भर में विभिन्न विश्वविद्यालयों में लगभग दो सौ के आस-पास स्त्री अध्ययन विभाग/केंद्र आज नयी चुनौतियों से जूझ रहे हैं. अभी बमुश्किल चार दशक हुए हैं स्त्री अध्ययन का पहला सेंटर (1974) एसएनडीटी, मुम्बई में खुले हुए और अभी इस विषय को एक सुनियोजित हमला झेलना पड़ रहा है. विषय अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है. वैसे भी विश्वविद्यालयों के पुरुष-सत्ताक ढाँचे और प्रशासन में महिलाओं की न्यूनतम उपस्थिति के कारण इस विषय का बहुत स्वागत भी नहीं हुआ है, सेंटर पैसों की कमी से जूझ रहे हैं. धीरे-धीरे कई विश्वविद्यालयों में इसका मोड सेल्फ फायनांसिंग का होता गया है. विषय में डिग्री के बाद नौकरियों की गारंटी नहीं है. स्पष्ट है कि सेल्फ फायनांस मोड में विद्यार्थी मिलना मुश्किल है.
स्त्री-अध्ययन विभागों/केद्रों ने भी अलग राह ले ली है
इन केन्द्रों की भी विसंगतियां कम नहीं है. देश के कई स्त्री अधययन विभाग सिलाई-बुनाई के सेंटर की तरह दिखते हैं. विभागाध्यक्ष पितृसत्ता और पुरुष नियन्त्रण के प्रतीकों के पक्ष में तर्क देते सुहाग चिह्नों के लिए सेमिनारों में वकालत करती भी देखी जा सकती हैं या फिर भारतीय परिवार और परम्परा में स्त्री के लिए तय भूमिका की वकालत. स्त्री अध्ययन की एक प्राध्यापिका कहती हैं ‘देश भर में उँगलियों पर गिने जाने वाले स्त्री अध्ययन सेंटर और विभाग ही कमोबेश इस डिसिप्लीन की शुरुआत के उद्देश्यों के अनुरूप काम कर रहे हैं. ‘हालात यह है कि उदयपुर विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग फैशन डिजायनिंग का कोर्स पढ़ा रहा है, मानो वह कोई स्किल डेवलपमेंट सेंटर हो. हालांकि स्त्री आन्दोलन के एक्टिविस्ट और विदुषियों-विद्वानों के बीच भी इसे एक समुचित डिसिप्लिन के रूप में विकसित करने को लेकर शुरू से ही मत-मतांतर रहा है.
सिर मुड़ाते ही पड़े ओले
यूं तो महिला आन्दोलन और स्त्री अध्ययन विभाग पर पहले से ही जाति के दायरे से बाहर नहीं आने के आरोप लगते रहे हैं. इसके कारण भी हैं. हिन्दी में पहली दलित महिला आत्मकथा लेखिका कौशल्या बैसंत्री ने इस तरह के अनुभव व्यक्त किये हैं और यह दावा, विवाद तथा संवाद आज भी जारी है. आज भी उनपर सावित्रीबाई फुले, महात्मा फुले और डा. अम्बेडकर की उपेक्षा का आरोप है. हाल के दिनों में इन आरोपों से मुक्ति के प्रयास भी हो रहे हैं. अपने प्रशासनिक ढाँचे के वर्गीय और जाति-चरित्र के कारण भी इन आरोपों को झेलते महिला अध्ययन सेंटर-विभाग अभी दो-चार कदम ही चले हैं कि परम्परावादी सोच का सीधा हमला भी उनपर शुरू हो गये हैं. यह हमला उस सामाजिक-प्रशासनिक ढाँचे से हो रहा है, जिसका आदर्श मनुस्मृति आधारित शासन रहा है, जिसके प्रवक्ता संविधान लागू होते वक्त ही मनु स्मृति की पैरवी कर रहे थे. डॉ. अम्बेडकर हिन्दू स्त्री की गुलामी का सबसे बड़ा कारण इस ग्रन्थ के साथ-साथ स्मृतियों के नियमन को ही बताते हैं.
क्रमिक मौत की केन्द्रीय साजिश
विश्वविद्यालयों की नियामक संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने कुछ महीने पहले सभी विश्वविद्यालयों को कुछ ख़ास चीजें पढ़ाने को कहा, तभी वे इन्हें फंड देते रहने की स्थिति में थे. वे ख़ास चीजें थीं विद्यार्थियों को आदर्श भारतीय नारी से रु-ब-रु कराने के सीमित लक्ष्य से निर्धारित, जो इस विषय के पढाये जाने के मूल लक्ष्य पर ही एक सुनियोजित हमला था. 29 मार्च, 2017 को यूजीसी ने एक नोटिफिकेशन के जरिये स्त्री अध्ययन के सभी केन्द्रों और विभागों को सूचित किया कि उन्हें प्लान हेड के तहत मिलने वाला बजट 30 सितम्बर के बाद यूजीसी की समीक्षा के बाद ही जारी किया जा सकेगा. जिसका अर्थ था यूजीसी के पाठ्यक्रम संबंधी निर्देशों का पालन एक शर्त होगी. कई केन्द्रों ने यूजीसी और सरकार के इरादे पर ऐतराज जताया तो यूजीसी से उन्हें कहा गया कि वे यह बताएं कि वे पढ़ाते क्या हैं? हालांकि कुछ केन्द्रों और विभागों ने यूजीसी के प्रति समर्पण कर दिया है. कुछ संस्थान हिंदूवादी संगठनों के साथ मिलकर कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं तो कुछ हिंदूवादी नेताओं की याद में कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं.
लगे हाथ यह भी स्पष्ट करते चलें कि इन दिनों केन्द्रीय सत्ता की रूचियां भारत की शिक्षा व्यवस्था को कथित राष्ट्रवादी बनाने की है. संघ प्रायोजित कुछ संगठन तो सीधे विश्वविद्यालयों को निर्देशित कर रहे हैं, पत्र लिख रहे हैं कि उन्हें क्या पढ़ाना है. विश्वविद्यालय प्रशासन उन पत्रों का यथाशीघ्र अनुसरण का नोट विभागों को भेज रहे हैं. 12सितंबर को जागरुकता, देशभक्ति और राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण से काम करने का दावा करने वाली संस्था भारतीय शिक्षण मंडल ने ईमेल से कुछ विश्वविद्यालयों और संस्थानों को सुझाव भेजा है कि वे अपने पाठ्क्रमों को राष्ट्रवादी बनायें. एक विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने 22 सितम्बर को इस निर्देश के आलोक में यथाशीघ्र अपने विभागों को इसके सुझावों की दिशा में काम करने का निर्देश जारी किया है. संस्था ने लिखा कि “पाठ्यक्रम एवं शिक्षण पद्धति का निर्माण इस प्रकार से हो कि जिससे विद्यार्थी का समय व्यक्तित्व विकास एवं राष्ट्रीय एकता के साथ उसका भावनात्मक जुड़ाव सुनिश्चित किया जा सके। सत्व एवं रजस की उसके जीवन में प्रधानता रहे, निष्काम भाव से किये जाने वाले कर्म के महत्व को समझकर एक कर्मयोगी के रूप में अपने समसत कर्तव्यों का निर्वहन कर सके। 16 विद्याओं एवं 64 कलाओं में से कम से कम एक विद्या व एक कला पर उसका अधिपत्य हो, शास्त्रीय एवं मौलिक, विजिक्षु दृष्टिकोण हो, विश्वबंधुत्व के भाव से संपूर्ण विश्व को आच्छादित करने का जिसमें सामर्थ्य हो, अभय के साथ पूर्णता अथवा शून्य की ओर उन्मुख होकर आने वाले युग का पथ प्रदर्शक बन सके।”
हालांकि स्त्री अध्ययन विभागों और संस्थानों की प्रतिनिधि संस्था असोसिएशन फॉर वीमेन स्टडीज (स्थापित 1982) की अध्यक्ष इंद्राणी मजूमदार कहती हैं कि ‘इसके पहले भी केंद्र में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार आयी थी और अटल बिहारी वाजपयी प्रधानमंत्री थे तो स्त्री अधययन केंद्र/विभाग को ‘स्त्री अध्ययन और परिवार कल्याण’ विभाग बनाने का नोटिफिकेशन किया गया था.’
वित्तीय अनिश्चितता की स्थिति और केन्द्रों की चिंता
देश के अधिकांश स्त्री अधययन केंद्र यूजीसी के प्लान हेड में प्राप्त वित्तीय सहयोग से चलते हैं. छठे प्लान की अवधि 30 सितम्बर को खत्म हो रही है. इसके लिए 29 मार्च के नोटिफिकेशन से यूजीसी ने सारे केन्द्रों और विभागों को बताया कि प्लान के तहत आगे अनुदान देना यूजीसी की समीक्षा के बाद ही संभव है. बहुत कम ही केंद्र और विभाग विश्वविद्यालयों के सीधे हिस्सा हैं, इसलिए अधिकाँश केन्द्रों पर आर्थिक संकट की स्थिति स्वाभाविक तौर पर बन गयी है.
यूजीसी के इस नोटिफिकेशन के बाद स्त्री अध्ययन केन्द्रों में खलबली मच गयी. असोसिएशन फॉर वीमेन स्टडीज के बुलावे पर 23 अगस्त को दिल्ली में स्त्री अधयन केन्द्रों से 200 प्रतिनिधि जुटे, एक दिन का कन्वेंशन हुआ और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को ज्ञापन दिया गया. इसके बाद यूजीसी ने आश्वस्त किया कि यूजीसी का फंड रोकने का कोई इरादा नहीं है. स्त्री अध्ययन विभागों से पता करने पर पता चला कि इस आशय का कोई पत्र आजतक यूजीसी ने उन्हें नहीं भेजा है और 30 सितम्बर के बाद रिव्यू के आधार पर फंड का उनका नोटिफिकेशन यथावत है. यूजीसी की साईट पर हालांकि इस एक नोटिस देखी जा सकती है कि यूजीसी का इरादा फंड रोकने का नहीं है, लेकिन किसी स्पष्टता के अभाव में इरादे और घोषणा में तालमेल नहीं दिखता.
कुछ केंद्र कर रहे समर्पण जो अड़े उनका दमन
स्त्री अध्ययन की एक प्राध्यापिका ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि ‘यूं तो देश के अधिकाँश विश्वविद्यालयों के स्त्री अधययन केंद्र यूं ही परम्परावादी नेतृत्व से संचालित है, लेकिन इधर जिन विश्वविद्यालयों ने स्त्रीवाद के क्षेत्र में अध्याय लिखे वहाँ हिंदुत्ववादी संगठनों के साथ तालमेल और सेमिनार की खबरें आ रही हैं. यूजीसी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करने या ऐसे ही कार्यक्रमों के लिए सुझाव और फंड दिया है. दुखद है कि स्त्री अधययन विभागों से जुड़े लोग भी ऐसे आयोजन संचालित कर रहे हैं. सवाल है कि दीनदयाल उपाध्याय का योगदान स्त्रीवाद के लिए क्या है?’
इस बीच जो केंद्र यूजीसी के सुझावों और रिव्यू के बाद प्लान फंड की योजना के खिलाफ आवाज बना सके उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्त्री अधययन केंद्र के साथ प्रशासनिक विवाद अखबारों की सुर्खियाँ बन रही हैं. यद्यपि केंद्र विश्वविद्यालय का हिस्सा है लेकिन इसके बहुत से कार्यक्रम प्लान फंड से चलते हैं. फंड की कमी के कारण वहाँ होने वाली ‘रुकैया व्याख्यानमाला बाधित हो रही है. केंद्र द्वारा संचालित स्त्री अधययन रिफ्रेशर कोर्स की जिम्मेदारी उससे लेकर दो प्राध्यापकों को दे दी गयी है. केंद्र की विभागाध्यक्ष लता सिंह बताती हैं कि ‘ इस कारण रिफ्रेशर कोर्स में आने वाली बहुत सी एक्सपर्ट ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया है.
असोसिएशन फॉर वीमेन स्टडीज की भूमिका पर उठ रहे सवाल
यद्यपि असोसिएशन फॉर वीमेन स्टडीज ने फंड के मामले में त्वरित कदम उठाये. 2016 में आयोजित चेन्नई कांफ्रेंस में ‘स्त्री अध्ययन’ पर आये संकट का मुद्दा उठा. असोसिएशन की अध्यक्ष इंद्राणी मजूमदार बताती हैं कि ‘ जलीकटू वाले हंगामे के कारण इस पर कोई ठोस प्रस्ताव पास नहीं हुआ. जल्दी-जल्दी में हमें कांफ्रेस समेटना पड़ा.’ एक साल के भीतर ही 23 अगस्त को असोसिएशन ने दुबारा कांफ्रेंस बुलाया और फंड रोके जाने के मुद्दे पर सरकार को ज्ञापन दिया. इंद्राणी बताती हैं कि ‘इसी दवाब में यूजीसी को स्पष्टीकरण देना पड़ा.’ हालांकि वे शायद यह भूल जाती हैं कि पिछले नोटिफिकेशन का अस्तित्व बना है और रिव्यू के साथ यूजीसी का एजेंडा भी.
स्त्रीकाल से बात करते हुए स्त्री अधययन के विद्यार्थियों ने कहा कि असोसिएशन की भूमिका दूसरे विषयों के असोसिएशन से भिन्न नहीं है. हमारी शिक्षिकाएं एक्टिविज्म और रिसर्च टार्गेट से लगाव का सिद्धांत बताती हैं लेकिन व्यवहार में विषय अधिक सांस्थानिक होता गया है. यह विषय अंतरअनुशासनिक (इंटरडिसिप्लीनरी) अध्ययन-अध्यापन के पक्ष में है, लेकिन इस दिशा में सारे विभागों में पहल हो इसपर इनकी कोई भूमिका नहीं है. नियुक्तियों में अंतरअनुशासनिकता वन वे ट्रैफिक है, यानी इसके केन्द्रों विभागों में दूसरे विषय के शिक्षक नियुक्त किये जाते हैं लेकिन इस विषय के विद्यार्थियों को दूसरे विषय इंटरटेन नहीं करते.
असोसिएशन फॉर वीमेन स्टडीज की भूमिका तब भी संदेह के घेरे में आयी थी जब 2010 में अपने कांफ्रेंस में एक ऐसे कुलपति को जेंडर समानता सम्मान से सम्मानित किया गया था, जिसने सम्मलेन के तीन-चार पूर्व ही लेखिकाओं को गाली दी थी और उसके खिलाफ महिलाओं ने आवाज मुखर की थी. उन्हें सम्मान दिये जाने का दलित महिला आन्दोलनकारियों ने विरोध किया था और असोशिएशन का टीए-डीए के लिए कुलपति के समक्ष समर्पण का आरोप लगाया था.
जरूरत है आत्मनिरीक्षण की
शिक्षा में बदलाव की सरकारी तत्परता देखते हुए स्त्री अध्ययन विभागों/ केन्द्रों पर मंडरा रहा खतरा स्थायी है और एजेंडे के अनुरूप असर दिखाएगा भी. इस विषय की नेताओं ने कुछ विभागों और केन्द्रों में इसके उद्देश्य को बनाये तो रखा लेकिन इसका विस्तार देश भर के केन्द्रों तक नहीं हुआ. यूजीसी और सरकार के लिए ऐसे केंद्र प्राणवायु हैं. यदि असोसिएशन और इस विषय के नेतृत्व ने आत्मनिरीक्षण नहीं किया तो वर्तमान और आसन्न संकट समीप है. उदहारण के तौर पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के केंद्र ने अपने कर्मचारियों और शिक्षकों की छटनी प्लान बजट के बारे में यूजीसी के नोटिफिकेशन के पहले ही कर दी थी.
और यह मजबूत आरोप स्त्री अध्ययन विभागों और इससे जुड़े प्राध्यापकों तथा आन्दोलन से सबसे उल्लेखनीय सवाल भारत के पहले मुकम्मल वामपंथी महिला संगठन एनएफआईडवल्यू की महासचिव एनी राजा करती हैं कि ‘इस विषय के भीतर एक ख़ास बेईमानी भारत में महिला आन्दोलन के इतिहास को लेकर है. वे स्त्री आन्दोलन को 74 के टुवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट और उसके बाद के आन्दोलनों तक ही सीमित कर देती हैं जबकि एनएफआई डव्ल्यू की स्थापना काफी पहले (1954) हो गयी थी. इन आन्दोलनों के काफी पहले इसकी स्थापना हो चुकी थी। अरुणा आसफ अली को ये छोड़ देते हैं. ‘यही आरोप दलित महिला आन्दोलन की तरफ से स्त्री अधययन और स्त्री आन्दोलन पर लगाया जाता है. 1942 में डा. अम्बेडकर की उपस्थिति में नागपुर में हुआ दलित महिला सम्मलेन महिला मुक्ति का पहला घोषणापत्र पेश करता है, इसका नामोल्लेख तक नहीं होता।
संजीव चंदन
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