सदियों से स्त्री के दो रूपों का चित्रण साहित्य में हम देखते आ रहे हैं, पहला पोषण करती हुई स्त्री और दूसरा पोषण के एवज में दुख पाने को विवश स्त्री। इसीलिए तो मैथिलीशरण ने कहा -‘अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ कुल मिलाकर देखा जाए तो साहित्य में भोजन और भूख के संदर्भ प्रेमचंद (कफन) से लेकर अमरकांत (दोपहर का भोजन) की रचनाएं पहली नज़र में हाशिये के संघर्ष और विपन्नता का मार्मिक वर्णन प्रस्तुत करतीं हैं लेकिन जब भोजन के अधिकार को केन्द्र में रखकर इन कहानियों का पाठ स्त्री संदर्भों के साथ करते हैं तो पाते हैं कि स्त्री होने का अर्थ ही है उत्सर्ग की देवी होना जिसकी महिमावर्णन की परम्परा सदियों से चली आ रही है।
इसलिए सीमोन वउवा ने कहा -” स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है ‘हमें शुरू से यही पढ़ाया जाता है – राम स्कूल जा/राधा झाडू लगा/राम मिठाई खा / राधा बिस्तर लगा।’ यानि अवैतनिक रूप से पारिवारिक दायित्वों की जिम्मेदारी या कहें धरेलू कामकाज स्त्री के हिस्से में और धन अर्जन का महत्त्वपूर्ण काम करने के एवज में पौष्टिक भोजन पाने का अधिकार पुरूष के हिस्से में डालकर की जाने वाली लैंगिक राजनीति हमारे समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करती है। भोजन बनाने वाली स्त्री स्वयं बनाकर पहले खाने का अपराध नहीं करती। स्त्रियाँ भूखी रहती हैं, अपने से पहले परिवार के पुरूषों और बच्चों को खिलाकर ही स्वयं खाने की अधिकारी मानी जाती हैं।
याद कीजिए अमरकांत की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ में जहाँ भूख और भोजन के बीच संघर्ष करती स्त्री की जगह परिवार के लिए उत्सर्ग होती हुई स्त्री का चित्र पाठकों की नज़र में महान बनाता है। समाज हो या साहित्य दोनों ही जगह त्याग की प्रतिमूर्ति बना दी गयी स्त्रियों को अन्नपूर्णा का टेग देकर उसकी इस छवि का महिमामंडन करके उसको मन मारने और अपना सर्वस्व अर्पण करके कुर्बान होने की शिक्षा देने वाले दृश्य साहित्य में सर्वत्र देखे जा सकते है। तथाकथित आधुनिक समाज में अपने लिए जीने वाली स्त्रियों के चित्र आज भी स्वाकार्य नही होंगे।
हम कितने भी आधुनिक क्यूं न हो जाएं बहु के रूप मे चाय लाती हुई लड़की ही सुधड़ गृहणी के रूप में मान्य होगी। बड़े से बड़े पदवी पर जाने के बाद भी पाककला में पारंगत होना सुधड़ स्त्री होने की पहली शर्त है। इस एक गुण के लिए उसकी सारी प्रतिभा बिसरा दी जाती है। यही कारण है कि अपनी अन्नपूर्णा वाली छवि को बनाए रखने के लिए अनगिनत स्त्रियों ने अपनी सारी इच्छाओं और प्रतिभाओं को चुल्हें में झोक कर खाक कर दिया। देवीप्रसाद ने अपनी कविता इस स्थिति ब्यान इन शब्दों में किया है -औरतें यहाँ नहीं दिखती, वे आटे में पिस गयी होंगी या चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी, वे तेल की तरह खोल रही होंगी।
पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों का स्थान यदि कहीं है तो वह है सिर्फ रसोईघर। बैठक में बतियाते पुरूष और रसोईघर में खटती हुई स्त्रियाँ अच्छी लगती हैं। दृश्य उल्ट जाएं तो धोर कलयुग कहा जाएगा। इस मिथ को कुछ हद तोड़ने की कोशिशें हो रही है लेकिन अभी भी बहुत से पूर्वाग्रहों को बदलने की जरूरत है। आज भी दूर देहातों में मीलों चलकर पानी लाती औरतों के दृश्य हमें व्यथित नही करते क्योंकि यह काम तो औरतों के ही जिम्मे हैं। बिडम्बना देखिए मनुष्य ही नही मनुष्येत्तर प्राणियों में भी नर नही मादा ही पोषण की जिम्मेदारी का निर्वहन करती है – कुमार अंबुज की कविता – खाना बनाती स्त्रियाँ
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया/फिर हिरणी होकर/फिर फूलों की डाली होकर/ बुलबुल, हो या हिरण या फूल प्रकृति ने मादा को ही इस भूमिका के लिए चुना जिसे उसने सहर्ष स्वीकार भी किया लेकिन उसकी इस भूमिका के लिए कृतज्ञता के स्थान पर उसे शोषण के चक्र में पिसने का षड्यन्त्र किसने बुना गया? इसी कविता की अगली पक्तियाँ है –
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया/ बीस आदमियों का खाना बनवाया/ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण पेश करते हुए खाना बनवाया/ कई बार आँखें दिखाकर/ कई बार लात लगाकर/ और फिर स्त्रियोचित ठहराकर आप चीखे – उफ इतना नमक/ और भूल गये उन आँसुओं को/ जो जमीन पर गिरने से पहले/ गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में।
जाने अंजाने परिवार के लोग भूल जाते हैं कि स्त्रियों द्वारा भोजन बनाने में जितना समय और श्रम निकलता है उतना कमियाँ निकालने में नहीं। पुरूष मानसिकता के ऐसे अनेकों उदाहरण साहित्य में खोजे जा सकते हैं। जिसमें स्त्री के इस श्रम का कोई मोल नही। प्रेमचंद की कहानी कफन का वो दृश्य जहाँ प्रेमचंद लिखते है – घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्व्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से खाएं। “ये दृश्य भारतीय समाज का कड़वा सच है। भारतीय समाज में रात दिन परिवार का पोषण करती हुई स्त्रियाँ अपनी जरूरतों का ध्यान भी रखना जरूरी नहीं समझती। दूसरों की भूख मिटाते हुए उसकी भूख मिट जाती है। मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’ (प्रेमचंद -कफन)
एक और कहानी का संदर्भ देखिए भीष्म साहनी की कहानी पिकनिक जिसमें घरों में काम करने वाली घरेलू सहायिकाओं (कामवाली) की व्यथा के साथ भोजन और भूख के संघर्ष का हृदय विदारक चित्र प्रस्तुत किया है। मालकिन कहती है -अब और बच्चे नहीं लेना गौरी, यही बहुत हैं। इस पर गौरी हंस दी। “मैं कहाँ चाहती हूँ बीबी। पर मेरा घरवाला माने तो। ये लोग सुनते थोड़े ही हैं! अब तुम्हें कुछ पैसे-वैसे भी देता है या पहले की तरह तुम्हीं से ऐंठता रहता है?”
”एक कौड़ी नहीं देता बीबी, सारा खर्च मैं चलाती हूँ। इसे तो खुद खाने की लत है। सारा वक्त पीछे पड़ा रहता है। आज पकौड़ियाँ खिला, आज दाल छौंककर खिला। परसों मैं ऊपरवाली बीबी से पांच रुपये पेशगी माँगकर ले गयी, वह भी मुझसे छीनकर ले गया। ऐसा हरामी है बीबीजी, अपने लिए चने ले आएगा। मेरे सामने मुंह चलाता रहेगा, मुझसे पूछेगा भी नहीं।”
राशन के पैसे दे दूं तो बच्चों को क्या खिलाऊंगी, बाबूजी? इसे तो चाट लगी है ढाबे पर खाना खाने की। कहता है, घर में घुसने नहीं दूंगा। घर है कहाँ जिसमें घुसने नहीं देगा? एक सड़ी हुई कोठरी है, सर्दी-गर्मी बच्चों को लेकर बाहर सोती हूँ।
भारत के निम्न वर्गीय परिवारों में ये सामान्य दृश्य हैं। औरत बच्चों के लिए भोजन जुटाने के लिए दिन रात पसीना बहाती है और मर्द पीने और खाने से बाज नहीं आता। यहाँ हम भाषा की राजनीति को भी देखे जैसे पुरुष के संदर्भ में काम धंधा सम्मान का सूचक है जबकि स्त्री के संदर्भ में धंधा (स्त्री धंधा करती है) एक अलग अर्थ ध्वनि में लिया जाता है। भाषा पर लैंगिक प्रभाव के साथ भारतीय समाज में लैंगिक राजनीति के तहत भोजन और भूख के साथ पक्षपाती नजरिया भी साफ साफ देखा जा सकता है। बचपन से स्त्री को समझाया गया कि पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है। लेकिन पुरूषों के लिए पत्नी को काबू में रखना ही को मर्दानगी है ऐसा न करने वाला जोरू का गुलाम। पति के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाली पतिव्रताओं को पति को सातों जन्म तक पाने के लिए तरह तरह के व्रत उपवासों की परम्परा के पीछे की लैंगिक राजनीति को यशपाल की कहानी ‘कड़वा का व्रत’ में बड़े ही व्यंग्यात्मक ढंग से चित्रित किया है।
“लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ‘ हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।”
अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ‘आओ, खाना परस दिया है।’ ‘कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- और तुम?’ उसने लाजो की ओर देखा।
‘वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।’ लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।
‘यह बात…! तो हमारा भी व्रत रहा।’ आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा। लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ‘क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!…तुमने सरघी कहाँ खाई?’
‘नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है। ‘कन्हैया नहीं माना’, तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!’
लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गयी। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।”
व्रत की अवधारणा के पीछे की राजनीति को समझा जा सकता है। पत्नी को वस्तु की जगह मनुष्य के रूप में पुरूष तभी स्वीकार करेगा जब स्त्रियाँ स्वयं को मनुष्य मानेगी। अपनी इच्छाओ का भी सम्मान करेंगी।
स्वाद के बाजारीकरण ने रेडी टू ईट वाले उत्पादों की क्रांति ने पारम्परिक रसोईधर की अवधारणा को बदल दिया। नयी पीढी अब परांठे नही कॉर्नफ्लेक्स या ओटस जैसे चीजें पसन्द करने लगी है। वहाँ भी माँ के हाथों के स्वाद को खूब भुनाया जा रहा है। शहरी औरतों को किचन में खाना बनाने के काम से राहत मिली। मम्मी भूख लगी है सुनकर बस दो मिनट कहकर माएं खुशी खुशी दौड पड़ती है किचन में। मुनाफा बजार कमा रहा है लेकिन फास्ड फूड खाकर जब परिवार की सेहत गिरने लगी तो यहाँ अपराधबोध स्त्रियों के हिस्से ढेल दिया गया। विज्ञापनों में (खानपान के विश्वव्यापी व्यापार के लिए जिसकी अपनी अलग राजनीति है) उत्पादों की बिक्री के लिए गलैमरस दिखने वाली स्त्रियाँ सबको लुभाती हैं।
किचन में झटपट खाना बनाकर टेबल सजा देती है। रेडीमेड मसालों में माँ के हाथों का स्वाद रहता है। पारम्परिक भोजन हो या फास्डफूड सबके विज्ञापनों में स्त्रियाँ मुख्य भूमिका में दिखाई देती है। स्त्रियों के सहारे मुनाफे वाले विज्ञापनों ने भी पारम्परिक पूर्वाग्रहों को बढ़ाने का काम किया है। ऐसा नहीं है कि खाना सिर्फ स्त्रियाँ ही बनाती हैं पुरूष भी बनातें हैं और इसके बदले वेतन पाते हैं। हलवाई से लेकर बड़े स्टार वाले होटलों में लेकिन स्त्री का यह कार्य (अवैतनिक) नैतिक दायित्व के नजरिए से देखा जाता है।
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जबकि धन अर्जन के लिए भोजन बनाने वाले पुरूष किसी को नही अखरते लेकिन स्त्री धरेलू काम छोड़कर बाहर के लिए यह काम करे तो सबकी आंखों मे खटकने लगतें है हमारे समाज में परिवार के लिए भोजन बनाने का काम स्त्री के अनिवार्य दायित्व के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। और स्त्रियाँ भी परम्परा से धरेलू कामों को सीखते हुए जीवन की छोटी-छोटी क्रियाओं में अपने को इतना व्यस्त रखती हैं खाना पकाना, दाल चावल बना, झाड़ना बुहाना जैसे नगण्य समझे जाने अनगिनत कामों में अपने जीवन जीने का अर्थ तलाश लेती हैं और सबका ख्याल रखते हुए अपना ख्याल रखना भूल जाती है। सुनने में यह अच्छा लगता है कि रसोईघर में एकछत्र राज स्त्रियों का होता है।
लेकिन अपने इस साम्राज्य को व्यवस्थित ढंग से चलने के लिए उसे कई अनकहे समझौते करने पड़ते है जिसपर हमारा ध्यान कम ही जाता है। उसके इस अथक कर्म को कितना सम्मान मिलता है? यह एक बड़ा प्रश्न है। इसके उत्तर में तमाम वे मुहावरे जो रसोईघर से निकाल समाज के बीच पहुंचते है – (पापड़ बेलना, चक्की पीसना, भाड़ झोकना, मिर्ची लगना) स्त्री के अथक श्रम और संघर्षपूर्ण अतीत के गवाह हैं। अनुपम सिंह ने अपनी कविता में स्त्री जीवन के इस यथार्थ को इस प्रकार ब्यान किया है –
सच! हमने सीख लिया है/ ख़ूब अच्छी तरह गोल रोटियाँ बनाना/ रोटियों के साथ ही सीझ गयी बचपन कि इच्छाएँ/ परोस दिया गर्म रोटियों के साथ/ थालियों में।
खेतों में अन्न ऊपजाने से लेकर खाद्य व्यंजनों को बनाकर परिवार का पोषण करने में ही स्त्री जीवन की सार्थकता देखने वाला भारतीय समाज उसे अन्नपूर्णा और गृहलक्ष्मी की उपाधियों से विभूषित करता है लेकिन उसके स्वास्थ्य और पोषण के प्रति उदासीन रहता है। मृणाल पांडे के शब्दों में – सिर्फ देश की तीन चौथाई औरतों के लिए ही नहीं दुनिया के हर दबाए कमजोर वर्ग के लिए उसकी हीनता और उसके कमजोरी की सबसे बड़ी वजह और उसका सबसे बड़ा प्रमाण है भूख से अशक्त निढाल होती उसकी काया। कमजोर को अंततः पीठ नहीं पेट ही गिराता है। ‘खतपतवार सी होती हैं बेटियाँ’, की मानसिकता वाले समाज में आज भी कन्या भ्रूण हत्या के साथ स्त्री के पोषण को लेकर घोर उपेक्षा बरती जाती है।