिए जनमानस ने राम और सीता को एकाकार कर दिया। यह इस बात की भी अघोषित स्वीकृति है कि गृहस्थ धर्म सर्वोपरि है, कि राम सीता बिना अधूरे हैं। राम को जानना है तो तुलसी के पास जाएँ जहाँ वे लिखते हैं – “सियाराममय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी”। ये तुलसी के वे राम हैं जो हमारे जनमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे सौंदर्य के खान है और यह सौंदर्य सिर्फ रूपाकृति का नहीं है। वे शील, शक्ति और सौंदर्य तीनों के आगार हैं। उनकी मधुर मुस्कान में जितना शील का माधुर्य है, उतना ही शौर्य का गाम्भीर्य भी। शील से समन्वित उनका शौर्य कहीं भी अमर्यादित नहीं है। धनुष पर उनका हाथ अन्तिम विकल्प के रूप में जाता है। सुग्रीव पर कुपित होने के पूर्व वे लम्बी अवधि तक प्रतीक्षा करते हैं, समुद्र से याचना करते हैं, युद्व के पूर्व संधि का प्रस्ताव भेजते हैं और यहाँ तक कि रावण के पराभव के बाद ज्ञान लेने के लिए लक्ष्मण को उनके पास भेजते हैं। ये राम देवता नहीं अवतार हैं, इसलिए पूजने से अधिक वरण और धारण करने में उनकी महिमा और स्वीकार्यता है। राम की मर्यादा उनके त्याग में है। राम राम हैं क्योंकि वे त्याग कर सकें राजपाट का। उन्होंने किसी से शत्रुता नहीं निबाही। अपने शत्रु की भी मर्यादा का मान रख सकें। उनकी वीरता अन्याइयों के नाश में है पर वहाँ भी वे आक्रामक नहीं हैं। इसलिए वे लोकहृदय के अखंड सम्राट बन सकें। इसलिए राम नाम के तार को स्पर्श करते ही लोकमानस झंकृत हो उठता है, रसमय हो उठता है। राम हृदयों में विराजमान हैं। वे किसी मंदिर में प्रस्थापना के मुखापेक्षी नहीं। अपनी विध्वंसकारी आवाज से दूसरों को आतंकित करने वाले राम हमारे नहीं हो सकते। हमारे राम सादगी के प्रतीक हैं। हमारे राम तो पिता का साम्राज्य छोड़कर उसी तरह चल दिये थे जैसे कोई पथिक रास्ते में आने वाले पड़ाव को छोड़कर चल देता है।
तुलसीदास जब लिखते हैं – “राजीव लोचन राम चले तजु बाप को राज बटाऊ की नाई” …तो वे रामचरित के इसी महत्तम पक्ष को हमारे सम्मुख रख रहे होते हैं। हमारे राम तो त्याग के प्रतीक हैं चाहे वह अवध का राजपाट ही क्यों न हो! बालि के वध के पश्चात वे किष्किंधा सुग्रीव को सौंपकर आगे बढ़ जाते हैं, लंकाविजय के पश्चात लंका का राजपाट विभीषण को सौंप देते हैं। तो सत्ता की सीढ़ी बनने वाले ये राम कौन हैं? यह राम का कौन सा आविर्भाव है जो विवेक को ताख पर रखकर उन्माद का आश्रय बन रहा है? नहीं, ये हमारे राम नहीं हैं। मध्यकाल में कबीर ने कहा था – दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना …। कबीर को याद करते हुए उस मर्म का फिर से अन्वेषण करना होगा अन्यथा राम उन्माद और आतंकी हुंकारों में खो जाएँगे हमेशा के लिए! यूं ही युगों की सीमा को लांघकर राम गाँधी के सम्मुख नहीं खड़े हो जाते – सबको ‘सन्मति’ देने के लिए गाँधी राम की ही गुहार लगाते हैं। हम आज भी खड़े हैं वहीं उस प्रार्थना गीत के साथ ‘रघुपति राघव’ को स्मरण करते हुए।
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