चर्चा में

क्या जन आन्दोलनों का नेतृत्व राजनीतिक सवालों से उदासीन रह सकता है?

 

यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव से उठने वाले प्रश्न

 

तमाम दलीलों को सुन कर बहुत सोचने के बावजूद पंजाब और यूपी के चुनाव परिणाम और उनमें किसान आन्दोलन के नगण्य प्रभाव का कारण आसानी से समझ में नहीं आ रहा है। यूपी में जातियों ने ज़रूर एक भूमिका अदा की है, पर सवर्ण हिंदुओं के वर्चस्व की विचारधारा पर टिकी आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा के साथ उनका संबंध भी अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का जो मिथ्या भाव इतने विशाल किसान आन्दोलन के वक्त कहीं दिखाई नहीं देता था, पर चुनाव के वक्त वही भाव अन्य सब बातों पर हावी हो सकता है, एक जटिल सांस्कृतिक-राजनीतिक समस्या है, जिसे किसी भी सतही सोच से समझना संभव नहीं है।

पंजाब के किसान आन्दोलन को कांग्रेस सरकार का भारी समर्थन मिला था, इसे सब जानते हैं। बाक़ी तमाम प्रकार के सहयोग के अलावा, पंजाब सरकार ने ही पंजाब के शहीद किसानों की पहली सूची जारी की थी और सभी शहीदों को मुआवज़े का ऐलान भी किया था। पंजाब की कांग्रेस सरकार के समर्थन के बिना किसान आन्दोलन की सूरत क्या होती, इसका अभी अंदाज नहीं लगाया जा सकता है।पर यह भी समझ के परे है कि किसान आन्दोलन के नेता ही इस चुनाव के वक्त पंजाब में लगातार कांग्रेस को दंडित करने की बात कहते रहे हैं। इस बात का तर्क भी एक खोज का विषय है। कमोबेश किसान आन्दोलन के नेतृत्व का कांग्रेस के प्रति यही नज़रिया यूपी में भी दिखाई दिया, जबकि कांग्रेस ने कहीं भी किसान आन्दोलन के प्रति असहयोग या विरक्ति का भाव जाहिर नहीं किया था।

किसान आन्दोलन के नेता अक्सर भाजपा और कांग्रेस को एक ही तराज़ू पर तौलते दिखाई देते हैं, इसके कारणों की भी गहराई से पड़ताल की जानी चाहिए। किसान आन्दोलन अंत में एमएसपी के साथ ही जिस मंडी व्यवस्था की रक्षा का आन्दोलन बन चुका था, कांग्रेस दल और उसकी सरकारों का उससे कभी कोई विरोध नहीं रहा। इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस के बीच कोई फर्क न पाने की किसान आन्दोलन के नेताओं की मनोदशा से क्या यह नहीं लगता कि वे आज तक भी मोदी-आरएसएस की सत्ता के फ़ासिस्ट सत्य को समझ ही नहीं पाए हैं, उसे आत्मसात करना तो बहुत दूर की बात है!

क्या किसान आन्दोलन के कथित ग़ैर-राजनीतिवाद ने राजनीतिक विकल्पों को कमजोर करके परोक्ष रूप में अंततः सांप्रदायिक-जातिवादी वर्चस्व की राजनीति की ही सहायता नहीं की और यूपी में इसने ही सांप्रदायिक और जातिवादी ध्रुवीकरण की मदद नहीं की? क्या उनके नज़रिये की इसी कमी ने इन चुनावों में सब जगह भाजपा के सांप्रदायिक रोड रोलर के लिए मैदान साफ़ करने का काम नहीं किया?

किसान आन्दोलन के बीच से दिल्ली के बार्डर पर जिस नए भारत के उदय के संकेत मिले थे, वह भारत आज़ादी की लड़ाई के बीच से तैयार हुए धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक भारत का पुनरोदय की झलक देता था। क्या इस आन्दोलन के नेताओं ने अपने अंध-कांग्रेस विरोध के चलते उस भारत की संभावना की पीठ में छुरा भोंकने का काम नहीं किया? किसान आन्दोलन की ग़ैर-राजनीतिक राजनीति के सत्य की आज गहराई से जाँच की ज़रूरत है। एक क्रांतिकारी संभावनाओं से भरे हुए व्यापक जनआन्दोलन को उसके नेतृत्व की अदूरदर्शिता ने कैसे निरुद्देश्य विक्षिप्तता का शिकार बना दिया, यह एक गंभीर राजनीति-शास्त्रीय खोज का विषय बन सकता है।

किसान आन्दोलन ने इजारेदार पूंजीवाद के खिलाफ समग्र किसान जनता की एकता की जो एक नज़ीर पेश की थी, उसके नेतृत्व के अराजनीतिक रुझान ने इस एकता को तोड़ देने का रास्ता आसान कर दिया। इस आन्दोलन ने मोदी शासन के खिलाफ जनता के अवरुद्ध कंठ को वाणी देने का काम किया था। पर इसके नेतृत्व के राजनीतिक पूर्वाग्रहों ने इन फ़ासिस्ट दमनकारी ताक़तों की ही राजनीतिक सहायता का काम कैसे किया, इस पर विचार किया जाना चाहिए। यह एक बुनियादी सवाल है कि क्या एक ऐसे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संभावनाओं से भरपूर किसी आन्दोलन का नेतृत्व समग्र राजनीतिक परिदृश्य के प्रति उदासीन रह कर आन्दोलन की जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वाह कर सकता है?

क्या किसान आन्दोलन के नेतृत्व का यह विडंबनापूर्ण दृष्टिकोण इस बात का संकेत भी नहीं है कि उसे शायद दुनिया के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ का जरा सा भी अहसास नहीं है? क्रांतिकारी संभावनाओं से भरा हुआ कोई भी आन्दोलन समग्र वैश्विक सामाजिक परिदृश्य के प्रति उदासीन रह कर कैसे समाज में अपनी भूमिका अदा कर सकता है?

क्या यह किसी से छिपी हुई बात है कि आज का काल एक प्रकार से पूंजीवाद की पूर्ण विजय का काल है। दुनिया से वामपंथी विकल्पों के अंत का अर्थ ही है पूंजीवाद के मूलभूत विरोध का अंत। आज क्रमशः पूंजी के संकेंद्रण की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत ही सारी दुनिया में वित्तीय जनतंत्र वित्तीय राजशाही में बदलते जा रहे हैं। इसे ही फासीवाद का रूप भी कहा जा सकता है। हमारे देश में ही सिर्फ दो आदमियों के हाथ में 60 प्रतिशत संपत्ति जमा हो गई है। वित्तीय राजशाही फासीवाद की लाक्षणिक विशेषता है। साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवादी राजसत्ताओं का फासीवाद की दिशा में बढ़ने का यह एक स्वाभाविक उपक्रम प्रतीत होता है।

आज के काल में आम आदमी के पास जीवन के सिर्फ चार विकल्प शेष हैं। पहला, मालिक बनना, जो मुट्ठी भर, बड़ी पूंजी से जुड़े लोगों के लिए ही खुला होता है। दूसरा है, मजदूर-कर्मचारी और उपभोक्ता बन कर श्रम और माल के बाजार में पिसते रहना।  तीसरा है, गरीब किसान बने रहना। और, चौथा, जो सबसे ज्यादा त्रासद है — कुछ भी न बनना। हमारे देश के करोड़ों बेरोजगार इसी चौथी श्रेणी में आते हैं। भर्तियों के लिए दौड़ते-भागते थक कर गहरे अवसाद में जी रहे लोग। ये ही राजनीतिक विकल्पों के अभाव में बड़ी आसानी से फासिस्टों के हत्यारे गिरोह के सदस्य का काम करते हैं। और इनकी संख्या किसी से भी कम नहीं हैं।

एक ओर लोगों के पास काम नहीं है, और दूसरी ओर सरकार सिर्फ ऑटोमेशन, डिजिटलाइजेशन के जरिए कम से कम लोगों के जरिए अधिक से अधिक काम कराने पर जोर देती है। जो लोग काम में लगे हुए हैं, उन पर काम का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ाने की स्कीमें चल रही है। अर्थात् मौजूदा व्यवस्था में करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के लिए कोई भविष्य नहीं है। फिर भी इस काल की सरकारें पहले से कहीं ज्यादा मजबूत प्रतीत होती हैं। क्यों?

तमाम पत्रकारों की जलेबीदार बातों से आपको लगेगा कि जैसे मौजूदा मोदी शासन का कोई विकल्प ही नहीं है। और गौर करने पर पायेंगे कि किसान आन्दोलन के नेतृत्व का गैर-राजनीतिक रवैया भी इस शासन की निंदा करते हुए इसे ही प्रकारांतर से विकल्पहीन बनाने का दोषी रहा है। उसकी राजनीति-विमुखता का इसके अलावा दूसरा कोई अर्थ क्या संभव लगता है?

आज की तरह की दुनिया में अगर सत्ता की राजनीति का जनतांत्रिक ढांचा बना रहता है तो स्वाभाविक है कि उसकी राजनीति कमोबेश दो विकल्पों के बीच बटी रहेगी। यह मूलभूत सचाई है कि पूंजी की महाशक्ति का मुकाबला जनता की अधिकतम एकता की शक्ति के आधार पर ही संभव होगा। पर क्या दुनिया के विकसित पूंजीवादी देशों में राजनीति के द्विदलीय चरित्र के पीछे भी कुछ इसी प्रकार के तर्क की छाया काम नहीं कर रही है? यहां लड़ाई हमेशा सीधी दो के बीच होती है, भले दो गठबंधनों में ही क्यों न हो। यह पक्ष-विपक्ष, जनतांत्रिक राजनीति का एक सामान्य चरित्र बनता जा रहा है। वाम और दक्षिण, डेमोक्रेट और रिपब्लिक, लेबर और कंजरवेटिव। आम तौर पर पेशवर राजनीति इन दो के बीच ही बटी रहती है।

इन दो ध्रुवों के बीच सभी विरोधों के बावजूद अक्सर ऐसे कठिन अन्तर्विरोध नहीं पैदा होते हैं जिनका कोई समाधान संभव ही न हो। अन्यथा, तो इसके परिणाम किसी भी समाज को गृहयुद्ध के कगार तक ले जा सकते हैं। जिसे राजनीति का कुलीनतंत्र कहते हैं, यह उनके बीच एक प्रकार के सामंजस्य, रजामंदी की स्थिति भी बनाता है।

जाहिर है कि राजनीति के कुलीनतंत्र की यही रजामंदी अक्सर अनेक हलकों से तीखी आलोचना और निंदा का विषय भी बनती है। अनेकों को वह फूटी आंखों नहीं सुहाती है। वामपंथी इसे न्याय और समानता का विरोधी कहते हैं, तो दक्षिणपंथी इसे पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान और धर्म का भी विरोधी बता कर इसकी निंदा करते हैं। इसी से हमेशा एक प्रकार के अतिवाम और अतिदक्षिण के उदय की संभावना भी बनी रहती है। वामपंथ साम्यवाद का नारा लेकर आता है तो दक्षिणपंथ नग्न फासीवाद का। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी राजनीतिक घटनाचक्र के बीच से वामपंथ भी कई बार, गठबंधन के जरिए ही क्यों न हो, राजसत्ता तक पहुंचने का अवसर पाता रहा है और दक्षिणपंथ को भी ऐसे अवसर मिलते रहे हैं। भारत में इसके तमाम उदाहरण मौजूद है। पर इसी प्रक्रिया के बीच से नग्न फासीवाद की ओर बढ़ने वाले हिटलर का उदाहरण भी हमारे आधुनिक इतिहास में ही मौजूद है।

इस प्रकार कुल मिला कर जाहिर है कि आज की दुनिया की राजनीतिक परिस्थिति विश्व स्तर पर शक्तियों के एक संतुलन को कायम रखने के लिए राजनीतिक तंत्र के समझौतों से पैदा होने वाले अन्तर्विरोधों की एक उपज है, जो अकारण नहीं है। इसे हम अपनी मनमर्जी से यूं ही हवा में उड़ा सकते हैं। अगर कहीं भी दो पक्षों के बीच के तनाव को असंभव स्तर तक बढ़ने दिया जाता है तो पूरी व्यवस्था के ही बिखर जाने का खतरा बन सकता है। राजनीति की एक बड़ी भूमिका इस संतुलन को बनाए रखने की भी होती है।

इसी संदर्भ में समझने की सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि मोदी हमारे देश के ऐसे ही अन्तर्निहित तनावों के काल में उन सारी बुराइयों के प्रतीक के रूप में सत्ता पर आए हैं, जिन्हें साफ तौर पर फासीवादी कहा जा सकता है। वे जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के विरुद्ध समाज में धार्मिक और जातिवादी ध्रुवीकरण को चरम पर ले जाने वाले बहुसंख्यकवाद के प्रतिनिधि हैं। मोदी ने समाज में परिवर्तन-विरोधी दक्षिणपंथ की सारी ताकतों को, इजारेदार पूंजीपतियों से लेकर वर्चस्ववादी सवर्णों तक को अपने साथ इकट्ठा कर लिया है। यही आज की राजनीति का सबसे प्रमुख संकट है, जो इसके संतुलन को बनाने के बजाय बिगाड़ने की भूमिका अदा कर रहा है।

वामपंथ और किसान आन्दोलन मूलतः मेहनतकश जनता के जिन हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मोदी-आरएसएस का मूल अन्तर्विरोध उनसे हैं, न कि कांग्रेस से, जिसे मोदी ने अपने हमलों का मूल लक्ष्य बना रखा है। कांग्रेस की दशा तो यह है कि उसके पास अपना खुद का सामाजिक आधार बुरी तरह से सिकुड़ चुका है। यही वजह है कि आज कांग्रेस वास्तव में वामपंथी और मेहनतकशों की शक्ति और विचारधारा से ही बल पा कर जितना संभव है, मोदी की सत्ता को चुनौती दे पा रही है। क्या वामपंथ को कांग्रेस के साथ अपने संबंधों के इस सच को नए सिरे से गहराई से समझने की जरूरत नहीं है?

आज यदि सत्ताधारी दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक कुलीनों के बीच कोई रजामंदी कायम नहीं होती है, और दक्षिणपंथी फासिस्ट वर्चस्व का दौर-दौरा इसी तरह ही आगे भी तेजी से जारी रहता है तो आगे का समय निश्चित तौर पर भारी सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता और संघर्षों का दौर साबित होगा। यह दौर भारत में पूंजीवादी बर्बरता का सबसे भयंकर दौर भी साबित होगा। क्या तमाम जन-आन्दोलनों के नेतृत्व को भविष्य के इस राजनीतिक परिदृश्य के प्रति जागरूक नहीं रहना चाहिए?

फासीवाद और साम्यवाद के बीच की लड़ाई में आज निश्चित रूप से फासीवाद का पलड़ा भारी है। इसी में जरूरी यह है कि साम्यवाद की ताकतों को एक नए और विस्तृत रूप में अपने को लामबंद करके सामने आए। किसान आन्दोलन ने उसकी एक झलक भी दी थी। पर अफसोस कि उस आन्दोलन के नेतृत्व की दृष्टिहीनता ने अंततः उसे वामपंथ की संकीर्णता की कमजोरी का सबब बना कर प्रकारांतर से दक्षिणपंथ की मदद की। इस नेतृत्व का अंध-कांग्रेस विरोध उसे सभी भाजपा-विरोधी ताकतों को एकजुट करने की धुरी बनाने में विफल रहा।   

आज यूपी सहित पांच राज्यों के चुनावों की समीक्षा करते हुए उपरोक्त सब प्रश्नों और बिंदुओं पर विचार करने की जरूरत है

.

Show More

अरुण माहेश्वरी

लेखक मार्क्सवादी आलोचक हैं। सम्पर्क +919831097219, arunmaheshwari1951@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x