सीमाओं को लांघने का संदेश देती ‘हेल्लारो’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
स्टार कास्ट – श्रद्धा डांगर, जयेश मोरे, ईशा कंसारा, आरजव त्रिवेदी, डेनिशा घूमरा, मौलिक नायक, आकाश जाला, तर्जनी भड़ला, तेजल पंचासरा, बृंदा त्रिवेदी नायक ,अभिषेक शाह आदि
निर्देशक – अभिषेक शाह
अपनी रेटिंग – 4 स्टार
सास कहानी सुनाती है जो कुछ समय पहले गाँव में घटी थी। मूली नाम की लड़की थी। जो एम्ब्रॉयडरी (कढ़ाई) का काम करती थी। एक दिन शहर से एक कान्हा नाम का लड़का आया, कान्हा से पहले भग्लो (डाकिया) आता था। कान्हा मूली के पास से एम्ब्रॉयडरी किया हुआ काम शहर ले जाकर बेच दिया। धीरे-धीरे यह क्रम बन गया। इस तरह वह लड़की एक तरह से बाजार को घर में ले आई। कान्हा चोरी छुपे उसके काम को बाजार में बेचता रहा।
एक दिन चोरी पकड़ी गयी और मूली गाँव में बात फैलने से पहले भाग तो गयी लेकिन गाँव की महिलाओं के हाथों होने वाले इस काम पर रोक लगा दी गयी। आदमियों ने गाँव में तूफान खड़ा कर दिया। कपड़े जला दिए, एम्ब्रॉयडरी में काम आने वाली सुईयां जला दीं। लंबे समय तक उन्हें ढूंढ़ा गया पर वे नहीं मिले। देवी माँ नाराज हो गयी और सूखा पड़ गया। एक संत ने कहा जब तक वे नहीं मिलते देवी माँ बरसात नहीं करेगी। एक दिन समाचार आया कि वे लोग अंजार में है। मैंने खुद तलवार से खून साफ किया था।
गुजरात में 1975 का भारत और गुजरात का एक गाँव कच्छ। जिसमें कभी रेडियो बजाओ तो पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का चैनल पकड़ने लगता है। उस पिछड़े इलाके में जब ये कहानी एक सास अपनी नयी नवेली बहु को सुनाती है तो लगता है कितने पिछड़े हुए देश में रहे हैं हम। जहाँ पितृसत्तात्मक समाज आज भी उसी तरह कहीं न कहीं हावी है। खैर मंजरी जिसकी नयी-नयी शादी हुई है उसका पति फ़ौज में है और शादी के बाद कुछ दिन ठहर कर वापस ड्यूटी चला जाता है। इधर मंजरी जब अपनी साथी महिलाओं के साथ मीलों का सफर पैदल तय करके पानी भरने जाती है तो एक दिन उन्हें बेहोश पड़ा आदमी मिलता है। पहले तो सब महिलाएं उससे बचती हैं लेकिन एक विधवा के कहने पर तरस खाकर उसे पानी पिला दिया जाता है।
अब वह ढोली उन्हें ढोल की थाप सुनाता है और थाप से मंत्रमुग्ध हो महिलाएं अपने भरे घड़े के पानी को फैला बेसुध हो गरबा करने लगती है। यह क्रम यूँ ही चलता है। ढोली भी अपनी दास्तान सुनाता है। महिलाएं उसे अपने गाँव में शरण लेने का कहती है। वह शरण लेता भी है उसे मदद मिलती है लेकिन नवरात्र के आखरी दिन जब मंजरी का पति आता है तो उस ढोली को मारने का फैसला किया जाता है क्योंकि उसने अपने ढोल की थाप पर गाँव की महिलाओं को नचाया। अब उस ढोली की आखरी इच्छा पूछी जाती है मरने से पहले तो वह कहता है एक आखरी बार ढोल बजाना है और तब तक बजाना है जब तक वह फट न जाए ढोल के फटने के साथ ही मुझे जिंदा जला दिया जाए। है न दर्दनाक!
ढोली ने ऐसी इच्छा जाहिर क्यों कि? जानना है तो 66 वें राष्ट्रीय पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार हासिल कर चुकी इस फ़िल्म को देखिए। क्या ढोली का ढोल फटा और वर्जनाओं के संसार को, रूढ़ियों को तिलांजली दी गयी। क्या वे समस्त रूढ़ियाँ, सामाजिक बंधन जिनमें औरत आज भी बंधी हुई है उससे वह ढोली उन्हें आजाद करवा पाया। क्या देवी फिर से प्रसन्न हुई और तीन साल से अकाल झेल रहे गुजरात के कच्छ में राहत की बूंदें बरसी। ये सब सवाल आपको इस बेहतरीन फ़िल्म में मिलेंगे। इस फ़िल्म ने खूब इनाम अपने नाम किए और अभी पिछले हफ्ते यह एमएक्स प्लयेर पर आई है।
इस फ़िल्म को देखने के बाद मैं कहना चाहता हूँ कि हिन्दी सिनेमा बनाने वालों को जरूर यह फ़िल्म देखनी चाहिए और इसे देखकर सबक लेना चाहिए। कहानी के नाम पर दमदार, निर्देशन के नाम पर दमदार, अभिनय के नाम पर दमदार। हर क्षेत्र में उम्दा हालांकि एडिटिंग के मामले में लगता है थोड़ी कैंची और चलाई जाती तो फ़िल्म का स्वाद बढ़ जाता। इसकी लंबाई थोड़ा बहुत बैचेन करती है। किसी एक के अभिनय के बारे में कहना फ़िल्म के साथ अन्याय होगा फिर भी ढोली और मंजरी का किरदार खूब जमा। फ़िल्म खत्म होने के साथ ही आंखों में आंसू लिए तालियां बजाने को मजबूर हो गया।
आपातकाल का पूरा गुजरात तो यह फ़िल्म नहीं दिखाती लेकिन एक गाँव की कहानी को जरूर शिद्दत से जीती है। फ़िल्म की ये औरतें गुलामी में रहने की बजाय आजाद होकर मरने का विकल्प चुनती हैं। ये फिल्म समाज में मर्दों के बनाए नियमों के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई को दिखाती है। इसे हर मर्द समाज को देखना चाहिए। फ़िल्म के संवाद उम्दा है। गीत-संगीत आपको नाचने पर मजबूर करता है।
एक औरत कहती है, ‘गरबा ना बदला माँ तो आखुं राजपाट आपी दऊं, पण मारी पासे छे नहीं!’ (गरबा के बदले में तो सारा राजपाट दे दूँ, पर मेरे पास है ही नहीं’) इसी तरह ‘ढोज्या में ढोज्या ते दीधेला घूँट, हवे माँझी झाँझरी ने बोलवानी छूट…’(छलका दिये मैंने तुम्हारे दिये (ज़हर के) घूँट, अब है मेरे नूपुरों को बोलने की छूट) नाचते हुए पकड़े जाने पर औरतों का कहना कि ‘गरबा करते हुए कुछ पलों के लिए हम जिंदा महसूस करती हैं, मारे जाने के खौफ से अब हम जीना नहीं छोड़ सकतीं।’ या फिर वो डायलॉग जिसमें एक औरत कहती है, ‘खेल भी मर्दों का है और नियम भी। अब हमें इस खेल का हिस्सा बनने की कोई जरूरत नहीं।’
फ़िल्म देखते हुए आप कच्छ के उस गाँव तक में पहुंच जाते हैं। मतलब पहनावा और गाँव का सेट एकदम असल लगता है। एक ही फ्रेम में देवी को पूजते गाँव के मर्द और उन मर्दों को गरबा करते हुए खिड़की से देखती गाँव की एक महिला। पूरी फिल्म का बेस यहीं से सेट हो जाता है। इसके अलावा जब फौजी अपने दोस्तों से कहता है – ‘मैं तो बन्दूक की छह की छह गोलियां एक ही बार में दाग देना चाहता था, पर दुश्मन दो में ही ढेर हो गया।’ तो यह सुनना, देखना दर्शाता है कि पुरुषों की सोच आज भी सिर्फ बिस्तर तक सीमित रह गयी है। उन्हें बस बिस्तर पर अपनी ताकत दिखाने का अवसर मिलना चाहिए। ‘मैंने तुमसे कहा था अपने पंखों और सींगों को काट लो खुद से अब मैं इन्हें काटूंगा तो यह तुम्हें ज्यादा दर्द देंगे।’ फ़िल्म का यह भाव और संवाद फ़िल्म के आखिर में जाकर आखिरकार टूट ही जाता है और इसे तोड़ती भी है एक औरत ही।
‘हेल्लारो’ का अर्थ है पुकारना, आवाज देना। तो यह फ़िल्म सही मायनों में हर दर्शक वर्ग को चीख-चीख कर पुकार लगा रही है। इस फ़िल्म का निर्देशन अभिषेक शाह ने किया है। उनके साथ प्रतीक गुप्ता और सौम्या जोशी ने इस फिल्म को लिखा भी है। अभिषेक ने इससे पहले बतौर थियेटर आर्टिस्ट के तौर पर भी काम किया है। बतौर एक्टर उनकी पहली फिल्म गुजराती में साल 2004 में ‘बे यार’ आई थी और सुपरहिट रही। इसके अलावा उन्होंने ‘छेल्लो दिवस’ और ‘रॉन्ग साइड राजू’ जैसी फिल्मों में भी काम किया है। इस फ़िल्म को एमएक्स प्लयेर पर देखा जा सकता है वो भी निःशुल्क।
फिल्म का ट्रेलर – https://youtu.be/qb8uOylK3R4
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