राजनीतिक एकध्रुवीयता और विपक्ष
राजनीतिक एकध्रुवीयता राजनीतिक प्रणाली में पैदा हुए संकट का परिणाम है और इस संकट की शुरुआत धीरुभाई शेठ के अनुसार 1975 से होती है। यह आपातकाल लागू करने का समय था और इसके बाद 1977 में चुनाव के बाद जो जनता पार्टी की सरकार आई, लोकतंत्र में बिखराव की समस्या वहाँ से शुरू होती है। योगेन्द्र यादव की ‘लोकतंत्र के सात अध्याय’ यह बिखराव लोकतान्त्रिक राजनीति में वैधता की समस्या खड़ा करता है और इसके बारे में हेबरमास कहता है कि वैधता प्राप्त करना वह प्रक्रिया है जिसमें एक पक्ष अपनी वैधता खो देता है और दूसरा पक्ष इससे इंकार करता है और इस प्रकार वैधता की समस्या एक स्थायी समस्या बन जाती है।
वर्तमान राजनीतिक एकध्रुवीयता इसी वैधता की समस्या की देन है। बिखराव से यह वैधता संकट में पड़ती है और इसका फायदा फासीवादी प्रवृत्तियों द्वारा जनता के बीच भावनात्मक उफान पैदा करने और विचार – शक्ति कम करने में मिलता है। हिटलर ने मीडिया को निर्देश दिया था कि उसे लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करना चाहिए न कि उनकी विचार – शक्ति को बढ़ाना चाहिए। आज के राजनीतिक ध्रुवीकरण का आधार यही दृष्टिकोण है इसलिए आज का राष्ट्रवाद जन सरोकारों से जितना विमुख और भावनात्मक रूप से उफनता हुआ दिखलाई देता है उतना आजादी के सत्तर सालों में कभी नहीं दिखलाई दिया था, सिवाय युद्ध के दिनों को छोड़कर जो स्वाभाविक होता है। इस उफनते राष्ट्रवाद के पीछे शुद्ध भारतीयता का मिथक है जो इतिहास के विकास की गति और दिशा की अवहेलना करके उसे आगे से पीछे, बीच के दौर को नकार कर देखती है और कहने की जरुरत नहीं कि यह शुद्ध भारतीयता अघोषित हिन्दू राष्ट्र के निर्माण का ही प्रयास है। अभी मीडिया पर अयोध्या में भव्य दीवाली छाई हुई है। लेजर लाइटों, डिजिटल तकनीकों के जरिये त्रेता युग का एक आभासी यथार्थ पैदा किया जा रहा है, स्वयं मुख्यमंत्री ने राम और सीता बने लोगों का राज्याभिषेक किया और स्वयं भरत की भूमिका में थे। यह व्यंग्य नहीं है, बाकायदा कार्यक्रम के टेलीकास्ट में दिखाया गया, कहा गया। कहा जा रहा है कि राम राज्य की स्थापना हो गई और भाजपा के कुछ कुपढ़ और वैचारिकता से शून्य प्रवक्ता, नेता बड़े अटपटे ढंग से कभी इसे गाँधी की कल्पना का राम-राज्य कहते हैं तो कभी हिन्दू गौरव तो कभी भारतीय संस्कृति की भव्यता से जोड़ते हैं। यह एक धर्म के दायरे से पैदा किया गया डिज्नीलैंड जैसी छवि है जो अतीत के महान काल्पनिक हिन्दू राष्ट्र का आभासी यथार्थ बनाता है, जबकि ठोस यथार्थ यह है कि ध्वनि, प्रकाश और रंगों के चमकते-दमकते राम-राज्य के इस तमाशे में उन घरों के लोगों के क्रंदन से ध्यान हटाया जा रहा है जिनके बच्चे सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में मर गए। झारखण्ड की कोयली देवी का रुदन भी खो गया है जिसकी बेटी भात-भात करते मर गई क्योंकि आधार कार्ड नहीं रहने के कारण उसे सरकारी दुकान से चावल नहीं मिला। इन सब से बेखबर लोग उत्सव में डूबे हैं कि भगवान राम अयोध्या आ गए, उनका राज्याभिषेक हो गया और राम-राज्य स्थापित हो गया। जनता की धार्मिक आस्था दीवाली से जुड़ी है, हम सब दीवाली अपने स्तर से मनाते हैं लेकिन वास्तविक मुद्दों को भावनात्मक बनाकर धर्म को एक दल के राजनीतिक ध्रुवीकरण में बदलना लोकतंत्र के इतिहास का सबसे अँधेरा पक्ष है।
क्या इस पर सोचने की जरुरत नहीं है कि भाजपा आज एकध्रुवीय पार्टी कैसे बनी? यह एक माह या एक साल का मामला नहीं है, ढाई दशकों से देश फासीवाद की ओर बढ़ता गया और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले इस मुगालते में पड़े रहे कि कुछ नहीं होगा जबकि भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक प्रणाली में पहला मोड़ 1967 के आम चुनाव में ही आ गया था। आपातकाल को फासीवाद का प्रयोग नहीं कहा जा सकता, न ही उस दौर में राजनीति एकध्रुवीय हुई थी। दमन हो रहा था और उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया भी हो रही थी और 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया था। वर्तमान एकध्रुवीयता की सबसे खतरनाक बात है कि इसने आम जनता के दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया है। विपक्ष के रूप में अभी कोई ऐसा दल नहीं है जो इसको चुनौती दे सके, यह हकीकत है। 1967 के आम चुनाव के बाद रामविलास शर्मा जैसे प्रखर मार्क्सवादी आलोचक ने चेताया था कि फासीवाद को रोकने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टी पर है लेकिन अपने ढुलमुल और अस्पष्ट राजनीतिक सोच से विहीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ जनता को यह समझाने में विफल रहीं कि भारत फासीवाद की ओर जा रहा है। जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है तो इस राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए वह खुद जिम्मेदार है। 1980 में जब इंदिरा जी ने ऑपरेशन ब्लू स्टार करवाया, वहीँ से उनका रुख हिंदुत्व के एजेंडे की ओर दिखने लगा। उनकी निर्मम हत्या के बाद जो सिखों का नरसंहार हुआ वह भी इसी दिशा का संकेत देता है। 1986 में राजीव जी ने रामजन्म भूमि का ताला खुलवाया और 1992 में मस्जिद ढाही गई तो उसमें श्री नरसिंहराव की भूमिका कम नहीं थी। यह उत्तर नेहरु दौर की कांग्रेस है और राजनीतिक प्रणाली की दृष्टि से देखा जाय तो सिवाय उग्र हिन्दुवाद के अन्य सभी मुद्दों पर दोनों की राहें एक हैं। अन्य छोटे दलों के बारे में जिस बहुदलीय प्रणाली की संभावना की बातें योगेन्द्र यादव ने कीं, वे जातिवादी ध्रुवीकरण करते रहे और भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण और माफिया संस्कृति के पोषण के लिए जिम्मेदार हैं। कांग्रेस ने विश्व बाजार में भारत को धकेला, पिछड़ी और मध्यवर्तीय जातियों की राजनीति के सूत्रकारों ने जातिगत राजनीति को व्यक्ति पूजा में बदला, सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों को एक संरक्षित प्रजाति में बदल दिया और यही एजेंडा भाजपा का भी रहा है कि मुसलमान हमेशा अपनी सुरक्षा और हितों के लिए बहुसंख्यक समुदाय की ओर देखते रहें, स्वतंत्र चिंतन, विवेक से दूर रहें। आश्चर्य नहीं कि इस देश में मंडल, मंदिर और मार्केट एक साथ प्रभावी आए।
दरअसल आर्थिक मोर्चे पर भाजपा कांग्रेस का ही दामन पकड़कर आगे बढ़ी और उसके पास धर्म का भी तत्व था जिसका इस्तेमाल उसने गौ, ब्राह्मण और देवता के राज्य का सपना दिखाने में किया और इसके लिए न सिर्फ मध्य वर्ग बल्कि निम्न वर्ग के लोगों के दिमागों पर भी कब्ज़ा कर लिया। कांग्रेस तो हिंदुत्व, सेक्युलरिज्म और शुद्ध भारतीयता के बीच ही भटकती रह गई। इसलिए आज हालत यह है कि कोई विपक्ष बन ही नहीं पा रहा है। कांग्रेस ने नए साम्राज्यवाद को यहाँ पनपने का मौका दिया और भाजपा ने उसकी फसल काटी क्योंकि उसको जनता को कट्टर हिन्दू में बदलने का मौका मिला। भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मामले आए और ये भी महत्वपूर्ण कारण थे भाजपा द्वारा हिन्दुओं के ध्रुवीकरण के। मुसलमानों के धार्मिक तुष्टिकरण के अलावे उसने उनके लिए कुछ किया नहीं लिहाजा इसका वह जनाधार भी खिसकता गया और उसे पता भी नहीं चला। वैश्वीकरण और विदेशी पूंजी निवेश, कॉर्पोरेट सेक्टर के हित तक लोकतंत्र को सीमित करने का काम कांग्रेस ने ही किया और भाजपा ने उसे चरम पर पहुंचा दिया। विकास का वर्तमान दर्शन पूरी तरह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है क्योंकि वह सिकुड़ कर कॉर्पोरेट पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देखभाल तक सीमित रह गया है और यह कांग्रेस ने ही शुरू किया था।
आज राजनीति एकध्रुवीय होकर खूंखार हो गई है। सरकार का काम बड़े पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करना रह गया है। विपक्ष अप्रासंगिक बन गया है। यह सब नया नहीं है। गुजरात दंगों के समय अटल जी ने क्रिया की प्रतिक्रिया वाला बयान दिया था। फिर मरहम लगाने के लिए मोदी जी को राजधर्म निभाने की सलाह दी और जब गुजरात में नरसंहार हो रहे थे, अटल जी, यानि देश के नरम केसरियावादी प्रधानमंत्री अपनी कविताओं का पाठ कर रहे थे। जब परमाणु परीक्षण किया गया तो बाल ठाकरे ने कहा कि अब हम हिजड़े नहीं रहे। क्या उन्हें परमाणु युद्ध के परिणामों का पता था? उसके बाद भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बोलते हुए अटल जी ने कहा कि मुसलमान कहीं भी शांति से नहीं रहते। क्या उन्हें पता है कि आतंकवाद की मूल भूमि अरब देश ही क्यों हैं जहाँ तेल के कुँए हैं। अंत में यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि देश में फासीवाद आ चुका है और राजनीतिक एक ध्रुवीयता इसका वाहक है।
अजय वर्मा