समाज

चरवाहा घुमंतू समाज का संकट

 

पशु आदिम अवस्था से ही मनुष्य का सहयात्री रहा, कभी आखेटक के शिकार के रूप में तो कभी पोषण करने वाला पालतू पशु बनकर। आदिम समय से मनुष्य ने पशुओं की उपयोगिता के आधार पर उसे पालतू बनाकर उनसे सहयोग लिया और उसकी सहायता से कठिन और खूंखार जानवरों का शिकार कर अपनी सुरक्षा और खाद्य संबंधी जरूरतों को पूरा किया। इस प्रकार आखेटक आदिम समाज द्वारा पाले जाने पशुओं के साथ धीरे धीरे चरवाही संस्कृति का भी विकास होने लगा। विभिन्न जलवायुविक दशा में रहने वाले लोगों ने अपनी अपनी क्षेत्रिय उपलब्धता के आधार पर पशु पालन आरंभ किया। इस क्रम में बकरी को सबसे पहले पालतू बनाया गया। बकरी को अज भी कहा जाता है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि हिरण्यगर्भ जब सृष्टि के आदि में भण् की आवाज के साथ फूटा तो उससे अज की उत्पत्ति हुई और जो रस पानी में जा मिला उससे रासभ (गधा) पैदा हुआ।

गाय से पहले अज यानी बकरी को पालतू बनाया गया। इसके पर्याप्त प्रमाण हमारे प्राचीन ग्रंथों में मौजूद है। भारतीय संस्कृति में देवताओं के वाहन से लेकर पशुबलि के लिए बकरे के उपयोग की परंपरा रहीं है। इतना ही नहीं पौष्टिक दूध धी के लिए भी बकरी पालने की परंपरा थी। इस तरह पशु का अर्थ था पोषण का स्रोत अथवा पोषण देकर रखा जाने वाला जानवर। जो दक्षिण की कुछ भाषाओं में गाय के लिए रूढ़ हो गया और मृग शब्द उन जंगली जानवरों के लिए प्रयोग किया जाता था जिनका शिकार किया जा सके जो आगे चलकर हिरण के लिए प्रयोग किया जाने लगा। हिरण और पशु शब्द कृषि संस्कृति की आवश्यकता से निकले हुए शब्द हैं।

हिरण कृषि के लिए शत्रु थे जो खेतों को नुकसान पहुंचाते थे जिन्हें मारना पुण्य का काम था। रामकथा में स्वर्णमृग का मिथक इसका सुंदर उदाहरण है। इसी प्रकार गोपालक जिन्हें ऋगवेद में याद्व: पशु अर्थात यादवों का पशु कहा गया है। यादववंशी कृष्ण को गायों और पाडंव पुत्र नकुल, सहदेव घोड़ों और गायों के कुशल चिकित्सक माने जाते थे। इस प्रकार के तमाम उदाहरण पशुपालन की समृद्ध परंपरा के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

 आदिम समाज में पशु और उससे प्राप्त होने वाले विभिन्न उत्पाद आहार, वाहन आदि के मुख्य स्रोत होते थे। ज्ञात हो कि अत्याधिक शिकार के कारण जब आदिम समाज की खाद्य संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति पर संकट गहराने लगा और पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने लगा था तब वन्य प्राणियों की जैव प्रजाति समाप्त होने के खतरे को देखकर आदिम मनुष्य ने खेती करना शुरू किया और यहीं से विकास का अगला चरण शुरू हुआ। कृषि संस्कृति के विकसित होने तक आहारसंग्रहक समुदायों और पशुचारकों को निरंतर अपने उदरपूर्ति के लिए स्थान बदलना पड़ता था लेकिन जब आदिम समाज खेती करने लगा तब एक बड़ा समूह धीरे धीरे स्थायी रूप से गांवों में बसने लगे।

कृषि के आविष्कार के बाद मनुष्य के भोजन में मांस के साथ साथ अनाज ने भी अपना स्थान बना लिया। इस प्रकार समाज कृषि और आहार संग्रहक समाज के रूप में बंटने लगा। विकास के क्रमिक सोपानों को तय करता हुआ मनुष्य खाद्य संग्रहक से पशुचारक और पशुचारक से कृषि संस्कृति में प्रवेश करते हुए धीरे धीरे नगरीकरण की ओर बढ़ने लगा। और कृषि कार्य के लाभों को देखते हुए कृषि योग्य भूमि पर कृषकों का आधिपत्य बढ़ने लगा। अन्न उपजाने वाला कृषक भौतिक सुविधाओं से संपन्न होने लगा और धीरे धीरे गांव नगरों में तबदील होने लगे।

खेती करने वाला खेतों का मालिक कहलाता और अन्न के बदले धन और दूसरी वस्तुओं को सहजता से प्राप्त कर लेता जबकि पशुपालकों व चरवाहों के पास खेती की जमीन न होने के कारण अन्न और चारे के लिए उसकी निर्भरता किसानों पर बढ़ने लगी। इधर अन्न के बदले धन और दूसरी उपयोगी वस्तुओं के साथ साथ खेतों के खाद के लिए किसानों और पशुपालकों के बीच अलिखित समझौते के अधीन दोनों एक दूसरे की आवश्यकताओं का सम्मान करने लगें। आधुनिक तकनीकों और रासायनिक खादों के कारण खेती के लिए पशुओं की निर्भरता खत्म होने के बाद भी दूध घी, मांस, ऊन जैसी अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए आज भी कृषि समाज व नागरी समाज पशुपालक समाज पर आश्रित है लेकिन बढ़ती जनसंख्या के कारण खाली परती जमीनों पर किसानों का एकाधिकार होने के बाद पशुपालकों के समक्ष पशुओं के खाद्य संकट उत्पन्न होने के कारण पशुपालन कृषि कार्यों की तुलना में महंगा व श्रमसाध्य कार्य बनता गया। आदिम समाज में पशुपालन कृषि कर्म के समान ही लाभकारी था।

माना जाता है कि बड़ी संख्या में पशुपालक हिंद, ईरानी सीमाओं को पार करके पशुओं के लिए हरित घास के मैदानों के निकट बसने लगें। 1000- 500 ईं पू. सिंधु और गंगा के बीच तथा गंगा और यमुना के बीच स्थानांतरित होकर बसने वाले समुदाय ने खेतीबाड़ी का काम शुरू किया। इसलिए कृषि समुदाय का उदय मध्य गंगा के घने जंगलों से भरे अति उर्वर मैदानों में हुआ था।

यानि 1500 से 1000 ई.पू. ही आदिम समाज कृषि और पशुपालन के कार्यों से जुड़ चुका था। स्थायी रूप से कृषि करने वाला समाज अपनी जरूरत के लिए पशुपालन भी करने लगा था। पशु न सिर्फ खाद्य पदार्थों के स्रोत थे बल्कि दुग्ध उत्पादों के भी। कृषि द्वारा आसानी से चारा उपलब्ध होने के कारण पशुपालन का विस्तार हुआ। जो स्थायी रूप से नही बसे थे वे खेती करने वालों की सहमति से अपने पशुओं के लिए चारागाह की भूमि प्राप्त करके पशुपालन का कार्य करने लगे और पशुपालक समाज जो खेती नही करता था धुमंतु के रूप में आवश्यक वस्तुओं का व्यापार करते हुए खानाबदोश समाज के रूप में जाना जाता था।

कृषक समाज में भी पशुओं को सम्पत्ति मानकर पशुधन के रूप में इसका विनिमय किया जाता था। धुमंतु पशुपालक समाज अपने पशुओं के लिए चारे की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरंतर भ्रमण करते हुए जीवनयापन करते थे और दैनिक जीवन की वस्तुओं का व्यापार कृषि समाजों के साथ करते थे। ऐसे में ऋतु प्रवास यानि जलवायु के अनुसार देशान्तर करने वाले पशुचारको का समूह हर नए स्थान पर अपनी आवश्यकताओं के लिए खेती, चारे की भूमि व पानी को लेकर स्थानीय कृषि समाजों से विवाद होना स्वाभाविक था।

लेकिन अद्भुत बात यह है कि तमाम संघर्षों के बाद भी कृषक समाज और पशुचारण समाज एक दूसरे के पूरक थे इसलिए दोनों समाजों का विकास स्थानीय व पर्यावरणीय अनुकुलता के आधार पर हुआ जैसे जिन स्थानों पर वर्षा अधिक होती है वहाँ पशुपालन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। जल बहुल वाले स्थानों पर पशुओं के खाने योग्य घास की उपलब्धता न होने के कारण वहाँ चरवाह समाज की तुलना में कृषि समाज का विकास दिखाई देता है। असम, मेघालय में बिना हल की खेती करने की परंपरा इस बात को सिद्ध करती है। पूर्वोत्तर भारत में खेती की और अधिक ध्यान दिया गया इसलिए आज भी वहाँ पशुपालन मांस के लिए किया जाता है। जबकि पश्चिमी भारत में राजस्थान, गुजरात जैसे शुष्क क्षेत्र पशुपालन के लिए उपयुक्त रहे है इसलिए यहाँ पशु मेलों की परंपरा चरवाह संस्कृति के अदिम प्रतीक है।

भारतीय समाज में पशु पालन के अनुपम उदाहण देखे जा सकते है। यहाँ कृषि कार्य और दूध, धी की प्राप्ति के लिए बड़ी संख्या में पशुओं को पालने की परंपरा रही है। भारत में पशु पालन सिर्फ खाद्य आवश्यकताओं के लिए ही नहीं बल्कि अपितु अपनी सुरक्षा और मनोरंजन के लिए भी इन्हें पालने की परंपरा आदिम युग से ही देखी जा सकती है जैसे भालु, बंदर, हाथी, हिरन, तौता मैना सांप आदि। इन्हें पालने वाले अपनी अपनी विशेषज्ञता के कारण अलग अलग समूहों में बंटते चले गए जैसे गाय पालने और चराने वाले ग्वाले कहलाए, भेड़ और बकरी पालने वाले गडरिये इसी तरह सांप पकडने वाले सपेरे और बंदर भालू रखने वाले मदारी हाथी रखने वाले महावत जैसे अलग अलग समूह पशुपालकों का विभाजन होता चला गया। आदिम समाज में पशु पालन के अतिरिक्त उनकी चिकित्सा संबंधी व्यवस्था आश्चर्यचकित करती है।

संसार के इतिहास में घोड़े पर प्रथम पुस्तक शालिहोत्रसंहिता लिखने का श्रेय शालिहोत्र को जाता है जो स्वयं पशु चिकित्सक भी थे। इसी प्रकार पालकाप्य मुनि ने हस्तयायुर्वेद लिखा जिसमें हाथी के पालन पोषण व चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया। – अग्नि पुराण में इन दोनों चिकित्सकों का उल्लेख आता है। अग्निदेव वशिष्ट को बताते है कि शालिहोत्र ने सुश्रुत को अश्वायुर्वेद और पाल्काप्यने अंगराज को गवायुर्वेद का उपदेश दिया – शालिहोत्र: सुश्रुताय हयायुवेर्दमुक्तवान पालकोप्योउंगराजाय गजायुर्वेदमब्रवीत। ऋग्वैदिक काल में पशुपालन अच्छी तरह से विकसित था और गाय (कामधेनु) की उपयोगिता को जानने के बाद उस की पूजा की जाने लगी। वैदिक ऋषियों ने गायों के संरक्षण पर बहुत बल दिया। ऋग्वेद मवेशियों और उनके प्रबंधन के संदर्भों से भरा पड़ा है।

प्राचीन समय में कृषि समाज और चरवाहा समाज एक दूसरे पर आश्रित समाज होकर भी स्वयं में आत्मनिर्भर समाज था। कृषि फसलों की कटाई के बाद फसलों के ठूठो को चरने के लिए पशु चारको की जरूरत पड़ती और पशु चारको को अपने पशुओं के चारे के लिए कृषि समाजों से मेलजोल रखना उनकी जरूरत रही। इस प्रकार दोनो की जरूरतों के विनिमय के कारण कृषि संस्कृति और चरवाहा संस्कृति आदिम समाज के विकास के महत्वपूर्ण घटक माने जातें हैं। लेकिन विकास और एकाधिकार की स्वार्थवादिता के कारण दोनों समाजो ने एक दूसरे की आवश्यकता की अवेहलना करनी शुरू की। गांव में जो परती जमीनें थीं, उन्हें चारागाह में तब्दील करने के बजाय पट्टे पर दे दिया गया। अब गांवों में सार्वजनिक जमीनें बची ही नहीं, जहाँ जानवरों को चराया जा सके।

 

चारागाह खत्म हुए, तो चरवाही खत्म हो गई और उसी के साथ पशुओं को पालने की संस्कृति भी खत्म हो गई और परिणाम यह हुआ कि पशुपालक कृषि संस्कृति के विकास की दौड़ में पीछे छूटकर हाशिये का समाज बनकर रह गए। पशुपालक समाज में गड़रिया जिनका मुख्य व्यवसाय गाय, भेड़, बकरी को पालना था, अब धीरे धीरे चारागाह की कमी के कारण अपने पारंपरिक कामों को छोड़कर दूसरें व्यवसायों से जुड़ने लगे हैं l क्षेत्रियता के आधार पर इन्हें विभिन्न नामो से जाना जाता है जैसे – पाल, बघेल, धनगर आदि। गड़रिया धनगर धनगढ़ जाति एक आदिम पशुपालक जाति है। जिसका मूल व्यवसाय भेंड़ पालन करना एवं कम्बल बुनना है। प्राचीन समय से ही यह जाति खानाबदोश की तरह भेंड़ पालन का कार्य करते थे।

धीरे धीरे समय परिवर्तन के साथ-साथ गांवों नगरों में बसते चले गए। इसी प्रकार गुज्जर बकरवाल जम्मू और कश्मीर के पहाड़ों में रहने वाला पशुपालक समाज हैं। ये भेड़ बकरी पालते हैं। प्रति वर्ष जाड़े में जब पहाड़ों पर बर्फ जम जाती है तो ये लोग शिवालिक की निचली पहाड़ियों में चले जाते हैं ताकि उनके मवेशियों को चारा मिल सके। अप्रैल के महीने में जब गर्मी शुरु हो जाती है तो ये वापस ऊँचे पहाड़ों पर चले जाते हैं। हिमाचल के गद्दी जाड़े में शिवालिक के निचले इलाकों में रहते है। हिमालय में रहने वाले अन्य चरवाहे समुदायों के नाम हैं भोटिया, शेरपा और किन्नौरी भी आते है। ये चरवाहे भी जाड़े में पहाड़ों से उत्तर कर मैदानी भागों में चले जाते है ताकि उनके पशुओं को खाने के लिए चारा मिलता रहे।

मैदानी और पहाड़ी समाजों की आपसदारी एक दूसरें का संबल थी। कृषक समाज पशुपालकों के महत्व को समझते थे इसलिए महाराष्ट्र कोंकण के किसान धान की कटाई करने के बाद खेतों में फसल के ठूँठ को चरने के लिए धनकर चरवाहों को बुलाते थे। पशुपालकों के पशु खेतों में बचे ठूँठ को खाकर खेत की सफाई कर देते थे और अपने गोबर से खेतों की उर्वरता को भी बढ़ा देते थे। बदले में ये चरवाहे कोंकण के किसानों से चावल ले लेते थे क्योंकि पठारों में चावल की सहज उपलब्धता नही होती थी।

इसी प्रकार राजस्थान के राइका और देवासी चरवाहे भेड़ और ऊँट पालते है। ऊंट के बारें में मान्यता है कि इसे सबसे बाद में पालतू जानवर बनाया गया। जबकि ऊंटगाड़ी का उल्लेख ऋग्वेद के आठवें मंडल में मिलता है। रेगिस्तान का जहाज कहा जाने वाले ऊंट राइका (जिसे गुजरात में रेवारी के नाम से जाना जाता है ) लोगों के लिए जीवनरेखा का काम करता हैं। जिसकी पीठ पर अपनी जरूरत का सारा समान लाटकर मीलों इस पर सवारी करते हैं हुए जीवन गुजार देतें हैं।

ऊंटों को राजस्थान लाने का श्रेय पाबूजी महाराज जाता है इसलिए इन्हें ऊंटों का देवता कहा जाता है। राइका समाज के लोकदेवता अपने ऊंटों की कुशलता के लिए पाबूंजी महाराज को पूजते हैं। यह उनके लोकदेवता हैं। रेवारी और राइका समुदाय को भूगोल और मौसम का अच्छा ज्ञान होता है। यह समुदाय मानसून के दौरान बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के गाँवों में ही रहते है क्योंकि इस समय वहाँ चारा उपलब्ध रहता है। अक्तूबर माह में पशुओं के चारे और पानी की तलाश में इन्हें भी बाहर निकलना पड़ता है।

 कुल मिलाकर कृषि और पशुपालक समाज एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपनी अपनी जीवन शैली के कारण एक दूसरे से अलग दिखते हुए भी अभिन्न समाज थे लेकिन विकास की आंधी ने एक दूसरे की अभिन्नता को एक दूसरे से अलगाव का कारण बना दिया। आज खेती बाड़ी की आधुनिक मशीनों और जैविक खाद की उपलब्धता ने पशुचारकों की उपयोगिता को समाप्त कर दिया है। पशुओं के लिए संकुचित होती चरागाह भूमि देखकर पता चलता है कि चरवाहों का जीवन मानव जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधनों और पशु आबादी के संतुलन पर निर्भर करता है। विकास की तेज गाति में मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अनावश्यक दोहन और बढ़ती आबादी के कारण खत्म होती चरागाह भूमि जैसे संकटों के कारण आज पशुपालकों और चरवाहे अपने जीविकापार्जन के लिए पारंपरिक कामों को छोड़कर दूसरे कार्य करने के लिए विवश हो रहें हैं

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विभा ठाकुर

लेखिका कालिंदी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +919868545886, vibha.india1@gmail.com
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