चर्चा में

क्यों हमेशा सही साबित नहीं होते एग्जिट पोल के अनुमान?

 

  पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह तो साबित हो ही गया है कि इस बार अधिकांश एग्जिट पोल के पूर्वानुमानों के मुताबिक ही इन राज्यों में कोई पार्टी सत्तारूढ़ हो रही है लेकिन एकाध एग्जिट पोल को छोड़ दिया जाए तो विभिन्न पार्टियों को मिली सीटों का अंतर बाकी सभी पोल्स में लगाए गये अनुमानों से काफी ज्यादा रहा। ऐसे में चुनाव परिणाम के पूर्वानुमानों पर एक बार फिर सवाल खड़े हुए हैं। मसलन, जिस पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों पर न केवल देशभर के लोगों की बल्कि दुनियाभर की नजरें केन्द्रित थी, वहाँ एक टीवी चैनल ने तो अपने एग्जिट पोल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 64-88 जबकि भाजपा को 173-192 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी लेकिन तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार 213 सीटें जीतकर प्रचण्ड बहुमत के साथ जीत की हैट्रिक बनाने में सफल हुई है।

कोई भी एग्जिट पोल तृणमूल की इतनी प्रचण्ड जीत का अनुमान लगाने में सफल नहीं हुआ। इसी प्रकार एक एग्जिट पोल में तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबन्धन को 38 से 54 के बीच जबकि द्रमुक-कांग्रेस को 175 से 195 के बीच सीटें मिलने का अनुमान लगाया था जबकि वास्तव में अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक गठबन्धन को क्रमशः 75 तथा 159 सीटें मिली हैं। तीन अलग-अलग एग्जिट पोल्स में केरल में एलडीएफ को 70 से 80 के बीच और यूडीएफ को 58 से 59 के बीच सीटें मिलने की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन वास्तविक परिणामों में एलडीएफ को 95 जबकि यूडीएफ को 43 सीटें हासिल हुई। चुनाव परिणामों के पूर्वानुमानों के सटीक साबित नहीं होने के बाद एक बार फिर इनकी साख पर सवाल उठने लगा है।

 अब यह भी जान लें कि चुनावी सर्वे कराए जाने की शुरूआत कब और कैसे हुई थी? दुनियाभर में सबसे पहले अमेरिकी सरकार के कामकाज पर लोगों की राय जानने के लिए चुनावी सर्वे कराए जाने की शुरूआत अमेरिका में हुई थी। उस समय जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने इस विधा को अपनाया था, जिन्हें ओपिनियन पोल सर्वे का जनक माना जाता है। चुनाव उपरांत उन्होंने पाया कि उनके द्वारा एकत्रित सैंपल तथा चुनाव परिणामों में ज्यादा अंतर नहीं था। उनका यह तरीका काफी विख्यात हुआ। इससे प्रभावित होकर ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भी इसे अपनाया और बहुत बड़े स्तर पर ब्रिटेन में 1937 जबकि फ्रांस में 1938 में ओपिनियन पोल सर्वे कराए गये। उन देशों में भी ओपिनियन पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक साबित हुए थे। जर्मनी, डेनमार्क, बेल्जियम तथा आयरलैंड में जहाँ चुनाव पूर्व सर्वे करने की पूरी छूट दी गई है, वहीं चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको इत्यादि कुछ देशों में इसकी छूट तो है किन्तु शर्तों के साथ।

  भारत में वैसे तो वर्ष 1960 में ही एग्जिट पोल अर्थात् चुनाव पूर्व सर्वे का खाका खींच दिया गया था। तब ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज’ (सीएसडीएस) द्वारा इसे तैयार किया गया था। हालांकि माना यही जाता है कि एग्जिट पोल की शुरूआत नीदरलैंड के समाजशास्त्री तथा पूर्व राजनेता मार्सेल वॉन डैम द्वारा की गई थी, जिन्होंने पहली बार 15 फरवरी 1967 को इसका इस्तेमाल किया। उस समय नीदरलैंड में हुए चुनाव में उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा था। भारत में एग्जिट पोल की शुरूआत का श्रेय इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा द्वारा जनता के मिजाज को परखने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रूख को जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था। शुरूआत में देश में सबसे पहले इन्हें पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित किया गया जबकि बड़े पर्दे पर चुनावी सर्वेक्षणों ने 1996 में उस समय दस्तक दी, जब दूरदर्शन ने सीएसडीएस को देशभर में एग्जिट पोल कराने के लिए अनुमति प्रदान की।

  भारत में अधिकांश टीवी चैनलों पर वर्ष 1998 में चुनाव पूर्व सर्वे प्रसारित किए गये और तब ये बहुत लोकप्रिय हुए लेकिन कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इन पर प्रतिबन्ध लगाए जाने की माँग पर 1999 में चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल तथा एग्जिट पोल पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। उसके बाद एक अखबार द्वारा सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाए जाने के बाद शीर्ष अदालत द्वारा चुनाव आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया गया। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर एग्जिट पोल पर प्रतिबन्ध लगाए जाने की माँग उठी और माँग के जोर पकड़ने पर चुनाव आयोग ने प्रतिबन्ध के संदर्भ में कानून में संशोधन के लिए तुरंत एक अध्यादेश लाए जाने के लिए कानून मंत्रालय को पत्र लिखा। उसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान जब तक अंतिम वोट नहीं पड़ जाता, तब तक किसी भी रूप में एग्जिट पोल का प्रकाशन या प्रसारण नहीं किया जा सकता।

  यही कारण है कि एग्जिट पोल मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही दिखाए जाते हैं। मतदान खत्म होने के कम से कम आधे घंटे बाद तक एग्जिट पोल का प्रसारण नहीं किया जा सकता। इनका प्रसारण तभी हो सकता है, जब चुनावों की अंतिम दौर की वोटिंग खत्म हो चुकी हो। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि आखिर एग्जिट पोल के प्रसारण-प्रकाशन की अनुमति मतदान प्रक्रिया के समापन के पश्चात् ही क्यों दी जाती है? जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126ए के तहत मतदान के दौरान ऐसा कोई कार्य नहीं होना चाहिए, जो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डाले अथवा मत देने के उनके फैसले को प्रभावित करे। यही कारण है कि मतदान से पहले या मतदान प्रक्रिया के दौरान एग्जिट पोल सार्वजनिक नहीं किए जा सकते बल्कि मतदान प्रक्रिया पूरी होने के आधे घंटे बाद ही इनका प्रकाशन या प्रसारण किया जा सकता है। यह नियम तोड़ने पर दो वर्ष की सजा या जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं।

  यदि कोई चुनाव कई चरणों में सम्पन्न होता है तो एग्जिट पोल का प्रसारण अंतिम चरण के मतदान के बाद ही किया जा सकता है लेकिन उससे पहले प्रत्येक चरण के मतदान के दिन डाटा एकत्रित किया जाता है। एग्जिट पोल से पहले चुनावी सर्वे किए जाते हैं और सर्वे में बहुत से मतदान क्षेत्रों में मतदान करके निकले मतदाताओं से बातचीत कर विभिन्न राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों की हार-जीत का आकलन किया जाता है। अधिकांश मीडिया संस्थान कुछ प्रोफैशनल एजेंसियों के साथ मिलकर एग्जिट पोल करते हैं। ये एजेंसियां मतदान के तुरंत बाद मतदाताओं से यह जानने का प्रयास करती हैं कि उन्होंने अपने मत का प्रयोग किसके लिए किया। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर जानने का प्रयास किया जाता है कि कहाँ से कौन हार रहा है और कौन जीत रहा है। इस आधार पर किए गये सर्वेक्षण से जो व्यापक नतीजे निकाले जाते हैं, उसे ही ‘एग्जिट पोल’ कहा जाता है। चूंकि इस प्रकार के सर्वे मतदाताओं की एक निश्चित संख्या तक ही सीमित रहते हैं, इसलिए एग्जिट पोल के अनुमान हमेशा सही साबित नहीं होते।

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योगेश कुमार गोयल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं तथा 31 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। सम्पर्क +919416740584, mediacaregroup@gmail.com
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