एतिहासिक

स्वाधीनता आन्दोलन की पूर्वपीठिका ‘संथाल हूल विद्रोह’ (1855-1856)

 

यूरोप में 18वीं शताब्दी में उपनिवेशवाद के रूप में औद्योगिक क्रान्ति व पूँजीवाद का सूत्रपात हुआ, उसके बाद इंग्लैंड, अमेरिका, अफ्रीका और एशिया आदि महाद्वीपों तक अपने पैर फैलाना प्रारम्भ कर दिया। उपनिवेशवाद से महाद्वीपों में निवास करने वाले गरीब, मजदूर और आदिवासी गहरे अर्थों में प्रभावित हुए। भारत के आदिवासियों के जीवन का मुख्य आधार कृषि है। अँग्रेजी हुकूमत के आगमन पश्चात् भारतीय आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश उपनिवेशियों का प्रभुत्व हो जाने से आदिवासियों के समक्ष भूमि के स्वामित्व की एक जटिल समस्या उभर कर सामने आती है। जमींदारों द्वारा हड़प ली गयी जमीनों पर भूमि स्वामित्व का सवाल, दमन और शोषण, पुलिस प्रशासन का अमानवीय व्यवहार, विकास के नाम पर उनके संसाधनों पर सरकार और ठेकेदारों की षड्यन्त्रकारी नीतियाँ आज भी आदिवासियों के समक्ष जीवन संघर्ष के रुप में मौजूद हैं। मार्क्स ने उपनिवेशवाद का घोर विरोध दर्ज किया है, उन्नीसवी शताब्दी के अन्त तक आते-आते विभिन्न विद्वानों ने पूँजीवाद के सन्दर्भ में अनेक मत दिये हैं। लक्समबर्ग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पूँजी का संग्रह’ में पूँजीवाद की मूल समस्या ‘बाज़ार में प्रभावी माँग की कमी’ को माना है। वहीं हिलफर्डिंग उपनिवेशवाद को ‘पूँजीवाद का चरम बिन्दु मानते हैं।

भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक शोषणकारी सत्तायें विद्यमान रहीं हैं। मसलन, पूँजीवाद एक सिद्धान्त के रुप में आने से पहले राजनैतिक और भौगोलिक स्वामित्व पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने के अर्थ में देखा गया है। डॉ. अमरनाथ के हवाले से कहूँ तो पूँजीवाद व्यक्ति को एकाकी बनाता है। पूँजीवादी युग में विकसित व्यक्तिवाद के अन्तर्गत सामंती रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की भावना मिलती है। पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में पैसे की प्रभुता समस्त मानवीय सम्बन्धों को तोड़ कर रख देती है। अर्थात ‘अर्थ’ और ‘सत्ता’ की लोलुपता इंसान को अमानवीय बना देती है जिसके परिणाम स्वरुप ‘संथाल हूल’ जैसे क्रान्तिकारी विद्रोह एक आन्दोलन के रुप में उभरकर सामने आते हैं।

भारत विभिन्न जनजातियों वाला एक बड़ा देश है जिसमें सबसे अधिक संख्या में आदिवासी निवास करते हैं। भारत के आदिवासियों में ‘संथाल’ आदिवासियों की सबसे बड़ी और प्रमुख जनजातियों में से एक है। ‘संथाल’ आदिवासियों ने अपने अधिकार और अस्तित्व के लिए मुस्तैदी के साथ हमेशा संघर्ष किया है जिन्हें हमने महज़ विद्रोह का नाम दिया है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन से पूर्व 1855-56 में ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ एक विद्रोह किया था जिसे ‘संथाल हूल व्रिद्रोह’ की संज्ञा दी गयी। उस दौरान भारत में ब्रिटिश प्रशासक लार्ड डलहौजी का शासन था। विभिन्न विद्वानों ने इस विद्रोह के सन्दर्भ में अनेक मत दिये हैं। संथाल हूल विद्रोह के सन्दर्भ में सी. आर. माँझी लिखते हैं कि “संताल-हूल के सेनानी 30 जून 1855 से सितम्बर 1856 तक लगातार दिन-रात, अविराम गति से अपनी विजय पताका लहराते हुए बुलन्द हौसले के साथ बढ़ते गये। वे भगनाडीह (संताल परगना) से मुर्शिदाबाद (बंगाल प्रान्त) के छोर तक पूरे जोश के साथ ‘हूल बायार जितकार’ के नारे बुलन्द करते हुए ‘दामिन-ए-कोह’ के पूरे क्षेत्र में छा गये।” [1]

30 जून 1856 में परतन्त्र भारत में ब्रिटिश हुकूमत और स्थानीय जमींदारों-महाजनों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और शोषणकारी नीतियों के खिलाफ झारखण्ड के संथाल आदिवासियों द्वारा किया गया सबसे बड़ा विद्रोह था। इस विद्रोह के दौरान भगनाडीह में लगभग 10 हज़ार की तादाद में संथाल आदिवासियों के साथ-साथ गैर-आदिवासी, गरीब, पिछड़े हुए लोग भी एकत्रित हुए। सिदो-कान्हू को अपना नेतृत्वकर्ता के रूप में स्वीकार किया गया तथा उन्होंने एक घोषणा की। उस घोषणा के सन्दर्भ में आदिवासी चिन्तक-लेखक हरिराम मीणा लिखते हैं कि “अब हमारे ऊपर कोई सरकार नहीं है, थानेदार नहीं है, हाकिम नहीं है। संथाल राज्य स्थापित हो गया है। अब हम भैंसों के हल के पीछे चार आना तथा बैलों के हल के पीछे दो आना मालगुज़ारी अपने मुखिया को देंगे। क़र्ज़ का ब्याज भी रुपये में सिर्फ एक पैसा सालाना देना पड़ेगा।” [2]

बाद में लगभग 30 हजार आदिवासी और गैर-आदिवासियों ने अँग्रेजी सैनिकों का मुँहतोड़ जबाव दिया। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आदिवासियों ने विदेशी हुकूमतों के खिलाफ बगावत करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन इतिहासकारों की नज़र उन तक कभी पहुँची ही नहीं शायद इसलिए कि आदिवासी समुदाय के लोग समाज की मुख्यधारा से पृथक अपना स्वतन्त्र जीवन यापन करते थे। रेवरेन्ड डब्ल्यू. जे. कुलाशा ने ‘सरकार की मौन स्वीकृति से वृहद स्तर पर भूमि हस्तांतरण किया जाना’ संथाल विद्रोह का मूल कारण माना है। वहीं नदीम हसनैन अपनी पुस्तक ‘जनजातीय भारत’ में संथाल विद्रोह के सन्दर्भ लिखते हैं कि “एक दिन हजारों संथालों ने एकत्र होकर अपने आपको शोषण के बोझ से मुक्ति दिलाने की शपथ ली। और बाहरी तत्वों विशेषतया सरकारी कर्मचारियों, जमींदारों, साहूकारों तथा अँग्रेजों को तुरन्त उनके क्षेत्रों से चले जाने तथा अपनी जान बचाने की चेतावनी दी गयी।” [3]

वास्तविक रुप में अँग्रेजी हुकूमत द्वारा लगातार बढ़ती हुई लगान बसूली आदिवासियों में असंतोष का प्रमुख सबब था। जिसके सन्दर्भ में वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “ब्रिटिश प्रशासन की दिलचस्पी संथालों से सिर्फ लगान वसूलने की थी। हालाँकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी, लेकिन भारत में उसकी आय का मुख्य स्त्रोत लगान था जिसकी दर वह मनमाने ढंग से लगातार बढ़ाती रहती थी। 1838 से 1854 ई. तक के बीच संथालों से वसूले जानेवाले लगान की दर को कम्पनी ने 21 गुना बढ़ाया जिसे दे पाने में गरीब संथाल असमर्थ थे। इतना लगान वसूलने के बाद भी कम्पनी का प्रशासन, पुलिस और कानून सूदखोर, महाजनों और जमींदारों को संथालों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता था। वास्तव में कम्पनी सारे शोषण-तन्त्र का नेतृत्व करती थी।” [4]

ब्रिटिश कम्पनी के संरक्षण में पल रहे स्थानीय जमींदार आदिवासियों की जमीन हड़प लेते थे और उन्हीं की जमीन पर बंधुआ मजदूर के रुप में काम करवाते। जमीन से जो अनाज निकलता उसका सारा पैसा जमींदार की जेब में जाता। स्थानीय जमींदारों के इस शोषणकारी षडयन्त्र से आदिवासियों में व्याप्त असंतोष से अँग्रेजी हुकूमत बेखबर थी। अर्थात उस समय भारतीय जनता का दोहरा शोषण हो रहा था। एक तो अँग्रेजों द्वारा कर वसूली, दूसरा स्थानीय जमींदार और साहूकारों द्वारा ब्रिटिश कम्पनी की आड़ में गरीब किसानों से जमीन हड़पने की छद्मकारी नीति। ई. जी. मान संथाल हूल विद्रोह को एक बड़ा विद्रोह के रुप में मानते हैं तथा विद्रोह की उत्पति के ऐतिसाहिक कारणों के सन्दर्भ में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘संथालिया एंड द संथाल्स’ में लिखते हैं कि “1855 के ‘हूल’ की वजहें वर्षों पहले 1832 में ही तैयार होने लगी थी। 1832 के समय से ही कोर्ट-कचहरियों ने महाजनों के पक्ष में फैसले देने शुरू कर दिये थे। उन्हीं दिनों से महाजन संथालों पर अत्याचार करने लग गये थे। वे उनसे मामूली कर्ज पर 40% से 75% तक चक्रवर्ती ब्याज वसूलते थे। बँधुआ मजदूरी अपने चरम पर थी। संथालों को बांड भरवाकर बँधुआ बनाया जाता था और उसकी तीन-तीन पीढ़ियों को बँधुआ रहना पड़ता था। पुलिस भ्रष्ट थी और शोषकों की गोद में बैठी थी। जमींदार-महाजनों के साथ उसकी सांठगांठ के त्रिकोण ने संथालों पर भयानक अत्याचार किये।” [5]

वहीं केदार प्रसाद मीणा सी. ई. बकलैंड की रिपोर्ट ‘बंगाल : अंडर द लेफ्टिनेंट गवर्नर्स’ का हवाला देते हुए लिखते हैं कि “बकलैंड संथालों को क्रूर व बर्बर लिखते हैं। उनके अनुसार विद्रोह के दौरान संथालों ने गाँवों के महाजनों को लूटा। महाजनों के गाँवों को पूरी तरह तहस-नहस कर जला दिया गया। तीन अँग्रेज पुरुषों और दो अँग्रेज महिलाओं को मार डाला गया। विद्रोह अमानवीय और अत्याचारपूर्ण कार्यवाहियों, क्रूर हत्याओं, गाँवों को जलाये जाने और रेलवे संपत्ति के विनाश का गवाह बना।” [6]

मानाकि संथालियों द्वारा विद्रोह में अँग्रेजों के लोग भी मारे गये होंगे लेकिन यह एक स्वाभाविक घटना है क्योंकि जब दो गुटों में युद्ध या विद्रोह होता है तो लोगों या सैनिकों के मरने का हिसाब नहीं रहता। जबकि ऐसा हुआ होगा ये जरुरी नहीं क्योंकि संथाल आदिवासियों द्वारा जहरीले तीर चलाने से मना करना उनके मानवीय होने की पुष्टि करते हैं। अब बात आती है कि आख़िरकार विद्रोह की स्थिति उत्पन्न क्यों हुई? यदि अँग्रेजी हुकूमत संथाल आदिवासियों पर अत्याचार और उनका शोषण नहीं करते तो फिर विद्रोह की नौबत ही नहीं आती।

संथाल हूल विद्रोह के प्रमुख नेतृत्वकर्ता सिदो और कान्हू ने आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है जिसे इतिहास कभी झुटला नहीं सकता है। उनकी शहादत के सम्बन्ध में अनेक मत सामने आये हैं। अयोध्या सिंह का मानना है कि ब्रिटिश सैनिकों द्वारा फरवरी 1856 में सिदो को गोली से मार दिया गया था और फरवरी 1856 के तीसरे सप्ताह कान्हू को पुलिस ने पकड़ लिया था तभी गोली मार दी थी। अयोध्या सिंह के इस तथ्य का खण्डन करते हुए केदार प्रसाद मीणा अपनी पुस्तक ‘आदिवासी विद्रोह’ में लिखते हैं कि “न्यायिक प्रक्रिया के बाद इन्हें क्रमशः 5 दिसम्बर 1855 ई. व 23 फरवरी 1856 ई. को फाँसी की सजा दी गयी।” [7]

विद्रोह को शान्त करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा आधुनिक हथियारों से लैस लगभग 15 हज़ार सैनिक भेजे और इस भीषण क्रान्ति में सिदो-कान्हू सहित लगभग 10 हज़ार संथाल आदिवासी शहीद हो गये। यह विद्रोह महज़ आदिवासियों के हक़ का नहीं था बल्कि 1857 में हुए ‘स्वतन्त्रता संग्राम’ की पूर्वपीठिका के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आदिवासियों के इस अँग्रेजों से मुक्ति के आन्दोलन को महज़ एक विद्रोह के रूप में देखा गया। स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में इसका कहीं कोई ज़िक्र भी नहीं किया गया। जबकि ऐसा नहीं है संथाल विद्रोह जैसे-‘पलामू विद्रोह’, ‘हो विद्रोह’, ‘कोल विद्रोह’, ‘सिंहभूम विद्रोह’ आदि आदिवासी विद्रोह हुए हैं जो अँग्रेजी हुकूमत द्वारा भारतीयों के शोषण और अत्याचारों के बरक्स जंग छेड़ते हैं। साथ ही अँग्रेजी हुकूमत की जड़ों को हिलाने और उन्हें उखाड़ फेंकने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।

संथाल हूल विद्रोह में शहीद हुए जननायकों की वीरतापूर्वक यश गाथायें आज भी संथालों में ही नहीं बल्कि भारत के समस्त आदिवासियों में एक नई ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार करती हुई प्रतीत होती हैं। विद्रोह में सिदो-कान्हू समेत आदिवासियों के बलिदान पर दुखी संथालों को अपने अधिकारों के लिए प्रेरित करता हुआ ‘हूल गीत’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

सुबह उठकर खटिया में बैठकर

क्यों छोटे बाबू रो रहे हो ?

रोऊँगा नहीं तो क्या करूँगा,

चिल्लाऊँगा नहीं तो क्या करूँगा,

सिदो-कान्हू भी मारे गये,

संथाल खून नदी में बह गया, फिर भी

संथाल भाई आप लोग कितना दिन

सोये रहिएगा,जागिए

जाति-समाज, आचार-व्यवहार

जन्मस्थान क्यों भूल रहे हैं।

क्यों आप लोग छोड़ रहे हैं ?

संथाल देश सोना, मिट्टी,

खून से पटाये थे।” [8]

.

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

[1]  आदिवासी : शौर्य एवं विद्रोह, संपा.- रमणिका गुप्ता, सुरभि प्रकाशन, दिल्ली 2015, पृष्ठ-89

[2] आदिवासी दुनिया, हरिराम मीणा, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, 2013 पृष्ठ-61

[3] जनजातीय भारत, नदीम हसनैन, जवाहर पब्लिशर्स ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2016, पृष्ठ-254

[4] क्रन्तिकारी आदिवासी-आजादी के लिए आदिवासियों का संघर्ष – केदारप्रसाद मीणा, साहित्य उपक्रम, 2012, दिल्ली, पृष्ठ-27

[5] आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परम्परा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएँ, केदार प्रसाद मीणा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली 2015, पृष्ठ-397

[6] पूर्ववत, पृष्ठ-399

[7] पूर्ववत, पृष्ठ-403

[8] क्रन्तिकारी आदिवासी-आजादी के लिए आदिवासियों का संघर्ष-केदारप्रसाद मीणा, साहित्य उपक्रम, 2012, दिल्ली, पृष्ठ-27

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दिनेश अहिरवार

लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में शोधार्थी (हिन्दी विभाग) हैं। सम्पर्क: dineshsagarbhu19@gmail.com
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