सब्र का इम्तिहान लेती है ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’
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कलाकार: ऋचा चड्ढा, सौरभ शुक्ला, अक्षय ओबेरॉय, मानव कौल व शुभ्रज्योति आदि।
लेखक, निर्देशक: सुभाष कपूर
निर्माता: भूषण कुमार, नरेन कुमार, डिंपल खरबंदा व विनोद भानुशाली आदि।
रेटिंग: 1.5 स्टार
फ़िल्म शुरू होती है चुनावों की कैंपेन से और खत्म भी इसी पर हो जाती है। फ़िल्म का नतीजा ही निकल कर कुछ सामने नहीं आता। फ़िल्म अभी तक न देखी हो तो अच्छा है फ़िर न कहना हमने बताया नहीं। फ़िल्म की कहानी की पृष्ठभूमि मायावती से जुड़ती हुई सी प्रतीत होती है। किंतु जिस तरह का ओहदा सुश्री मायावती को राजनीति और सत्ता में हासिल है उसे यह फ़िल्म छू भी नहीं पाती। इसलिए इसे जो लोग मायावती के जीवन पर आधारित बता रहे थे वे अपने आप को और अपने ज्ञान को दुरस्त कर लें।
फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ की कहानी उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के शीर्ष पर पहुंचने के किस्सों को बयां करने की नाकाम कोशिश करती हुई नजर आती है। फ़िल्म की शुरुआत में तारा यानी ऋचा चड्ढा को एक लाइब्रेरियन दिखाया गया है और उसी के कॉलेज में पढ़ने वाले एक लड़के से उसे इश्क लड़ाते हुए भी दिखाया है। वह लड़का चुनाव लड़ता है कॉलेज के और कुछ समय बाद जब वही लाइब्रेरियन एमएलए बनती है तो उसी के नीचे मंत्री बनने का ख्वाहिशमंद है। खैर वो तो ख्वाहिश पूरी न हो पाई उसकी। बल्कि मैडम चीफ मिनिस्टर उसे गंजा करके अपने यहाँ से भेजती है। फिर शुरू होता है मौत का सिलसिला। और जैसे ही निर्देशक को लगता है कि कहानी भटक रही है तो चुनाव के मुद्दे उसकी कैम्पेनिंग को लेकर आ जाते हैं।
यह फिल्म सबको अच्छे से समझ आती है क्योंकि इसे इतने साधारण तरीके से बनाया गया है कि इसमें इसकी पृष्ठभूमि की झलक अनजान भी स्वत: महसूस कर पाएगा। कहानी मायावती की तो नहीं है लेकिन उनके नारों से लेकर जन्मदिन पर सजने तक की तमाम घटनाएं फिल्म में प्रमुखता से स्थान पाती हैं। निर्देशक सुभाष कपूर ने ‘फंस गया रे ओबामा’, ‘जॉली एलएलबी’ और ‘जॉली एलएलबी 2’ जैसी फिल्म बनाई है।
आगे उन्हें आमिर खान के साथ ‘मुगल’ भी बनानी है। तो उसके लिए उन्होंने यह खतरा मोल क्यों लिया समझ से परे है। और बाकी भाई तुम्हें मायावती के जीवन को ही फ़िल्म दिखाना था तो उस पर बायोपिक बनाई जा सकती थी थोड़ा अध्ययन करके। खैर ये फ़िल्म पल पल सब्र का इम्तिहान लेती हुई नजर आती है और हम इसे देखते हुए सोचते हैं कि अब शायद कुछ दिलचस्प मोड़ आएगा लेकिन इसी सोच के साथ फ़िल्म भी खत्म हो जाती है। साथ ही हमारे सब्र के बुत का भरम भी पाश पाश हो जाता है।
‘जो न करें तुमसे प्यार, उनको मारो जूते चार’ और ‘यूपी में जो मेट्रो बनाता है, वो हारता है और जो मंदिर बनाता है वो जीतता है’ जैसे जुमले जरूर हमें उस वक्त की राजनीति के दौर की सैर करवाते हैं। फ़िल्म की नायिका ऋचा चड्ढा एक आध जगह ही ठीक लगती हैं ज़्यादातर वे मायावती तो छोड़ो एक टुच्चे से नेता का रोल भी ठीक से अदा नहीं कर पाई है। काश इस फ़िल्म में अभिनय करने से पहले उन्हें कुछ राजनेता के वीडियो ही दिखा दिए जाते।
इसके अलावा उन्हें शुरू से ही ब्वॉय कट बालों के साथ देखना असहज लगता है। यह असहजता पूरी फिल्म में बनी रहती है। अक्षय ओबेरॉय और शुभ्रज्योति फिर भी कुछ बेहतर नजर आए। शुभ्रज्योति ने फिल्म ‘आर्टिकल 15’ के बाद एक बार फिर प्रभावित करने वाला काम किया है। मास्टरजी के किरदार में सौरभ शुक्ला हमेशा की तरह जंचे हैं और वे फिल्म के सबसे सीनियर कलाकार हैं। इस बात को भी अपने अभिनय से वे साबित करते हैं।
सिनेमैटोग्राफी का स्तर और बेहतर किया जा सकता था। वह औसत ही नजर आती है। गीत संगीत निचले दर्जे का है। बल्कि उनकी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। वे जबरन थोपे और ठूंसे हुए लगते हैं। एडिटिंग कुलमिलाकर ठीक है लेकिन इसमें भी कुछ हिस्से और जोड़े जा सकते थे। फ़िल्म की लम्बाई कम होने से भी फ़िल्म पर असर पड़ता है।
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