जातीय वर्चस्व से पद-प्रतिष्ठा की ओर ‘यस सर’
‘जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान’ के भाव को पुष्ट करने वाली लघु फ़िल्म ‘यस सर’ भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को सामने रखती है, सामाजिक विसंगतियों व विडम्बनाओं को हास्य-व्यंग्य में पिरोना आसान नहीं। व्यक्ति की विद्वता, ज्ञान, पद-प्रतिष्ठा जात-पात के बंधनों से मुक्त होनी चाहिए जैसे गंभीर मुद्दे को हास्यरस में प्रस्तुत करना इस फिल्म की विशेषता है। फ़िल्म बाबासाहब अम्बेडकर के कथन को प्रमाणित करती है कि भारत में जाति व्यवस्था एक ऐसी जड़ मानसिकता है जिसे शिक्षित हुए बिना आसानी से उखाड़ा नहीं जा सकता, आज इस तुच्छ मानसिकता की जड़ें कमज़ोर हो रहीं हैं। पहले सरकारी दफ्तरों में गाँधी-नेहरु की तस्वीरें हुआ करती थी वहीं आज बाबासाहब की तस्वीर होना संकेत करता है कि संविधान ने देश और समाज की मानसिकता को बदलने का काम किया है। फ़िल्म मुख्यत: यह संदेश देती है,‘पद-प्रतिष्ठा’ किसी जाति-वर्ण की मोहताज़ नहीं तो दूसरे ‘दलित-चेतना’ सिर्फ दलितों में ही नहीं बल्कि सवर्ण जातियों में भी जाग्रत होनी चाहिए तभी संतुलित और समावेशी समाज तैयार हो पायेगा।
फ़िल्म अजय नावरिया की कहानी ‘यस सर’ पर आधारित है उनकी कहानियों में ‘दलित मुद्दे’ सिर्फ आक्रोश या विद्रोह अथवा सहानुभूति के रूप में नहीं चित्रित किये जाते बल्कि भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को वे बहुत सहज ढंग से सामने लाते। ‘यस सर’ भी सिर्फ़ ‘दलित-चेतना’ को रेखांकित नहीं करती बल्कि सरकारी दफ्तर के सवर्ण चपरासी रामनारायण तिवारी के माध्यम से दलितों के प्रति बदलती मानसिकता को चित्रित करती है। बॉस नरोत्तमदास और राम नारयण तिवारी दोनों के नाम भी भारतीय समाज की सदियों पुरानी धार्मिक,सामाजिक संकल्पना को उभारने का काम करतें है। नरों में उत्तम ‘नरोत्तमदास-सरोज’ है जबकि दूसरा अवतारों में विश्वास करने वाला।
कहानी एक सरकारी दफ़्तर के इर्दगिर्द घूम रही है जहाँ सवर्ण ‘तिवारी’ चपरासी है, जब उसका बॉस उसकी ही जाति का सवर्ण था तो उसे कभी अपने चपरासी होने में छोटेपन का एहसास नहीं हुआ लेकिन अब एक दलित उसका बॉस है तो उसके अधीन काम करने की विवशता में उसका मन, सदियों का दबा अहंकार, वर्चस्व उसे चुनौती देता है क्योंकि वह तो मनु-व्यवस्था में सबसे ऊपर यानी श्रेष्ठ है तिस पर बाथरूम की नाली चोक हो गई है, दफ़्तर का सफाईकर्मी लापता है। तिवारी उसे ढूँढने की हर संभव कोशिश करता है लेकिन नाकाम रहता है। इन्हीं के बीच जब नरोत्तमदास उसे वर्षों से लंबित पदोन्नति का पत्र देता है तो सदियों पुराने उसके संस्कार या पूर्वाग्रह ध्वस्त होते जातें है और वह सायास ही उस चोक नाली को साफ़ करने का उपक्रम आरम्भ कर देता है, ‘अपने घर में भी तो करते है’ कथन स्पष्ट: दलित बॉस के प्रति उसकी बदलती मानसिकता को दर्शाता है। अवरुद्ध करने वाले ही जब मार्ग खोलने का उपक्रम करेंगे तभी समाज प्रगति करेगा, जिन मार्गों को जिसने जाम किया हुआ है,खोलना भी उन्हीं को होगा। कहानी सामाजिक संतुलन का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है लेकिन संतुलन के लिए अब सवर्ण को ही (एडजस्टमेंट) आगे आना होगा दलित विमर्श का यह नया मौलिक पक्ष है। अजय नावरिया की ‘संक्रमण’ कहानी में भी सवर्ण श्वेता की ही मानसिकता बदलते दिखाया गया है। मिलिंद जिसके लेखन की वह बड़ी प्रशंसक थी, पद- प्रतिष्ठा में उच्च होने पर भी उसके लिए अछूत मात्र रह जाता है पर अंतत:“हमारे सबकान्शियस माइंड को भी शायद ट्रेंड कर दिया गया है” कहने वाली श्वेता मिलिंद की आत्मकथा पढ़ने के बाद अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होती है। मात्र शिक्षा या संवैधानिक प्रावधानों से वर्चस्ववादी समुदाय की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता, वर्ण-व्यवस्था की जड़, पुरानी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों से अन-अभ्यस्त ‘unlearn’ होना होगा, सवर्ण को ही स्टैंड लेना होगा। कहानी में ‘पानी व्यर्थ बहते रहना और नाली में पानी चोक होना’ प्रतीकात्मक है, पानी मनुष्य के अस्तित्व मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा से गहरे स्तर तक हुआ है, पद-प्रतिष्ठा को वर्चस्ववादी समुदाय अपने पास कब तक रोक कर रख सकता है ? जड़ मानसिकता व सड़ी गली मान्यताएँ पानी की तरह रुकी रहेंगी तो समाज सड़ने लगेगा अत: बहाव जरूरी है,गिलास का प्रदूषित जल फेंकना होगा तभी स्वच्छ जल भरने का लाभ मिलेगा।
मैं सिनेमा को ‘साहित्य के विस्तार (एक्सटेंशन)’ के रूप में समझती हूँ, जहाँ अभिव्यक्ति का आधार वस्तुतः पटकथा और संवाद लेखन से आरम्भ होकर, उनके दृश्यांकन हेतु कैमरा फिर अभिनय, संवाद,गीत-संगीत, सेट,वेशभूषा औजार की तरह काम करते हैं। शोर्ट मूवी ‘यस बॉस’ भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को अपडेट करने की सशक्त तस्वीर चित्रित करती है जो वर्ण व्यवस्था की जड़ो को कुरेदती हैं,संवेदनाओं को झकझोरती और आंदोलित करती हैं और कहीं कोई एकपक्षीय या नकारात्मक प्रभाव नहीं आने देती। निर्देशक मुदित सिंघल बधाई के पात्र हैं कि फ़िल्म का पहला ही दृश्य अजय नावरिया की कहानी की मूल आत्मा कि सवर्ण को अब मद की निद्रा से जागना होगा, को आत्मसात करते हुए आरम्भ होता है। तिवारी और नरोत्तमदास की कई भाव-भंगिमाएं और चेष्टाएँ सदियों के बदलाव को एक साथ दर्शाते हैं। गाँव वालों का जयकारा ‘तिवारी जी की जय’ वर्चस्ववादी जाति विशेष की ‘जय’ का प्रतीक है जिनमें समय के साथ होने वाला बदलाव दिखावटी है,कथनी करनी का अंतर जैसे ‘एक बीज से सब जग उपजा’ कहकर तिवारी प्रशंसा बटोर लेता है लेकिन हाथों को ऊँचा करके लड्डू लगभग फेंकता है ताकि हाथ उसे छू न जाए, फिर नरोत्तम का गिड़गिड़ाते हुए कहना ‘पाय लागू तिवारीजी’ पर अगले ही पल; अब पैरों गिड़गिड़ाने का ज़माना गया, ‘तिवारी बाबू पाय लागू’ कहते-कहते नरोत्तम का आँखों पर चश्मा लगाना और आदेशात्मक आवाज़ में कहना ‘तिवारी पानी देख’ , तिवारी का स्वप्न भंग कमरे से बाहर बैठा तिवारी , उसका झटके से उठना, सफारी सूट ठीक करते हुए कहना यस सर! लेखक या लेखन को वर्गों मैं विभाजित करना उचित नहीं मानती लेकिन तथाकथित दलित लेखक के माध्यम से सवर्ण मानसिकता को बदलते हुए दिखाने वाली ‘यस सर’ संभवत: यह पहली कहानी है। सपने के एक दृश्य में सबसे पहले पैरों पर कैमरा आता है जहाँ दबा-कुचला समाज हमेशा गिड़गिड़ाता आया है, अफ़सोस तिवारी बाबू की नींद खुल जाती है अर्थात् उच्च जातियों के जयकारा वाले दिन अब सपने-से हो गये हैं। चश्मा बाबा साहब की वैचारिक चेतना का प्रतीक है और अभिव्यक्ति में बदलते सुर शिक्षा का परिचायक इनसे ही घबराकर तिवारी’ का स्वप्न भंग हो जाता है। अब न जागे तो जैसा कि मिश्रा बाबू ने कहा था कि “तो छोड़ दो नौकरी और गाँव में जाकर भीख माँगों”। पहले तो लहज़े में यह बदलाव समझ नहीं आता लेकिन फिल्म के आगे बढ़ने के साथ-साथ इस बदलाव के अंतर को न केवल समझ पाते हैं, कनेक्ट कर पाते हैं बल्कि एक निश्चल हँसी हमारे चेहरे पर आ जाती है। सफारी सूट, रंगे बाल, घनी मूँछ पैरों में सैंडल ‘तिवारी’ का किरदार निभाने वाले मुकेश एस.भट्ट का अभिनय शानदार है सवर्ण की कसक को वे बड़ी मासूमियत से निभाते हैं, किरदार पर हँसी के साथ-साथ सहानुभूति कथ्य को सफल बनती है। इसी तरह पूरी फिल्म में सिर्फ़ पहले दृश्य की भीड़ में एकमात्र महिला का होना भी ध्यानाकर्षित करता है कि आज भी समाज में महिलाओं का अस्तित्व एक प्रतिशत है न कि पूरी आधी आबादी का अस्तित्व !
कहानी और फ़िल्म दोनों ही “रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून” के भाव को अनोखे ढंग से सामने रखती है। पानी अर्थात् जल,चमक,इज्ज़त, मान-मर्यादा प्रतिष्ठा। नरोत्तम अपने घर से आर. ओ. का पानी लाता है, ब्लैक कॉफ़ी माँगने पर तिवारी बड़बड़ाता है ‘पानी भी घर से लाता है जैसे यहाँ के पानी में तो जहर है’ यहाँ मामला सिर्फ शुद्ध पानी का तो है ही इसे “अपनी इज्ज़त अपने हाथ” की तरह भी समझना चाहिए। तिवारी गुस्से में उसकी कॉफ़ी में फूँक मारते हुए उसमें थूक फेंक देता है जो सवर्णों में सदियों की घृणा और नफ़रत को दर्शाता है, जो इन्हें पानी (इज्ज़त) देना चाहते। हालाँकि मूल कहानी में पाप पुण्य के भय से तिवारी सिर्फ सोच कर रह जाता है, कहानी में अजय नावरिया लिखते हैं –“हुक्म में कोई तल्खी नहीं थी पर तिवारी बुरी तरह आहत हो गया” उसके पूर्वाग्रह उसे आहत होने को विवश कर रहें हैं नरोत्तम का कहा ‘बेवकूफ‘ शूल की तरह गड़ गया था। प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ जिसमें स्वच्छ पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता के लिए दलित तरस रहा है जबकि पानी तो हवा की तरह प्रकृति में सहज उपलब्ध है लेकिन इस पर सवर्ण ‘ठाकुर’ का पहरा है।यही मूल भाव ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ में है जिसमें मान-मर्यादा प्रतिष्ठा का प्रतीक कुआँ और पानी के साथ-साथ चूल्हा, मिट्टी, तालाब, खेत-खलिहान मुहल्ले, बैल, हल, सब वर्चस्ववादी जातियों के(ठाकुर) पास है। चोक नाली समाज को अवरुद्ध करने वाली बेड़ियों का प्रतीक है। ‘तिवारी’ ‘ठाकुर का कुआँ’ की तरह वर्चस्ववादी वर्ण व्यवस्था का प्रतीक है, विशेषाधिकारों के दंभ को आज ‘तिवारी’ त्याग रहा है जिसे अंग्रेजी में ‘अनलर्न’ कहा जाता है। विशेषाधिकारों के मद में डूबे ‘तिवारी’ जैसे सवर्ण झुंझलाकर ही सही अब धीरे-धीरे जाग रहे हैं।
पात्रों के संबोधन भी दिलचस्प है जो बेहतरीन ढंग से कथ्य को उभारतें हैं जैसे पंडित को ओये पण्डिते या सिख को सरदार कहना यह किसी को बुरा नहीं लगता लेकिन तथाकथित छोटी जातियों के नाम गाली की तरह प्रयोग किये जाते हैं इसलिए जातिसूचक शब्दों से पुकारना दंडनीय अपराध भी है। फिल्म में लायकराम, दुर्गादास तथा नरोत्तमदास सरोज की नेमप्लेट में नाम है, सरनेम नहीं जबकि द्विवेदी, मिश्रा, चोपड़ा और तिवारी उन्हें सिर्फ सरनेम से पुकारा जा रहा है, क्योंकि सरनेम जाति की पहचान का महत्वपूर्ण बिंदु है जिसे जानने के बाद यारी-दोस्ती, शादी-ब्याह और प्रेम भी आगे बढ़ते-पनपते हैं। नामों के समाजशास्त्र पर महादेवी ‘घीसा’ में खूब लिखतीं हैं कि कैसे छोटी माने जाने वाली जातियों में अर्थहीन नाम बस यूँ की रख दिए जाते थे। दुर्गादास भी इसी दफ़्तर में काम करता है जो सरकारी नौकरी के साथ ही सूअर पालन का काम करता है। ‘सूअर’ के लिए दुर्गादास कहता है “यह तो हमारी लक्ष्मी है जैसे लोग भेड़, बकरी पालतें हैं ऐसे हम सूअर पालतें हैं, धंधा क्या गन्दा! क्या छोटा! हाँ पैसा ज़रूर छोटा बड़ा होता है अब ‘चोपड़ा साहब’ भी तो यही धंधा करतें हैं’ चोपड़ा साब जो उसके रिश्तेदार के बिजनेस पार्टनर है यानी सवर्ण गैर-सवर्ण के साथ मिल कर काम धंधे कर रहें है, पैमाने का फर्क है बस! बड़े पैमाने पर करने वाले बड़े लोग, जैसे बाटा जूता बनाता है तो उसकी इज्ज़त है। कहानी बताती है कि इसी पैमाने से अब सरकारी पदों पर बैठे लोगों को देखा जाना चाहिए जो जिस पद पर बैठा है उसे उसी हिसाब से प्रतिष्ठा मिलेगी कर्म आधारित न कि जाति आधारित। इसमें बाज़ार का महात्म्य भी है जहाँ कोई भेदभाव नहीं बॉस नरोत्तमदास उदाहरण देकर समझाता है कि हेमामालिनी का विज्ञापन नहीं देखा? आप वह विज्ञापन देखें जिसमें वे कहती है ‘जो सबको शुद्ध पानी दे’ यानी बाजार भेदभाव नहीं करता।
फ़िल्म में सबसे महत्वपूर्ण दृश्य तिवारी का लंबित ‘प्रमोशन लेटर’ है नरोत्तम के मन में ‘तिवारी’ की जाति को लेकर कोई पूर्वाग्रह, दुराग्रह अथवा बदले या विद्रोह की भावना नहीं, नरोत्तमदास एक संयमित स्वभाव का व्यक्ति है, नरों में उत्तम है, उसकी कुर्सी के ठीक पीछे बाबा साहब की फोटो पर लगा चश्में का-सा फ्रेम नरोत्तम ने भी पहना है जो संविधान निर्माता के जीवन दर्शन को अपने जीवन में उतारने का संकेत है, पीछे लगी ट्रोफ़ी बता रही है कि वह प्रतिभावान है, बी.ए. में कम डिवीज़न होने पर एम.बी.ए. की डिग्री लेना उसके अथक मेहनत का प्रयास थी। लैटर देने पर तिवारी उसकी तुलना रामजी से करता है,पीछे नाटकीय अंदाज़ में मंदिर की घंटिया बजने लगती हैं ‘आप जुग जुग जियो आपकी पद प्रतिष्ठा बढ़े…सर एकदम भगवान राम जैसे दिखते आप’ पृष्ठभूमि में सितार बज रहा है, तिवारी के संस्कार ही है कि अपना उद्धार करने वाले को वह भगवान मान लेता है पर इसे हम ‘रामराज्य’ संकल्पना से नहीं जोड़ पाते, जहाँ सभी बराबर हैं न ही इसे हमें गाँधी के’ हृदय परिवर्तन’ से जोड़ सकतें हैं बल्कि इस मानसिक बदलाव को ‘परिस्थितिजन्य अनुकूलन’ के रूप में देखना चाहिए खुद को बदलो अन्यथा लुप्त हो जाओगे तभी तिवारी को नाली साफ़ करने में संकोच नहीं हो रहा। अंतिम संवाद भी महत्त्वपूर्ण है ‘दो तीन बार डंडा डालूँगा, हो जाएगा… पानी उतर रहा है…हाँ धीरे धीरे उतर रहा है’ सर …’ यानी झूठी मान मर्यादा का गन्दा पानी अब उतर रहा है, धीरे धीरे ही सही! जैसे कहावत भी है- ‘उसका पानी उतर गया’ झूठी मान-मर्यादा का पानी अब उतर रहा है। हाल ही में एक नेता ने ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता पढ़ने पर स्पष्टीकरण दिया कि यह समझना मुश्किल नहीं है कि ‘ठाकुर’ का इस्तेमाल ‘उच्च जाति के वर्चस्व के रूपक में किया गया है “मेरे कहने का मतलब यह था कि जब तक ‘हम’ इस प्रवृति से उबर नहीं जाते,तब तक हम निम्न वर्ग के कल्याण के बारे में नहीं सोच सकते” इसी तथ्य को कहानी (2012) और फिल्म अपने अंदाज़ में कहती है। यहाँ साहित्य (और सिनेमा भी) राजनीति के आगे चलने वाली मशाल (प्रेमचंद) के रूप में ‘यस सर’ कहानी बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है।
निर्देशन के साथ ही कलाकारों के संवाद और अभिनय भी लाजवाब है, पूरी टीम बधाई की पात्र है। मुकेश एस.भट्ट, सोनू आनंद, विनीत आहूजा, हिमांशु रावत,विकास सोमानी सभी ने किरदार को ही जीवंत ही नहीं किया बल्कि सामाजिक स्थिति और होने वाले मानसिक बदलाव को भी ख़ूबसूरती से रूपांतरित किया है। अजय नावरिया के संवाद अत्यंत सरल शैली में लिखे और बोले गए है अबे सरदार.. आजा भई पण्डित…वो स्वीपर क्या नाम है उसका …लायक राम…. क्या कलयुग आ गया ब्राह्मणों को नीचों के झूठे बर्तन धोने पड़ रहें हैं… तो नौकरी छोड़ दो डॉक्टर ने कहा है यहां काम करने को यहाँ काम करों… जहाँ आप जैसे विद्वान, गुणवान ,ब्राह्मण का बैठना ‘तय हो’ वहाँ नीच जात का आकर हम पर हुकुम चलाएगा, खराब नहीं लगेगा… ‘क्या दुर्गादास अच्छी भली नौकरी है क्या ज़रूरत सूअर वुअर पालने की लात मार ऐसे धंधे को’? रजत तिवारी का गीत संगीत भी कथा के अनुकूल है कबीर के दोहे ने कथ्य को मार्मिकता प्रदान की है।–
‘जात पात सब मैल है मन का, मन से मैल हटा दो,
जन्म धर्म और करम में भैया करम को मान बड़ा दो,
एक पिता है एक चिता है एक ही है इंसान
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान
जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान
के गीत में संदेश के साथ फिल्म का अंत होता है
इन खूबियों के साथ यह बताना अनिवार्य हो जाता है ‘यस सर’ फिल्म फिलहाल देश विदेश में फिल्म फेस्टिवलों की शान बनी खूब तारीफें बटोर रही है। फिल्म सिएटल में आयोजित तस्वीर एशियन फेस्टिवल में स्क्रीनिंग के लिए चुनी गई सर्वश्रेष्ठ एशियाई फिल्मों में एक है तो साथ ही गोवा शोर्ट फिल्म फेस्टिवल 2023, DC साउथ एशिया फिल्म फेस्टिवल 2023, लिफ्ट ऑफ ग्लोबल नेटवर्क 2023, अयोध्या फिल्म फेस्टिवल 2023, येल्लोस्टोन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2023, जयपुर फिल्म फेस्टिवल 2024, दादा साहब फ़ाल्के इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल 2024, 29TH कोलकता इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल, में फ़िल्म का ऑफिसियल सिलेक्शन हुआ है। फिल्म आम दर्शकों के लिए कब तक उपलब्ध होगी नहीं मालूम लेकिन अजय नावरिया की कहानी ‘यस बॉस’ सहज उपलब्ध है आपको अवश्य पढ़नी चाहिये।